एक हठी सर्वोदयी की मौन विदाई


खादी का भगवा रंग का ऊनी गरम कोट व उसके अन्दर से चटख सफेद कुर्ता पायजामा, सिर में कोट के रंग की टोपी और पैरों में कपड़े के जूते पहने कन्धे पर पिट्ठूनुमा छोटा बैग लटकाये और हाथ में छोटी अटैची पकड़े भट्ट जी अधिकांश बैठकों में मिल जाते थे। बैग में कपड़े और अटैची में पूरा दफ्तर रहता था। बैठक में आते ही पीठ टिकाने के लिये दीवार के सहारे बैठ जाते थे। बैठक शुरू होते ही भट्ट जी सो जाते थे। मैं अक्सर उनको उसी मुद्रा में देखता था। किसी मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करने के लिये तुरन्त जागकर कह देते थे और बैठक में हुई पूर्व की चर्चाओं का भी सन्दर्भ लेते थे। उनकी तत्परता सभी जगह देखने को मिलती थी।

एक थी टिहरी30 दिसम्बर 2009 को प्लासड़ा पुलिस को पार करते ही नागेन्द्र का फोन आया। बिना कुछ कहे उसने मुझसे पूछा कि भट्ट जी के बारे में कुछ सुना है। मैंने कहा ‘नहीं सुना’। फिर उसने कहा कि कल दोपहर यानि 29 दिसम्बर 2009 को भट्ट जी का देहावसान हो गया है। मैं और कुछ पूछने की स्थिति में नहीं था। मुझे इस बात पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि जो आदमी अभी कुछ दिन पूर्व बीमार होते हुए भी गोवा की अकेले सैर करके आया हो और हमें लगातार फोन पर या मिलने पर सक्रिय रहने के लिये डाँटने की हद तक समझाते रहे हों, वे इतनी खामोशी से कैसे चले जा सकते हैं। पर मैं क्या कर सकता था। फिर डरते-डरते घर में भी फोन किया क्योंकि पिताजी को हृदय रोग होने के कारण इस प्रकार की खबर धीरे-धीरे ही बताते हैं। उस पर सुरेन्द्र दत्त भट्ट जी से उनकी गहरी मित्रता रही है। माँ जी को बताया तो उन्होंने अखबार उठाया और उसमें भी उत्तरकाशी से लगी हुई खबर पढ़ ली कि सर्वोदयी नेता सुरेन्द्र दत्त भट्ट का निधन।

भट्ट जी का चेहरा आँखों में तैरने लगा। उनकी निश्छल हँसी और काम करने की हठ आँखों के सामने तैरने लगी। भट्ट जी को कब से जानता हूँ मैं यह तो नहीं जानता पर सोचने समझने की उम्र से उनको अपने आस-पास ही पाया। सप्ताह में एक बार उनका फोन मेरे मोबाइल या घर के फोन पर अवश्य आ जाता था। इस बार थोड़ा अस्वस्थ थे इसलिये महीने भर से बात नहीं हो पाई थी। कुछ ही दिन पहले उत्तरांचल वालेन्ट्री हेल्थ एसोसिएशन की बैठक के लिये उनका फोन आया था और अपनी अस्वस्थता के कारण वे अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना चाह रहे थे। मैंने बैठक से एक दिन पूर्व उनसे फोन पर बात की तो वे मुश्किल से बोल पा रहे थे। मैंने उन्हें बैठक में न आने के लिये कहा क्योंकि उत्तरकाशी से देहरादून का सफर स्वस्थ व्यक्ति को भी बीमार कर देता है। परन्तु उनकी हठ थी कि मैंने तो आना ही है। इस बार मैंने उनके साथ हठ की कि आप स्वस्थ होने तक कहीं नहीं जायेंगे। पर मेरी गीदड़ धमकी से वे डरने वाले नहीं थे। वे अपनी जिद पर अड़े रहे कि मैं तो आऊँगा ही। उनकी जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा और उत्तरांचल वालेन्ट्री हेल्थ एसोसिएशन की उपाध्यक्षा कुसुम दीदी को फोन करके भट्ट जी के स्वास्थ्य और बैठक में आने की हठ के बारे में उन्हें बताया और बैठक को कैंसिल करने का निवेदन किया। कुसुम दीदी ने तुरन्त एसोसिएशन के महासचिव तेज सिंह भण्डारी व अन्य सदस्यों से भट्ट जी की परिस्थिति को देखते हुए बैठक को अगली तिथि पर आयोजित करने के लिये बात की। सभी मान गए और अगली तिथि को बैठक आयोजित की गई। भट्ट जी सबसे पहले बैठक में उपस्थित हुए और अपना त्याग-पत्र दिया।

