नई दिल्ली। बूंद-बूंद आंसू टपकाते नल भारत के लगभग हर शहर की समस्या हैं। ऐसे में सरकारी आश्वासनों से मन बहलाने के बजाय देश के कुछ इलाके अपने लिए पानी की व्यवस्था करने में जुट गए हैं। हरियाणा के मेवात जिले का करहेड़ा गांव इसकी जीती-जागती मिसाल है। जल संरक्षण प्रणाली को लेकर करहेड़ा को मिली छोटी सी सफलता कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
दरअसल करहेड़ा के ज्यादातर जल-स्रोतों में पानी सूख गया था और जो बचे हैं उनका पानी बेहद खारा है। करहेड़ा वासी उन सुनहरे दिनों को याद कर उदास होते हैं जब गांव में 52 पक्के कुंए थे और 24 घंटे पानी उनमें पानी उपलब्ध रहता था। लेकिन जल-स्रोतों में पानी का स्तर कम होता गया और बाढ़ के पानी ने जल-स्रोतों को खारा बना दिया।
इन मुश्किल हालात में एक गैर-सरकारी संगठन उनके मदद के लिए सामने आई। पानी की किल्लत जैसी गंभीर समस्या से निपटने के लिए ‘सहगल फाउंडेशन’ संस्था ने जल संसाधन के पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल कर पानी के खारेपन को दूर करने का बीड़ा उठाया। स्थानीय निवासियों की मदद से संस्था ने गांव के एक सरकारी विद्यालय की छत पर ‘रूफ वाटर हारवेस्टिंग’ (आरडब्ल्यूएच) यानी जल संरक्षण प्रणाली स्थापित की।
इस प्रयास के चलते बारिश का पानी जो पहले गंदी नालियों में बहकर तालाब और कुओं को प्रदूषित करता था वह स्कूल के लिए स्वच्छ पानी का स्रोत हो गया। जल संरक्षण प्रणाली का ही कमाल है कि स्कूल के पास साल भर के इस्तेमाल के लिए जरूरी 1,00,000 लीटर से भी ज्यादा पानी उपलब्ध रहता है।
इस परियोजना से जुड़े ‘इंस्टीट्यूट आफ रूरल रिसर्च एंड डेवेलपमेंट’ के जल प्रबंधन विशेषज्ञ ललित मोहन शर्मा कहते हैं कि, “परियोजना के दौरान कई किस्म की दिक्कतें आईं। गांववासी जलसंसाधन के पारंपरिक तरीकों के प्रति जागरूक नहीं थे। शुरुआत में जल संसाधन के लिए पैसा जुटाना उन्हें जोखिम भरा काम लगा। इतना ही नहीं, इस गांव की जरूरत के हिसाब से ही हमने संरक्षण प्रणालियों को ढाला।”
इस सफलता से प्रभावित होकर करहेड़ा के छह घरों ने ‘रूफ वाटर हारवेस्टिंग’ को अपनाया। प्रत्येक घर के लिए इसका खर्च 7000 रुपए से ज्यादा नहीं है। यही कारण है कि आसपास के गांव भी अब इस परियोजना से जुड़ रहे हैं।
दरअसल करहेड़ा के ज्यादातर जल-स्रोतों में पानी सूख गया था और जो बचे हैं उनका पानी बेहद खारा है। करहेड़ा वासी उन सुनहरे दिनों को याद कर उदास होते हैं जब गांव में 52 पक्के कुंए थे और 24 घंटे पानी उनमें पानी उपलब्ध रहता था। लेकिन जल-स्रोतों में पानी का स्तर कम होता गया और बाढ़ के पानी ने जल-स्रोतों को खारा बना दिया।
इन मुश्किल हालात में एक गैर-सरकारी संगठन उनके मदद के लिए सामने आई। पानी की किल्लत जैसी गंभीर समस्या से निपटने के लिए ‘सहगल फाउंडेशन’ संस्था ने जल संसाधन के पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल कर पानी के खारेपन को दूर करने का बीड़ा उठाया। स्थानीय निवासियों की मदद से संस्था ने गांव के एक सरकारी विद्यालय की छत पर ‘रूफ वाटर हारवेस्टिंग’ (आरडब्ल्यूएच) यानी जल संरक्षण प्रणाली स्थापित की।
इस प्रयास के चलते बारिश का पानी जो पहले गंदी नालियों में बहकर तालाब और कुओं को प्रदूषित करता था वह स्कूल के लिए स्वच्छ पानी का स्रोत हो गया। जल संरक्षण प्रणाली का ही कमाल है कि स्कूल के पास साल भर के इस्तेमाल के लिए जरूरी 1,00,000 लीटर से भी ज्यादा पानी उपलब्ध रहता है।
इस परियोजना से जुड़े ‘इंस्टीट्यूट आफ रूरल रिसर्च एंड डेवेलपमेंट’ के जल प्रबंधन विशेषज्ञ ललित मोहन शर्मा कहते हैं कि, “परियोजना के दौरान कई किस्म की दिक्कतें आईं। गांववासी जलसंसाधन के पारंपरिक तरीकों के प्रति जागरूक नहीं थे। शुरुआत में जल संसाधन के लिए पैसा जुटाना उन्हें जोखिम भरा काम लगा। इतना ही नहीं, इस गांव की जरूरत के हिसाब से ही हमने संरक्षण प्रणालियों को ढाला।”
इस सफलता से प्रभावित होकर करहेड़ा के छह घरों ने ‘रूफ वाटर हारवेस्टिंग’ को अपनाया। प्रत्येक घर के लिए इसका खर्च 7000 रुपए से ज्यादा नहीं है। यही कारण है कि आसपास के गांव भी अब इस परियोजना से जुड़ रहे हैं।
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