धू-धू जलते पंजाब के सगुण और निर्गुण

पंजाब के प्रत्येक चुनाव में बिजली, पानी, बीज, कीटनाशकों पर सब्सिडी की मांग बढ़ती जाती है। पिछले चुनाव में तो पंजाब पर सबसे अधिक राज करने वाले किसान परिवार के मुख्यमंत्री की पार्टी ने मुफ्त आटे तक की घोषणा कर डाली थी। सोचिए तो जरा कृषि के मॉडल राज्य में किसानों के लिए ही मुफ्त आटे की घोषणा!

पंजाब की धरती को कोयला बनाने के लिए अब पराए हाथों की आवश्यकता नहीं। यह काम अब निरंतर उस धरती के जाये हम लोग ही कर रहे हैं। किसान को सदियों से अपने यहां धरतीपुत्र माना जाता रहा है। लेकिन मान्यताएं तो बाजारी दौर में शायद शो-रूम में लगे जालों सी दिखती हैं, इसलिए जल्दी ही हटा दी जाती हैं। पंजाब का किसान भी अब इन फोकट विचारों से मुक्त हुआ है। वह वर्ष में दो बार अपनी उसी धरती को आग के हवाले कर देता है, जिससे वह साल भर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए फसल लेता है। अब पंजाब की पूरी कृषि योग्य भूमि कई-कई दिन धू-धू कर जलती रहती है। डरावने आंकड़ो में तो काफी तत्त्व जलते हैं लेकिन सच में तो धरती की उपजाऊ जीवनदायी शक्ति ही जलती है। पंजाब का पानी तो बहुत वर्षों से सुलगते कोयलों पर ही है, अब इंतजार तो उसका छन्न से उड़ जाने भर का ही है।

साल में दो बार अपने खेतों को आग के हवाले करना यह बताता है कि आने वाले वर्षों में हम पंजाब की पूरी धरती को ही आग के हवाले कर देंगे। ‘हरित क्रांति’ की शुरुआती पदचाप के दिनों सिर्फ धान का ही भूसा जलाने की रीत डाली गई। लेकिन बाद में गेहूं की पराली को (भूसा) भी आग के हवाले किया जाने लगा। कारण बताया जाने लगा कि भूसे की ज्यादा मात्रा के कारण अनाज संभालने में दिक्कत आती है। फिर अगली फसल के लिए धरती को तैयार करने में भी यह खड़ा भूसा परेशानी डालता है।

थोड़ा पीछे लौटें। भूसे से पहले हमारे यहां खेत में खड़े डंठल भी जल चुके होते हैं। पिछले कुछ वर्षों से पंजाब में फसल काटने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर हारवेस्टर मशीनें आ गई हैं। मशीनों से फसल की बाली, दाने कटते हैं, डंठल वहीं छूट जाते हैं। इतनी महंगी मशीनें अनाज काटने के लिए बनी हैं, कचरा जमा करने को नहीं।

फसल जब हाथ से कटती है तो दरांती नीचे से डंठल काटती है। जड़ों का गुच्छा बाद में हल चलाकर पलट दिया जाता रहा है इस तरह खेत को वापस प्राकृतिक खाद, तत्त्व मिलते रहते थे। अब हारवेस्टर ऊपर-ऊपर से दाना, बाली नोंच लेते हैं, खड़े रह जाते हैं डंठल। हरित क्रांति से पहले पंजाब में फसल से बचा यह भाग सबसे कीमती माना जाता था। पशुधन के काम आता था। चारे में, सानी में मिलाया जाता था।

