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इंजीनियर जनक दफ्तरी, जल-मल शोधन के विशेषज्ञ होने के साथ-साथ मुम्बई के मीठी नदी की प्रदूषण व कब्जा मुक्ति की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। पानी को समवर्ती सूची में डाले जाने की सिफारिश पर प्रतिक्रिया देते हुए जनक कहते है- “यदि पिछले सात दशक में हमारी केन्द्र और राज्य सरकारों ने अपना दायित्व ठीक से निभाया होता; लोगों पर अपनी गलत नीतियाँ न थोपी होती; सबके पानी का इन्तजाम करने का वादा न किया होता, तो इस सूखे में क्या महाराष्ट्र का हाल इतना बेहाल न होता? अरे भाई, मैं तो कहता हूँ कि पानी को केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की बजाय, जिला स्तर की तीसरी सरकार यानी पंचायतों और नगर-निगम/नगरपालिकाओं के दायित्व व अधिकार का विषय बना दिया जाये। हो सके, तो इससे भी नीचे उतरकर पानी को सबसे आखिरी संवैधानिक यानी ग्राम/मोहल्ला इकाई का विषय बनाया जाये। लोगों को अपनी जरूरत के स्थानीय पानी की जिम्मेदारी खुद उठाने दो। शेष की भूमिका, विवाद की स्थिति में दखल देने तथा माँगें जाने पर आर्थिक व अन्य सहयोग तक ही सीमित हो। यही सर्वश्रेष्ठ होगा। स्थायी समिति की तो सिफारिश उल्टी है। नदी जोड़ एक विध्वंसकारी परियोजना है। समिति की सिफारिश, पानी की कीमत निर्धारण से लेकर जलापूर्ति में पीपीपी मॉडल लागू करने के एजेंडों को लागू करने के रास्ते का केन्द्रीकरण करने जैसा है; सिंगल विंडो क्लीयरेन्स। असल में अब केन्द्र सरकार के जरिए भारत देश के पानी पर कम्पनियाँ कब्जा करना चाहती हैं। इसका विरोध होना चाहिए।’’
सैंड्रप के प्रमुख अध्ययनकर्ता हिमांशु ठक्कर और यमुना जिये अभियान के मनोज मिश्र की राय भी पानी को समवर्ती सूची में लाने के पूरी तरह खिलाफ हैं। बुन्देलखण्ड रिसोर्स सेंटर के निदेशक डॉ. भारतेन्द्रु प्रकाश ने इसे तानाशाही को बल देने वाली सिफारिश करार दिया है। भारतेन्दु जी कहते हैं: “केन्द्रीयकरण से तानाशाही व्यवस्था को बल मिलता है। पानी समाज के लिये है। व्यवस्था भी समाज के हाथों में होनी चाहिए। बस, इतना जरूरी है कि समाज की तैयारी व संस्करण व्यवस्था के अनुरूप हो।’’
पर्यावरण विकास अध्ययन केन्द्र, जयपुर के प्रमुख, प्रोफेसर मनोहर सिंह राठौर सिफारिश को ‘आंशिक नफा : आंशिक नुकसान’ वाला बताया है । प्रो. राठौर मानते हैं कि यदि अन्तरराज्यीय जल प्रवाहों को समवर्ती सूची में लाने तक सीमित हो, तब तो निश्चित तौर पर लाभ होगा। अन्तरराज्यीय जल बँटवारा विवाद लम्बे नहीं खींचेगे। विवाद निपटाने में ट्रिब्युनल के स्थान पर केन्द्र सरकार की भूमिका अहम होने से लाभ मिलेगा। किन्तु यदि पानी को समवर्ती सूची में लाने का मतलब, अन्य सभी सतही व भूजल संरचनाओं का कारण है, तो इससे नुकसान होगा।
‘तीसरी सरकार’ के संयोजक डॉ. चन्द्रशेखर प्राण के अनुसार 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने क्रमशः पंचायत और नगरपालिका को ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ का दर्जा दिया है। ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ के दायित्वों में जल प्रबन्धन भी एक विषय है। इस नाते पानी को समवर्ती सूची में इसी शर्त के साथ डाला जा सकता है कि राज्य और केन्द्र के अधिकार दोयम दर्जे के होंगे। सबसे पहला और प्राथमिक अधिकार तो ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ के हाथ में ही रहेंगे।