भट्ट जी से पहला सबक टिहरी आन्दोलन के दौरान 1993 में मिला। मेरे लिये वे चलते-फिरते विश्वविद्यालय थे। उस समय सुन्दरलाल बहुगुणा जी अपने उपवास पर थे और दो-तीन दिन पहले ही रिहा होकर टिहरी आये थे। गाँवों में जाकर जनसम्पर्क कर आन्दोलन की गतिविधियों में भाग लेने के लिये लोगों को तैयार करने हेतु कार्यकर्ताओं के दल बनाए गए। मैं क्योंकि उम्र में छोटा था और ग्यारहवीं की परीक्षा देकर गर्मी की छुट्टियों में आन्दोलन में गया था इसलिये मुझे वयोवृद्ध नेता सुरेन्द्र दत्त भट्ट जी के साथ रखा गया। नागेन्द्र उतना छोटा तो नहीं था पर दिखने में मुझसे भी छोटा लगता था तो उसे भी हमारी टीम में रखा गया। हम लोग मई की गर्मियों में गाँवों में जाने को तैयार हो गए। भट्ट जी ने मुझे आदेश दिया कि मैं रास्ते के लिये गुड़-चने ले लूँ। पर मैं तो अपनी मस्ती में था। बिना गुड़-चने के चल दिया।

हमारा पहला पड़ाव असेना गाँव था। असेना पहुँचकर मुझे और नागेन्द्र को पता चला कि आज दिन भर हमारे साथ दूरदर्शन की टीम है। असेना गाँव में सभी लोग आक्रोशित थे। थोड़ी देर के लिये सांकेतिक चक्का जाम भी किया। घोंटी में कंसवाल परिवार के साथ दिन का भोजन किया और कुछ यादें चिपको आन्दोलन की दूरदर्शन टीम के साथ बाँटी। इस बीच में मैं और नागेन्द्र भट्ट जी से कई बार डाँट खा चुके थे। शायद हम उनके अनुशासन से बाहर जाकर अपना छोकरापना कर रहे थे। घोंटी में दूरदर्शन की टीम को विदाई देकर हम पड़ागली गाँव के लिये चल पड़े। कंसवाल जी ने हमें जाते समय कहा कि अगर रुकने की व्यवस्था नहीं होगी तो वापस घोंटी आ जाना। पड़ागली गाँव में प्रवेश करते ही अधिकांश गाँववासी एक चाय के होटल में मिल गए। हमारे लिये आश्चर्य था कि गाँव में चाय का होटल है और ग्राहक गाँव के ही लोग हैं। हम भी वहीं पर बैठकर चर्चा करने लगे। हमारी ओर से भट्ट जी ही बोल रहे थे। भट्ट जी उनसे बाँध से होने वाले खतरों के बारे में बात कर रहे थे। वे खतरे आज प्रत्यक्ष दिख रहे हैं। बाँध पर चर्चा शुरू हुई और भ्रष्टाचार पर पहुँच गई। चर्चा अपने चरम पर तब पहुँची जब गाँव के भ्रष्टाचार की बात होने लगी। लोगों का कहना था कि गाँव के प्रधान ने घोटाला किया हुआ है।