अब एक तो पशु ही वहां कितने बचे हैं। टैक्ट्रर आ गए हैं। फिर जो हैं वो भी फैक्टरी में बने पशु आहार पर पलते हैं और इंजैक्शन से दूध देते हैं। ऐसे में खेत में डंठल जलते हैं, खलियान में भूसे के ढेर। पूरा पंजाब धू-धू करके जलता है। बेशक चिंतक कुछ भी कहें लेकिन पंजाब में कांग्रेसी तथा अकालियों की टॉम एंड जेरी टाइप सरकारें सिवाय छोटे-मोटे मैमोरेंडमों के इस ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देना चाहतीं। सिर्फ लालच का पर्याय बन चुकी किसानों की नई पौध तथा किसान यूनियनें भी अब यही दलील देती हैं कि पराली जलाने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा है। उनका यह भी कहना है कि इतने अधिक भूसे को ठिकाने लगाना या खेतों में खपाना संभव नहीं, खास तौर पर गेहूं के झाड़ को बहुत दिनों खेतों में बिखराए रखना संभव नहीं क्योंकि यह जल्दी सड़ता नहीं।

साल में दो बार अपने खेतों को आग के हवाले करना यह बताता है कि आने वाले वर्षों में हम पंजाब की पूरी धरती को ही आग के हवाले कर देंगे। ‘हरित क्रांति’ की शुरुआती पदचाप के दिनों में सिर्फ धान का ही भूसा जलाने की रीत डाली गई। लेकिन बाद में गेहूं की पराली (भूसा) को भी आग के हवाले किया जाने लगा।

मौसमों के साथ तालमेल बिठाकर अगली फसल लेने का जो संयम हमारे पुरखों में था, वह अब नहीं बचा है। इस संयम की कमी का शिकार राज और समाज दोनों हुए हैं। जीवन की प्राथमिकताएं बदल गई हैं यहां। अब खेती बाड़ी से जुड़े लोगों को घास-फूस, खेतों की मेंढ पर खड़े पेड़ों, धरती के भीतर मित्र जीवों में, किसी में भी जीवन छलकता दिखाई नहीं देता। सच तो यही है कि अब हम इनको समझते ही कुछ नहीं।

पंजाब की तरह ही आज विश्व के वे देश भी इसी आंच से तपते नजर आ रहे हैं जिनसे अक्ल उधार लेने के मुगालते में हम हमेशा रहते हैं। पिछले दिनों आस्ट्रेलिया में भी सूखे की खबरें आईं, उनका भी सबसे बड़ा दरिया सूख गया। धरती की जान शायद संसार के प्रत्येक अंग से छीजती जा रही है। विकसित तकनीकों से बेशक हम चतुर-सुजान हो रहे हैं लेकिन प्रकृति निरंतर उदास होती जा रही है। प्रकृति की उदासी और हमारे लालच को इसी पैमाने से नापा जा सकता है कि संसार के अधिकतर देश अब अपने-अपने प्राकृतिक संसाधनों को गिनने में जुटे हैं।

ऐसी कई बातें होती हैं जिनके लिए वैज्ञानिकों, विश्वविद्यालयों तथा शोध केन्द्रों की आवश्यकता नहीं होती। अगर संवेदनशीलता बची रहे तो बहुत कुछ प्रत्यक्ष, प्रमाण सहित दिख जाता है। पंजाब के पर्यावरण के संबंध में भी घटनाक्रम जितनी तेजी से बदला है और बदल रहा है उसके लिए न तो डरावने आंकड़ों की जरूरत है न वैज्ञानिक गवाहियों की ही। साधारण जन भी खतरे की इन बजती घंटियों को सहज ही सुन सकता है। आज पंजाब में जहां भी नजर दौड़ाओ प्रमाण और प्रत्यक्ष साफ दिखाई दे जाएंगे। खेत सुलग रहे हैं, खेतों की मेढ़ पर खड़े पेड़ों की जड़ें झुलसाते पेस्टीसाइडों के कारण सड़ती जा रही हैं। पेड़ों की अनेक प्रजातियों में फूल-फलियां आना बंद हो चुके हैं। प्रत्येक छः महीने बाद जलती पराली पंजाब का सगुण और निर्गुण दोनों जला रही है।