पाठकों को शायद ताज्जुब हो कि नदी जोड़ परियोजना का हमेशा विरोध तथा विकेन्द्रित व सामुदायिक जल प्रबन्धन की हमेशा वकालत करने वाले जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने भी पानी को समवर्ती सूची में लाने का समर्थन किया है। देश के कई राज्यों में चल रहे ‘जल सत्याग्रह’ में अग्रणी भूमिका निभा रही लोक संघर्ष मोर्चा (महाराष्ट्र) की प्रमुख प्रतिभा शिंदे ने तो अपनी नई दिल्ली प्रेस क्लब वार्ता में स्वयं इसकी माँग की; तर्क दिया कि ऐसा करने से जंगल और जंगलवासियों का भला हुआ है; पानी और पानी के लाभार्थी समुदाय का भी होगा।
राजीव गाँधी वाटरशेड मिशन के पूर्व सलाहकार कृष्ण गोपाल व्यास ने सवाल किया कि पानी को समवर्ती सूची में लाने की जरूरत ही कहाँ है? पानी की वर्तमान संवैधानिक स्थिति ही ठीक है। समस्याओं के समाधान के लिये केन्द्र सरकार अभी भी मार्गदर्शी निर्देश देने के लिये स्वतंत्र है ही। श्री व्यास इससे इन्कार नहीं करते कि पानी के समवर्ती सूची में आने से जलाधिकार के संघर्ष और पानी के व्यावसायीकरण की सम्भावनाएँ घटने की बजाय बढ़ेंगी। केन्द्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण के पूर्व विशेषज्ञ सदस्य तथा लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून के प्रमुख रवि चोपड़ा की राय भी श्री व्यास की राय से भिन्न नहीं है।
केन्द्र व राज्यों की राय
स्पष्ट है कि पानी के संकट से उबरने के लिये जरूरत समवर्ती सूची से ज्यादा, बेहतर आपसी समन्वय, संकल्प और नीयत का है। इस सिफारिश को लेकर अकाली दल व भाजपा के साझे गठबन्धन वाली पंजाब की सरकार ने विरोध जताया है। उल्लेखनीय है कि पंजाब सरकार ने नदी जोड़ परियोजना का भी विरोध किया था। दूसरी तरफ पार्टी का पक्ष ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती के साथ-साथ भाजपा शासित झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा की सरकारों ने सहमति जताई है। प्रश्न यह है कि समवर्ती सूची में आने के बाद यदि पार्टी का पक्ष करने वाली नीयत केन्द्र सरकार की हुई, तो जिन राज्यों में केन्द्र सरकार के दल वाली सरकारें नहीं हुई, उन राज्यों के साथ न्याय हो पाएगा; इसकी सम्भावना इस सिफारिश में कहाँ हैं? जब कभी भी केन्द्र में सत्तारुढ़ दल, विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने व राज्यपालों को हटाने की नीयत रखेगी, तो क्या समवर्ती सूची में आकर पानी पर हकदारी में समानता प्रभावित हुए बगैर बच पाएगी?
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बहुमत विशेषज्ञों की राय को सही मानें, तो स्थायी समिति की सिफारिश का असल लक्ष्य अन्तरराज्यीय जल प्रवाहों का विवाद निपटारा न होकर, भारत के पानी पर केन्द्र के जरिए कारपोरेट का कब्जा है। सिफारिश का एक संकेत यह भी है कि जल संसाधन की स्थायी समिति, भारत की जल समस्या के केन्द्रीकृत समाधान की पक्षधर है। क्या आप हैं? क्या आप मानते हैं कि केन्द्र में बैठी सरकार, आपके पानी और उसके इन्तजाम के तौर-तरीकों को आपसे बेहतर समझती है? आप किसके पक्षधर हैं- पानी को समवर्ती सूची में लाने के अथवा ग्रामसभा/मोहल्ला सभा के अधिकार व दायित्व में लाने के? आप तय करें। स्थायी समिति को भी लिखें और हमें भी बताएँ।
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एक बहस-समवर्ती सूची में पानी
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