इस विषय पर उप-प्रधान काफी मुखर हो रहे थे। धीरे-धीरे रात होने लगी और लोग अपने घरों को जाने लगे। जब तीन-चार लोग ही बचे रह गये तो मुझे और नागेन्द्र को भोजन और आवास की चिन्ता सताने लगी। भट्ट जी अपनी चर्चा में इस कदर खो रखे थे कि हमारे होने का अहसास भी नहीं हो रहा था। मैंने और नागेन्द्र ने एक योजना बनाई। हमें यह अनुभव हो गया था कि उप प्रधान का घर एक रात के लिये हमारा ठिकाना बन सकता है। इसलिये हमने उसे अपने कब्जे में लेने का पूरा प्लान बनाया। हमने उप-प्रधान को बताया कि भट्ट जी जाने-माने पत्रकार हैं और तुम्हारी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर रख सकते हैं। भट्ट जी से चर्चा करते हुए वह उनकी बातों से प्रभावित तो हो ही गया था। उसने तुरन्त हमारा सामान उठाया और अपने घर के लिये चल दिया। हम पीछे-पीछे चल पड़े। बाद में पता चला कि यह उसकी दुकान है और घर तो उसका दूर है। दुकान में अपने नौकर से कहकर हमारे लिये बिस्तर लगवा दिए। खाना स्वयं बनाने लगा। उसने डिश एन्टेना भी लगा रखा था। हमारे लिये बीबीसी न्यूज चैनल लगाकर टीवी को हमारे कमरे में रख दिया। भट्ट जी को आश्चर्य हो रहा था कि कुछ देर पहले तो किसी ने चाय के लिये भी नहीं पूछा और अब इतनी आवभगत हो रही है।

हम दोनों ने भट्ट जी के कान में चुपके से अपनी योजना बता दी और निवेदन किया कि वे उप-प्रधान की ओर से मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिख दें। भोजन के पश्चात उन्होंने पत्र लिखे और हम दोनों को आगे इस प्रकार की हरकत न करने की हिदायत दी। अगले दिन प्रातः पाँच बजे हमें उठाया और अगले गाँव के लिये बढ़ चले। वे रास्ते में भी लोगों से चर्चा कर रहे थे। कोई समझ रहा था और कोई उनसे बहस करने लग जाता तो वे अपने तर्कों से तो मनवा ही लेते थे। दोपहर तक बिना कुछ खाये पिये हम देवल गाँव पहुँच गए। देवल में रामलीला का मंचन हो रहा था। हम भी पंचायत घर में रामलीला के स्टेज पीछे बैठ गए। थक और भूख से मुझे और नागेन्द्र को कब नींद आ गई पता नहीं चला। भट्ट जी लोगों से चर्चा करते रहे। कुछ लोगों ने भोजन खिलाने की भी बात की और कहा हम यहीं ले आते हैं। थोड़ी देर में दो लड़के आये और कहने लगे कि खाना ला रखा है खा लो। हमने भट्ट जी को उठाया शायद वे भी थोड़ा सुस्ता रहे थे। हमने देखा कि एक कमण्डल में दाल और एक थाली में भात रखा हुआ है और वो भी उपेक्षा और तिरस्कार करके दिया हुआ। गाँव के लोग हमसे चिढ़ रहे थे कि हम बाँध का विरोध कर रहे हैं। अधिकांश गाँववासी हमारी बात सुनने के लिये तैयार नहीं थे। भट्ट जी को गुस्सा आ गया और हमें कठोर शब्दों में कह दिया कि इस भोजन पर हाथ भी नहीं लगाना है। मेरी और नागेन्द्र की भूख से हालत खराब हो रही थी। भट्ट जी इस समय मुझे डाँट रहे थे कि तू अगर टिहरी से गुड़-चने ले आता तो भूख से तड़पना नहीं पड़ता।