सब ओर मची भगदड़ के बीच पंजाब की जल्दी कुछ ज्यादा ही दिख रही है। धरती का पूरा सत निचोड़ने की जल्दी, सत निचोड़कर अपना गांव, कस्बा, शहर छोड़ विदेश भागने की जल्दी। इसी भागमभाग के कारण आज पंजाब के लगभग तीस गांव ऐसे हैं जहां सिर्फ वृद्ध ही बचे हैं। यहां के सभी नौजवान डॉलरों की चाह में विदेश पहुंच चुके हैं। जो छोटे मंझले कृषक परिवार खेती बाड़ी से बंधे भी हैं तो यह खेती उनके जी का जंजाल बन चुकी है। इन फसल उगाने वाले परिवारों से रोटी निरंतर दूर होती जा रही है। तिस पर कृषि व्यापारी, कर्जदाता, सरकारें सब उनकी झोली छीजते रहते हैं। इसलिए पंजाब के प्रत्येक चुनाव में बिजली, पानी, बीज, कीटनाशकों पर सब्सिडी की मांग बढ़ती जाती है। पिछले चुनाव में तो पंजाब पर सबसे अधिक राज करने वाले किसान परिवार के मुख्यमंत्री की पार्टी में मुफ्त आटे तक की घोषणा कर डाली थी। सोचिए तो जरा कृषि के मॉडल राज्य में किसानों के लिए ही मुफ्त आटे की घोषणा!

पंजाब का साधारण किसान आज सरकारी फाइल से लेकर बिजली के जीरो वाट के बल्व तक सिर्फ ठगा ही ठगा है। यह किसान अब पगड़ी संभालने के बजाय दिन-ब-दिन गर्दन पर बढ़ते बोझ को संभालने के अभ्यास में ही जुटा है। उन्हें मालूम है कि इसी बोझ को संभालने के अभ्यास में उन्हीं के भाइयों की 2500 गर्दनें टूट चुकी हैं। लेकिन फिर भी वह ‘हरित क्रांति’ की इस काली सुरंग से निकलने की बजाय और अधिक उलझता ही जा रहा है। इसी बोझ के मारे, दूसरों से आगे निकलने की होड़ में धरती को निरंतर दुहने की जल्दी में, पराली फूंक-फूंक कर कोयला बनाता जा रहा है।

कुछ वर्ष पहले तक हर तरह का भूसा पशुओं का पौष्टिक चारा था, लेकिन ट्रैक्टर, हारवेस्टर आने के बाद पहले से ऊगी उन फसलों की जड़े भी उखड़ने लगीं जो धरती में जमीं रहकर भीतर ही भीतर धरती को मजबूती प्रदान करती रहती थीं। पशुओं को अब प्राकृतिक चारा खिलाने की जरूरत नहीं समझी जाती। पंजाब की अधिकतर चक्कियों पर पशुओं के लिए पीसे जाने वाले चारे में बूचड़खानों से आया हड्डियों का चूरा तथा पांवटा साहिब की तरफ से आने वाला नर्म पत्थर पीस कर मिलाया जाता है। पशुओं से दूध दुहने की सरल प्रणाली तो टीकाकरण को ही मान लिया गया है।

धरती को आग के हवाले करने से अनेक प्रश्न उभरते हैं। पहला प्रश्न तो धरती पुत्रों से ही पूछा जाना चाहिए कि जो धरती उनके परिवार की रोजी रोटी है, वह उसे आग क्यों लगाता है? दूसरे कामों में लोग अपने-अपने कामों की पूजा-अरदास करते हैं। तो फिर क्या फल देने वाले पेड़ों को, बाछड़ा, बछड़ी देने वाली गायों को भी यूं ही आग के हवाले कर देना चाहिए?

