धुवांधार


एक, दो, तीन। धुवांधार अभी-अभी मैंने तीसरी बार देख लिया। धुवांधार नाम सुन्दर है। इस नाम में ही सारा दृश्य समा जाता है। किन्तु अबकी बार इस प्रपात को देखते-देखते मन में आया कि इसको धारधुवां क्यों न कहूं? धार गिरती है, फव्वारे उड़ते हैं और तुरन्त उसके तुषार बनकर कुहरे के बादल हवा में दौड़ते हैं। अतः धारधुवां नाम ही सार्थक लगता है। मगर यह नाम चल नहीं सकता!

जबलपुर से गोल-गोल पत्थर तथा चमकीले तालाब देखते-देखते हम नर्मदा के किनारे आ पहुंचते हैं। रास्ते का दृश्य कहता है कि यह काव्यभूमि है। चारों ओर छोटे-बड़े पेड़ खेल खेलने के लिए खड़े हैं। बगल में एक बड़ा टीला टूट कर गिर पड़ा है। किन्तु उसके सिर पर खड़े पेड़ अपनी आधी जड़े अलग पड़ जाने पर भी शोक मग्न या चिंतातुर नहीं मालूम होते। ऐसे पेड़ों से जीवन-दीक्षा लेकर ही आगे बढ़ा जा सकता है।

टीला टूटता तो है, किन्तु टूटा हुआ हिस्सा आसानी से जमींदोज नहीं होता। इस टीले ने एक-दो मीनार और एक बड़ा शिखर बना लिया है, जो कहते हैं कि यदि विनाश में से भी नयी सृष्टि की रचना न कर पायें तो हम कल्प-कवि कैसे? टीले के ऊपर से नीचे के पत्थरों और पानी का दृश्य दृढ़ता और तरलता के विचार एक ही साथ मन में पैदा कर रहा था। पुल पार करके हम आगे आये और योगिनियों की टेकरी के नीचे का कई बार देखा हुआ सामान्य दृश्य देखा। यह दृश्य इतना गरीब है कि उसके प्रति गुस्सा नहीं आता। यहां गरीब कारीगर पत्थरों से छोटी-बड़ी चीजें बनाकर बेचने के लिए बैठते हैं। सफेद, काले, लाल, पीले, आसमानी और रंग-बिरंगे संगमरमर के शिवलिंगों की बगल में संग-जराहत के डिब्बे, शिवालय, हाथी और अन्य छोटे-बड़े खिलौने मानो स्वयंवर रचकर खड़े रहते हैं। जिसकी नजर में जो जंच जाता है वह उसे उठाकर ले जाता है। आज ये खिलौने एक आसन पर बैठे हुए हैं। कल न मालूम कौन सा खिलौना कहां चला जायेगा? कुछ तो हिन्दुस्तान के बाहर भी जायेंगे। और वहां बरसों तक धुवांधार का धारावाहिक संगीत याद करके चुपके-चुपके सुनायेंगे।

यहां से धुवांधार तक पैदल जाने की तपस्या मैंने दो बार की थी। पहली यात्रा रात के समय की थी। दूसरी सुबह स्नान के समय की थी। हरेक का काव्य अलग ही था। आज तीसरा प्रहर पसंद किया था। इस समय अधिक तपस्या नहीं करनी पड़ी। व्यौहार राजेन्द्र सिंह जी ने अपना तैल-वाहन (मोटर) दिया था, अतः हम लगभग धुवांधार तक बिना कष्ट के पहुंच गये। संग-जराहत के खेत के पास उतरकर, वहां की तीन दुकानें पार करके, पत्थरों के बीच से होकर हम धुवांधार पहुंचे। पत्थर ज्यों-ज्यों अड़चनें पैदा करते थे, त्यों-त्यों चलने का मजा बढ़ता जाता था। ऐसा करते–करते हम धुवांधार के पास पहुंचे।

प्रपात यानी जीवन का अधःपात। मगर यहां वैसा मालूम नहीं होता। पहली बार गये थे दिसंबर में और अंधेरे में। आकाश के बादल चांद के खिलाफ षड़यंत्र रच कर बैठे थे। अतः चांदनी रात होते हुए भी वहां अमावस्या की-सी भीषणता थी। अमावस्या की रात में आकाश के सितारे इस भीषणता को हंसकर उड़ा देते हैं। मगर बादलों के सामने इसकी भी आशा न रही। परिणामस्वरूप उस रात को स्वयं धुवांधार को अपनी भव्यता से हमें प्रसन्न करना पड़ा। रात की प्रार्थना करके हमने वह आनंद हजम किया और वापस लौटे।