भट्ट जी ने अपना झोला और छाता उठाया और चलने के लिये तैयार हो गए। हम पीछे-पीछे चलने लगे। नागेन्द्र कमजोर था और चल नहीं पा रहा था। मैं किसी प्रकार नागेन्द्र को घसीट कर सड़क तक लाया। सड़क के किनारे भट्ट जी के पुराने मित्र और उसी गाँव के निवासी बडोनी जी की दुकान थी। दुकान में बैठते ही भट्ट जी ने दुकानदार और मित्र से कहा कि भोजन तो गडोलिया जाकर ही देखेंगे। वह तुरन्त हरकत में आए और कहने लगे कि भोजन बनवाते हैं। भट्ट जी ने मना कर दिया। मेरे और नागेन्द्र की हालत बहुत खराब हो गई और भोजन के निमन्त्रण को ठुकराकर अब हम खीजने लगे कि सुबह पाँच बजे से चलते-चलते शाम को तीन बज गए हैं और भोजन मिलते हुए भी नहीं खा पा रहे हैं। भट्ट जी ने दुकानदार को कहा कि गुड़ और चने दो। उसने बताया कि मेरे पास तो खच्चरों वाले गुड़ चने हैं। भट्ट जी ने कहा कि हम वह खा लेंगे। उसने संकोच के साथ तोलते हुए सौ ग्राम गुड़ और पाव भर चना दिया। जैसे हमारे सामने गुड़-चने की थैली आई भट्ट जी ने इशारे से हमें रोक दिया और दुकानदार से कहा कि पीने का पानी ले आओ।

जब वो पानी लेने चले गए तो भट्ट जी ने हम दोनों को कहा कि जब तक दुकानदार गुड़-चने के पैसे नहीं ले लेता। तब तक हम इस थैली को हाथ नहीं लगाएँगे। दुकानदार पानी लाया तो भट्ट जी ने पैसों के लिये पूछा तो वह पैसे लेने के लिये इनकार करने लगे। भट्ट जी भी अड़ गए और दुकानदार को मजबूरन उनका मूल्य लेना पड़ा और तब जाकर हमें वो खच्चरों वाले गुड़-चने नसीब हो पाये। गुड़ इतना पुराना था कि मेरी तबियत बिगड़ने लगी थी और हम दोनों अब सीधे टिहरी आने का मन बना चुके थे। इसलिये मैं थोड़ा ड्रामा करने लगा था। भट्ट जी को तो अपना काम पूरा करना था। गडोलिया में भी पूरा जन सम्पर्क करने के बाद हम अन्तिम बस से वापस टिहरी आए। 16 जून को होने वाले प्रदर्शन में जिन गाँवों में हमने सम्पर्क किया था वहाँ से अच्छी संख्या में लोगों ने भागीदारी निभाई। इस पूरे एक सप्ताह के भ्रमण में भट्ट जी ने हमें पूरा परख लिया था। बाँध आन्दोलन के सम्बन्ध में आयोजित बैठक में उन्होंने हम दोनों की तारीफ की और पुनः हम दोनों को अपने साथ ले जाने की इच्छा भी जताई।

एक बार मैं कहीं से लौट रहा था और टिहरी पहुँचने तक रात हो गई थी। मैं गंगा हिमालय कुटी में मिलने के लिये गया। वहाँ सुन्दर लाल बहुगुणा जी और भट्ट जी बैठे हुए थे। मेरी आशल-कुशल पूछने के बाद बहुगुणा जी ने कुछ अन्य मित्रों के बारे में भी हाल-समाचार पूछा। तब बहुगुणा जी ने हँसते हुए कहा था कि पुराना होने पर कार्यकर्ता पर भी जंग लग जाता है। इन दोनों लोगों ने कद्दू में सेंधा नमक डालकर उबाला हुआ था और झगोंरा पका रखा था। मैंने भी वही खाया। उस दौरान मैं भी खाड़ी में उत्तराखण्ड आन्दोलन के शहीद रविन्द्र रावत की मूर्ति स्थापना हेतु जगह-जगह जाकर चन्दा इकट्ठा कर रहा था। मैंने रसीद बुक दोनों ही बुजुर्गों के सामने रख दी। भट्ट जी ने एक सौ रुपए की रसीद कटवाई और बहुगुणा जी कहने लगे कि मैं तो स्वयं चन्दा माँगकर आन्दोलन चला रहा हूँ। तब भट्ट जी ने उन्हें थोड़ा जोर देकर कहा कि लड़का पहली बार माँग रहा है, इसे दे दो और स्वयं ही बहुगुणा जी के नाम से भी एक सौ एक की रसीद काट दी। अपनी धनराशि और बहुगुणा जी से धनराशि माँगकर मेरे हाथ पर रख दी। बाद में पुराने लोगों ने मुझे बताया कि बहुगुणा जी मितव्ययी हैं। उनसे चंदा लेना काफी मुश्किल है, तुम खुशनसीब हो जो तुम्हें उनके हाथ से चंदा मिल गया। उसी रात को हम तीनों लोगों ने मिलकर प्रताप नगर क्षेत्र में जाकर जन सम्पर्क करने का कार्यक्रम बनाया।

