मॉनसून के शुरुआती दिनों को अरब सागर की मॉनसून प्रणाली ‘नानुक’ प्रभावित करती है। मूसलाधार वर्षा में अरब सागर से उठने वाले उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की भूमिका को हम भुला नहीं सकते। चक्रवात से उपजी ऊर्जा का हवा की आर्द्रता सोखने से संबंध है। बंगाल की खाड़ी में आर्द्रता संजोकर रखने की बड़ी क्षमता है। इस क्षमता का बंगाल की खाड़ी की सक्रियता और सक्रियता का भारत में वर्षा के आगमन से संबंध है। बंगाल की खाड़ी से चलकर दक्षिण-पश्चिम भारत तक मॉनसून के पहुंचने में गर्त यानी डिप्रेशन का संबंध है।
‘अल नीनो’ यानी एक छोटा लड़का और ‘ला नीनो’ यानी एक छोटी लड़की। स्पेनिश भाषा में उक्त दो शब्दों का मतलब यही होता है। इस छोटे लड़के की कारस्तानी के कारण भारत में बारिश सामान्य से कम होती है और इस छोटी लड़की के कारण सामान्य अथवा सामान्य से कुछ ज्यादा।भारत में वर्ष-2007 में सामान्य से 10 प्रतिशत और 2008 में सामान्य से पांच प्रतिशत अधिक वर्षा का कारण ‘ला नीनो’ ही थी। जाहिर है कि यह छोटी लड़की ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया जैसे देशों के अलावा भारतीय उपमहाद्वीप के लिए अक्सर समृद्धि का संदेश ही लेकर आती है।
लड़का-लड़की और बारिश
वास्तव में ‘अल नीनो’ और ‘ला नीनो’ कोई लड़का-लड़की न होकर, दो ऐसी प्रक्रिया हैं, जिनका बारिश और सूखे से बेहद खास रिश्ता है। इनका अस्तित्व मध्य और पूर्वी-मध्य विषुवतीय प्रशांत महासागर के तापमान की क्रमशः अधिकता व कमी पर निर्भर करता है। प्रशांत महासागर का सामान्य तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियसमाना गया है।
प्रशांत महासागर का ताप तय करने में दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी घाटों के तापमान की भूमिका अहम् है। दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी घाटों का पानी अधिक गर्म व ठंडा होने के साथ-साथ प्रशांत महासागर का पानी भी गर्म व ठंडा हो जाता है। प्रशांत महासागर का तापमान सामान्य से अधिक गर्म होने पर ‘अल नीनो’ और सामान्य से कम यानी ठंडा होने पर ‘ला नीनो’ की स्थिति बनती है। दोनों ही स्थितियां हवा की आर्द्रता और रुख को प्रभावित करती हैं। तापमान सामान्य रहने पर हवा के रुख व आद्रता के बचे रहने में अन्य पहलुओं की भूमिका बढ़ जाती है।
भारत पर असर
गौरतलब है कि ‘अल नीनो’ के कारण उत्पन्न ऊर्जा आर्द्र हवाओं का रुख भारतीय उपमहाद्वीप की बजाय पूर्वी व मध्य प्रशांत महासागर की ओर मोड़ देता है। तब दक्षिण अमेरिकी इलाके में वर्षा बढ़ जाती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसका उलट प्रभाव पड़ता है। यहां वर्षा घट जाती है। न सिर्फ वर्षा की मात्रा, बल्कि आगमन और आवृत्ति भी इससे प्रभावित होती है। वर्ष 2002, 2004 और 2009 में सामान्य से क्रमशः 19, 13 और 23 प्रतिशत कम वर्षा का प्रमुख कारण ‘अल नीनो’ ही था।
134 वर्ष (1880-2014) का इतिहास गवाह है कि जिन वर्षों में ‘अल नीनो’ विकसित होती प्रक्रिया के रूप में सामने आया, सामान्य से कम वर्षा हुई। संतुलित ‘अल नीनो’ की स्थिति में भारतीय उपमहाद्वीप को सूखा झेलना पड़ा। ‘अल नीनो’ के कारण वर्ष 1871 से अब तक भारत ने छह बार सूखा देखा। अब यह स्थिति हर तीन से सात साल के अंतराल पर बनती देखी जा रही है। इस वर्ष 2014 में वर्षा सामान्य से कम रहने का प्रमुख कारण ‘अल नीनो’ ही है।
चक्रवात, सक्रियता, गर्त और हम
ऐसा नहीं कि भारत में वर्षा के हर पहलू का निर्धारण पूरी तरह ‘अल नीनो’ और ‘ला नीनो’ के ही हाथ है। अन्य पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं। जेठ न तपे तो आषाढ़ में बारिश न हो। जेठ में यदि बारिश हो जाए, तो तय जानिए कि सावन में धूल उड़ेगी। लक्षण विज्ञान की ये भारतीय कहावतें हमारे अनुभव में हैं हीं।
भूगोलविदों के मुताबिक, मॉनसून के शुरुआती दिनों को अरब सागर की मॉनसून प्रणाली ‘नानुक’ प्रभावित करती है। मूसलाधार वर्षा में अरब सागर से उठने वाले उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की भूमिका को हम भुला नहीं सकते। चक्रवात से उपजी ऊर्जा का हवा की आर्द्रता सोखने से संबंध है। बंगाल की खाड़ी में आर्द्रता संजोकर रखने की बड़ी क्षमता है। इस क्षमता का बंगाल की खाड़ी की सक्रियता और सक्रियता का भारत में वर्षा के आगमन से संबंध है।
बंगाल की खाड़ी से चलकर दक्षिण-पश्चिम भारत तक मॉनसून के पहुंचने में गर्त यानी डिप्रेशन का संबंध है। जून से सितम्बर तक चार महीने की वर्षा के लिए कम-से-कम छह बात हवा में गर्त की स्थिति बननी चाहिए। इस बार इस गर्त का अभाव दिखा। बंगाल की खाड़ी की सक्रियता भी मात्र एक दिन देखी गई। दुनिया के कुछ हिस्सों में अनावृष्टि बढ़ी है और कुछ हिस्सों में अतिवृष्टि।
इन सभी पहलुओं का संबंध धरती के झुकाव में आए कोणीय बदलाव, वायुमंडल के बढ़ते तापमान, हमारे द्वारा वायुमंडल में उत्सर्जित प्रदूषण या यूं कहूं कि हमारी जीवनशैली और हमारे द्वारा आसपास जुटा ली गईं सुविधा व मशीनों से भी है, तो गलत नहीं।
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Post By: Shivendra