दूसरी बार गये थे त्रिपुरी कांग्रेस के बाद करीब नौ-दस बजे की बढ़ती हुई धूप के स्वागत का स्वीकार करते हुए। धुवांधार के संपूर्ण दर्शन हम उसी समय कर पाये थे। मार्च का महीना था। अतः पानी में गर्मी की ऋतु का अकाल न था। पहाड़ी की कुछ टेढ़ी-मेंढ़ी खुरदरी सीढ़ियां उतरकर हमने नीचे से धुवांधार को गिरते देखा था। पानी की वह गति और फव्वारे की वह चंचलता चित्त को आश्चर्यकारक ढंग से स्थिर करती थी। पानी की ओर अनिमेष देखते ही रहें तो ऐसा अनुभव होता है मानो नवनवोन्मेषशालिनी धाराएं वेग की समाधि लगाकर खड़ी हैं। इसी समय मैं देख सका कि वहां के काई वाले पत्थर ऊपर से चाहे जैसे दीखते हों, लेकिन अंदर से तो वे प्रेम का रंग खिलानेवाले (लाल रंग के) ही हैं। पानी के जोर के कारण पत्थर का एक टुकड़ा उड़ गया था और अंदर का गुलाबी लाल रंग साफ दिखाई देने लगा था, मानो उसे घाव पड़ गया हो।

धुवांधार देखने का अच्छे से अच्छा समय है दिपावली का। बारिश न होने से रास्ते में कही कीचड़ नहीं था। वर्षा ऋतु में जब आते हैं तब सारा प्रदेश जल से भरा होने के कारण प्रपात के लिए गुंजाइश ही नहीं होती। जहां हृदय को हिला देने वाला प्रपात है, वहीं वर्षा ऋतु में सिर में चक्कर लाने वाले भंवर दिखाई देते होंगे। इन भवरों का रुद्र स्वरूप देखने के लिए यदि यहां तक आया जा सकता हो, तो मैं यहां आये बिना नहीं रहूंगा। भंवर क्रांति का प्रतीक है। उसका आकर्षण कुछ अनोखा ही होता है। कभी-कभी मौत को न्योता देनेवाला भी!

दीपावली के समय जलराशि सबसे अधिक पुष्ट, प्रपात की शोभा सबसे अधिक समृद्ध और मीठी धूप के सेवन के बाद तुषार के बादलों की चुटकियां सबसे अधिक आह्लादक होती है। आज का दृश्य वैसा ही था, जैसी हमने आशा रखी थी। तुषार के बादल दूर से ही नजर आते थे। रसोड़े का धुआं देखकर जिस प्रकार अतिथि को आनंद होता है, उसी प्रकार इस धुएं के बादल को देखकर ही मैं कल्पना कर सका कि आज किस प्रकार का आतिथ्य मिलने वाला है। धारधुवां जैसा प्रपात जब देखने के लिए जाते हैं, तब वहां बनाया हुआ पटिये का कामचलाऊं छोटा पुल भी कलापूर्ण और आतिथ्यशील मालूम होने लगता है। हम परिचित किनारे पर जाकर बैठे ही थे कि स्नेहार्द्र पवन ने तुषार की एक फुहार हमारी ओर भेजकर कहा, ‘स्वागतम्’, ‘सुस्वागतम्’! एक क्षण के अंदर हमारा सारा अध्व-खेद उतर गया। हम ताजे हो गये और ताजी आंखों से धुवांधार को देखने लगे।

धुवांधार यानी पत्थरों के विस्तार में बनी हुई अर्धचंद्राकार घाटी। उसमें से जब पानी का जत्था नीचे कूदता है तब बीच में जो कांच के जैसा हरा रंग दीख पड़ता है, वह जहर के समान डर पैदा करता है। उसकी बाईं ओर यानी हमारी दाईं ओर की शिला हाथी के सिर की तरह आगे निकली हुई है। उस पर से जब पानी नीचे गिरता है तब मालूम होता है मानो असंख्य हीरों के हार एक-एक सीढ़ी पर से कूदते-कूदते एक-दूसरे के साथ होड़ लगा रहे हैं। ज्यों-ज्यों वे कूदते जाते हैं त्यों-त्यों हंसते जाते हैं, और पानी को पींज-पींजकर उसमें से सफेद रंग तैयार करते जाते हैं। बीच का मुख्य प्रपात घाटी में गिरते ही इतने जोरों से ऊपर उछलता है कि आतिशबाजी के बाणों को भी उससे ईर्ष्या हो सकती है। एक फव्वारा ऊपर उड़कर जरा शिथिल पड़ता है कि इतने में दूसरे फव्वारे नये जोश से उसके पीछे-पीछे आकर और धक्का देकर उसे तोड़ डालते हैं और फिर उसके जलकरण पृथ्वी के आकर्षण को भूलकर धुएं के रूप में व्योम-विहार शुरू कर देते हैं। ये तुषार जरा ऊपर आते हैं कि पवन के झोंके उन्हें उड़ाते-उड़ाते चारों ओर फैला देते हैं। धुएं की ये तरंगे जब हवा में हलके-गाढ़े रूप में दौड़ती है, तब वायल के अत्यन्त सुन्दर बेलबूटे दिखाई देते हैं।