जिस वाहन से हमें जाना था वह शायद टिहरी नहीं पहुँच पाया था। कुछ साथी वाहन का इन्तजार करने की बात कह रहे थे। भट्ट जी ने भरपूर गुस्से में कहा कि हमारी यात्रा जीप यात्रा नहीं होनी चाहिए और बस पर जाने के लिये निकल पड़े। तभी वाहन आ गया जिस पर हमें जाना था। हम प्रताप नगर क्षेत्र के लिये निकल पड़े। सिरांई उप्पू भल्डियाना होते हुए ओखलाखाल तक गए। लोगों से बातचीत की। जो समस्याएँ आज दिख रही हैं और लोग आन्दोलन कर रहे हैं उन्हीं पर हम उस वक्त चर्चा कर रहे थे। अधिकतर लोगों को हमारी बातें समझ नहीं आ रही थीं। लोग बाँध निर्माण के सपने में डूबकर हमारी हँसी तक उड़ा रहे थे। कई जगहों पर माता-बहिनों को पानी के लिये जूझते हुए भी देखा लेकिन उन्हें लग रहा था कि बाँध का मतलब सभी समस्याओं का हल है।

भट्ट जी को यात्राजीवी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके समय को बाँटा जाए तो घर में बिताया समय कम और यात्रा का समय अधिक होगा। वे अधिकांश बैठकों में उपस्थित रहते थे। बैठक के आरम्भ होने के साथ वे मंच पर हों या कहीं भी बैठे हों सो, जाते थे। बैठक के बीच में किसी भी चर्चा में हिस्सा लेते तो उनको सारी चर्चाओं की जानकारी रहती थी। यह गुण ही उन्हें अन्यों से अलग करता है। किसी भी मुद्दे पर अपनी बात को बेबाकी से रखने का उनमें अदम्य साहस था। चाहे कितनी विपरीत परिस्थितियाँ रही हों भट्ट जी अपने सर्वोदयी विचारों और सच्चाई से डिगे नहीं। यहाँ तक कि उन्हें झूठे केसों में भी फँसाया गया। सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के बाद देश में आपातकाल की घोषणा हुई थी। उस दौरान भट्ट जी को डी.आई.आर (डिफेन्स ऑफ इण्डिया रूल) के अन्तर्गत जेल में रखा गया। राजनेताओं ने उन्हें सन्देश भेजा कि रवांई घाटी को छोड़ो तो आपको रिहा कर दिया जायेगा। पर वे नहीं माने और जेल में ही आराम करते रहे। रवांई में उनका काम और नाम था। राजनेता उन्हें खतरा समझते थे। वे अपनी सच्चाई और ईमानदारी से सभी मुकदमों से बरी होकर निकल आये। बहुत कम लोगों को पता है कि निष्ठावान कार्यकर्ता और पत्रकार के साथ वे बीमा एजेन्ट का काम भी करते थे। जीवन बीमा निगम में एजेन्टों और पॉलिसी धारकों के हितों के लिये वे हमेशा मुखर रहते थे।