और नीचे! नीचे के पानी का मस्ती का वर्णन तो हो ही नहीं सकता। पानी मानो अद्वैतानंद में फिसल पड़ा। जितना नीचे गिरा, उतना ही ऊपर उड़ा। उसने हरे रंग में से सफेद फेन पैदा किया और जी में आया वैसा विहार किया। इस अपूर्व आनंद को याद करके नीचे का पानी बार-बार उभर आता था। धोबीघाट पर के साबुन के पानी उपमा यदि अरसिक न होती तो नीचे के पानी के उभार की तुलना मैं उसी से करता। मगर धोबी के साबुन का पानी गंदा होता है उसमें गति और मस्ती नहीं होती; बेपरवाही और तांडव भी नहीं होता है। और न हास्य फीका पड़ते ही चेहरे पर फिर से निर्मल भाव धारण करने की कला उसके पास होती है। यहां का पानी देखकर धोबीघाट का स्मरण ही क्यों हुआ? उसमें किसी प्रकार का औचित्य ही नहीं था!

मनुष्य यदि समाधि की मस्ती चाहता हो, तो उसे यहां आना चाहिए। उसे किसी भी कारण से निराश नहीं होना पड़ेगा।

इस ओर के (दायें) टीले की दो सीढ़ियां अबकी बार मैं फिर उतरा। इस बार यहां उपनिषद् सूझा। ऊपर सूरज तप रहा था और मैं गा रहा था- ‘पूषन्नेकर्षे! यम! सूर्य! प्राजापत्य! व्यूह रश्मीन्; समूह तेजो।’ जब पाठ का अंत करीब आया और मैं बोला ‘ऊँ कतो स्मर; कृतं स्मर।’ तब यकायक तीन-चार साल का मेरा सारा जीवन एक साथ इस जीवन-धारा के सामने खड़ा हुआ और मुझे लगा मानों मैं अपना जीवन इस मस्त जीवन की कसौटी पर कस रहा हूं और यह देखकर कि वह पूरी तरह खरा उतर नहीं रहा है, परेशान हो रहा हूं। दूसरी ही क्षण इन तीन वर्षों की स्मृति के भी तुषार बनकर आकाश में उड़ गये और मैं प्रपात के साथ एकरूप हो गया। सममुच यह प्रपात पूर्ण है। और मैं भी इस पूर्ण का ही एक अंश हूं, अतः तत्त्वतः पूर्ण हूं। हम दोनों वि-सदृश नहीं हैं; एक ही परम तत्त्व की छोटी-बड़ी विभूतियां हैं। यह भान जागृत होते ही चित्त शांत हुआ और मैं ऊपर आया।

चि. सरोजनी भी यह सारा दृश्य उत्कट नयनों से अघाकर पी रही थी। इस सारे आनंद को किस तरह समझें, किस तरह हजम करें और किस तरह व्यक्त करें, इस बात की मीठी परेशानी उसकी आंखों में दिखाई दे रही थी।

यहां से तुरंत लौटकर चौंसठ योगिनियों के दर्शन करने थे; नर्मदा-प्रवाह- के रक्षक सफेद, पीले, नीले पहाड़ देखने थे। अतः बहू जिस प्रकार पीहर से ससुराल जाते समय दोनों ओर के सुखःदुख के मिश्रित भाव अनुभव करती हुई जाती है, उसी प्रकार धुवांधार को हार्दिक प्रणाम करके हम वापस लौटे।

हिन्दुस्तान में इस प्रकार के अनेक प्रपात अखंड रूप से बहते रहते हैं और मनुष्य को भव्यता के तथा उन्मत अवस्था के सबक सिखाते रहते हैं। हजारों साल हुए-लाखों नहीं हुए इसका विश्वास नहीं है- धुवांधार इसी तरह सतत गिरता रहा है। श्रीरामचंद्र जी ने यहां आये होंगे। विश्वामित्र और वशिष्ठ यहां नहाये होंगे। चंद्रगुप्त और समुद्रगुप्त के सैनिकों ने यहां आकर जल-विहार किया होगा। श्री शंकराचार्य ने यहां बैठकर अपने स्रोतों का सर्जन किया होगा। कलचुरि तथा वाकाटक वंश के वीरों ने इसी पानी में अपने घावों को धोया होगा और अल्हणा देवी ने यहीं बैठकर चौंसठ योगिनियों का स्मारक बनाने का संकल्प किया होगा। और भविष्यकाल में धुवांधार के किनारे क्या-क्या होगा, कौन बता सकता है? खुद धुवांधार को ही यह मालूम नहीं है। वह तो सतत गिरता रहता है और तुषार के रूप में उड़ता रहता है।

नवंबर, 1939
 
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