अस्पृश्य माने जाने वाले बन्धुओं को बूढा केदारनाथ मन्दिर में प्रवेश कराते समय अपने सर्वोदयी साथियों के साथ भट्ट जी ने भी सवर्णे की मार खाई थी, जब सवर्ण लोग दलितों द्वारा बारातों में डोला-पालकी इस्तेमाल करने का विरोध करते थे तब भट्ट जी बारातों में स्वयं सम्मिलित होकर विवाह सम्पन्न करवाते थे और किसी प्रकार की अप्रिय स्थिति नहीं आने देते थे। अपने गाँव के निकट के सौन्दकोटी गाँव में एक दलित युवक की बारात में पाहुना बन कर वे सवर्णों के कोप-भाजन बने। उनकी रसोई में भोजन करने पर सवर्ण रुष्ट हो गये थे। अस्पृश्यता निवारण हेतु सवर्णों का शिक्षण और जागरण करना उनका प्रमुख कार्य था।

एक बार 2006 दिसम्बर में मैं अपने पारिवारिक कार्य में व्यस्त था। उसी दौरान भट्ट जी का फोन आया कि उत्तरकाशी के मोरी एवं नौगाँव विकासखण्डों में आग लगने से जन-धन की क्षति हुई है। प्रभावित लोगों के लिये हम क्या कर सकते हैं। मैंने उन्हें बताया कि मैं पारिवारिक कार्य में व्यस्त हूँ। अभी तो ज्यादा कुछ नहीं हो पाएगा। मुझे थोड़ा नाराजगी के लहजे में समझाते हुए भट्ट जी ने बताया कि आग से प्रभावित गाँव बहुत ऊँचाई पर हैं और उनके अन्न के भण्डार तक जल गए हैं। भट्ट जी को हर सम्भव सहायता का आश्वासन देकर मैंने तुरन्त मित्रों और सहयोगी संगठनों, संस्थाओं से सहायता की अपील की। कासा, नई दिल्ली और माउन्टेन फोरम हिमालय की ओर से कुछ सहायता मिलने का आश्वासन मिला। मैंने भट्ट जी को इस सम्बन्ध में अवगत करवाया और बताया कि राहत सामग्री ट्रांसपोर्ट के माध्यम से पहुँच रही है। भट्ट जी तुरन्त अगले दिन ही देहरादून आ गए और जिस ट्रांसपोर्टर ने सामग्री लानी थी, उसको ढूँढकर रोज पता करते रहे कि सामग्री आई कि नहीं आई। जिस दिन सामग्री आई उसी दिन भट्ट जी ने मुझे फोन किया कि मैं राहत सामग्री लेकर पुरोला जा रहा हूँ और तुम भी पुरोला पहुँचो। मैं अपने एक साथी उपेन्द्र पंवार के साथ अगले दिन पुरोला के लिये रवाना हो गया। पुरोला पहुँचकर कार्यक्रम तय किया कि पहले मोरी प्रखण्ड के ढाटमीर गाँव में जाया जाए क्योंकि वहाँ ज्यादा नुकसान हुआ है, ढाटमीर में 90 परिवारों के घर जल चुके थे। अगले दिन हम तीनों लोग ढाटमीर के लिये रवाना हो गए। पुरोला से मोरी, नैटवाड़ होते हुए सांकरी पहुँचे। रात को गढ़वाल मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस में रुके तथा अगले दिन मैं और उपेन्द्र ढाटमीर के लिये रवाना हो गए। ढाटमीर से पहले तालुका पड़ता है, जहाँ पर ढाटमीर के लोग सर्दियों में रहते हैं। तालुका में लोगों से चर्चा की और अगले दिन राहत सामग्री खच्चरों से लाने की व्यवस्था बनाई गई।

इस पूरी व्यवस्था के सम्बन्ध में भट्ट जी को वन विभाग के वायरलेस से बताया तथा उनसे यहाँ के रास्तों के बारे में बताते हुए आने के लिये बिल्कुल मना किया। अगला दिन पूरा इन्तजाम में बीता। तालुका से सांकरी जाने के लिये करीबन पन्द्रह किमी पैदल का रास्ता है। उस दिन बारिश भी होने लगी थी। काफी ठण्ड पड़ गई थी और मैं और उपेन्द्र दस रुपए में आधी बाल्टी गरम पानी लेकर सिर्फ अपने शरीर पर पानी का हाथ लगा पा रहे थे। शाम को चार बजे के लगभग राहत सामग्री खच्चरों पर पहुँची। सबसे पीछे एक खच्चर में तीन-चार कम्बल तिकोन की तरह खड़े हो रखे थे। मैंने खच्चर वालों से पूछा कि ये कम्बल ऐसे क्यों ला रहे हो। उन्होंने मुझे कहा कि भाई साहब ये आपके साथ वाले बुढ़े जी हैं और हमारे मना करने के बावजूद भी जिद करके आ गए। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जिस रास्ते पर हम हट्टे-कट्टे नौजवान भी आने में काँप गए वहाँ भट्ट जी जैसे बुजुर्ग व्यक्ति मूसलाधार वर्षा में समुद्र तल से लगभग सात-आठ हजार फीट ऊँचाई पर इतनी सरलता से पहुँच गए हैं। निश्चय ही यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और काम के प्रति निष्ठा ही थी। उनके आते ही सारा माहौल बदला गया। उन्होंने आते ही गाँव वालों के साथ एक सूक्ष्म बैठक की और अगले दिन बड़ी बैठक तय कर दी। अगले दिन राहत सामग्री वितरण के पश्चात बैठक का आयोजन किया गया। बैठक में उस क्षेत्र की समस्याओं पर भी गम्भीरता से चर्चाएँ की गई। भट्ट जी गाँव वालों को स्वावलम्बन से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने के लिये प्रेरित कर रहे थे। भट्ट जी के पास हठ और जिद के साथ एक विशेषता यह भी थी कि वे जिस क्षेत्र में जाते थे वहाँ की जानकारी उनके पास वहाँ के लोगों से अधिक ही होती। इसके साथ उस स्थान पर उनके अनेकों सम्पर्क सूत्र रहते थे जिससे उनका उस समय में सभी लोगों से जुड़ाव बहुत जल्दी हो जाता था।

अन्त समय में मौत को भी उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। वे सबके मना करने के बावजूद गोवा गए और अस्वस्थ रहते यात्राएँ करते रहे। अन्त में संस्था संगठनों की जिम्मेदारी से अवमुक्त होकर वे अपने उजेली उत्तरकाशी निवास पर आ गए। शायद इस बार वे मौत से भी जिद कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे-बेटियों एवं नजदीकियों को अपने पास बुला लिया था। उनकी हठ के आगे मौत ने भी घुटने टेक दिए और अपने सिद्धान्तों और सच्चाई, ईमानदारी के लिये हठ और जिद की हद तक जाने वाला चिपको, मद्यनिषेध, खनन, सर्वोदय, भूदान आन्दोलन का कर्मठ सिपाही इस दुनिया से शान्त भाव से चला गया। भट्ट जी ने आन्दोलनों एवं संस्था संगठनों में अग्रिम मोर्चे पर रहते दफ्तर भी संभाला। अन्त में उन्होंने उजेली में अपने निवास पर बनाए दफ्तर में ही शरीर त्यागा। भट्ट जी ने जो भी कार्य किया उसको निष्ठा और ईमानदारी से निभाया। ऐसे व्यक्तित्व समाज को कम ही मिलते हैं। भट्ट जी के जाने से जो शून्य बना, आने वाले समय में उसका भरा जाना सम्भव नहीं है।

 

एक थी टिहरी  

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

डूबे हुए शहर में तैरते हुए लोग

2

बाल-सखा कुँवर प्रसून और मैं

3

टिहरी-शूल से व्यथित थे भवानी भाई

4

टिहरी की कविताओं के विविध रंग

5

मेरी प्यारी टिहरी

6

जब टिहरी में पहला रेडियो आया

7

टिहरी बाँध के विस्थापित

8

एक हठी सर्वोदयी की मौन विदाई

9

जीरो प्वाइन्ट पर टिहरी

10

अपनी धरती की सुगन्ध

11

आचार्य चिरंजी लाल असवाल

12

गद्य लेखन में टिहरी

13

पितरों की स्मृति में

14

श्रीदेव सुमन के लिये

15

सपने में टिहरी

16

मेरी टीरी

 

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