साढ़े पांच लाख ट्रैक्टरों वाले प्रदेश में टीका लगाकर उगाई गई पांच फुट की मूली को पुरस्कार देने वाले कृषि विश्वविद्यालय के मॉडर्न खेती के चंद बुद्धिजीवियों का ऐसा मानना है कि अब पंजाब के 90 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं तो अब बैलों की, सांडों की क्या आवश्यकता है। इन सबको बूचड़खानों में भेज देना चाहिए। यह बेहद दुख की बात है कि अतिरिक्त भूसा जलाने की बजाय इसे उन राज्यों में भेज दिया जा सकता है जहां आज भी छोटे किसान पशु आधारित कृषि पर अपना जीवन यापन कर रहें हैं। लेकिन केन्द्र की नीतियों के प्रताप और राज्यों की अपनी-अपनी तीखी ऊंची नाक के कारण कोई भी राज्य अपने पड़ोसी के लिए सहाई होना नहीं चाहता।

पराली की आड़ में धरती फूंकने के इस व्यवहार के प्रति सरकार, प्रशासन की गंभीरता कहीं नहीं दिखती, छोटे-मोटे मैमोरेंडमों की भी सरकारों के मित्र पत्रकारों के कारण कुछ बड़ी खबरें बन जाती हैं। लेकिन कष्ट निवारण की कोशिशें छोटी ही रहती हैं। कहीं-कहीं कोई प्रशासनिक अधिकारी अपने निजी संकल्प के कारण अपने संस्कारों पर बिना पैर धरे कुछ प्रयास अवश्य करते हैं लेकिन अधिकतर नेता बटे नेतागिरी ही जिंदा रहती है। राजनेता भी अपने चुनावी घोषणा-पत्रों की स्लेट अपने वोट बैंक के कारण अपने ही थूक से पोंछ डालते हैं क्योंकि उनके पास देश के सभी दुखों की एक ही दवा है। वोट बैंक के कारण वे मरने वालों को भी नाराज नहीं करना चाहते। इसलिए प्रशासन भी ‘जाने भी दो यारो’ जैसा सबक याद कर लेता है

धरती को आग के हवाले करने से अनेक प्रश्न उभरते हैं। पहला प्रश्न तो धरतीपुत्रों से ही पूछा जाना चाहिए कि जो धरती उनके परिवार की रोजी-रोटी है, वह उसे आग क्यों लगाता है? दूसरे कामों में लोग अपने-अपने कामों की पूजा-अरदास करते हैं। तो फिर क्या फल देने वाले पेड़ों को, बछड़ा, बछड़ी देने वाली गायों को भी यूं ही आग के हवाले कर देना चाहिए? क्या सचमुच यह पंजाब के किसान के ही संस्कार हैं? सरबत का भला चाहने वाला यही किसान आज कितनी सहजता से रात को भूसे के ढेर में माचिस की तीली फेंक कर आ जाता है। अब तो इन फेंकी हुई तीलियों के कारण पड़ौसी की फसल, घर, पशु तक जलने की खबरें अक्सर आती रहती हैं। फसल कटाई के बाद पराली जलाने के बाद पंजाब का आकाश धुंए से काला हो जाता है।

अब हरे-इंकलाब, हरित क्रांति का सार तत्व यह है कि पंच आब, पांच नदियों के नाम पर बने पंजाब में अब ढाई नदियां तो जहरीली हो चुकी हैं। तीन इंच मिट्टी वर्ष में दो बार जलकर स्वाहा, राख हो रही है। पेस्टीसाइडों के जहर के कारण देग और तेग की शान का यह क्षेत्र अब देश में जहर पका रहा है। लगभग 6 लाख सबमर्सिबलों, सिंचाई पंपों की शर-शय्या पर टिकी पंजाब की धरती निस्साह-उदास सी दिखने लगी है। शून्य का उजाड़ और कुछ नहीं, मिट्टी, पानी, पशु, हरियाली और शुद्ध हवा का गंवाना ही होता है। शून्य का उजाड़ एल.सी.डी. नोकिया या शराब की बोतलें गंवाना नहीं होता।

कुछ चिंताशील लोगों को, जो पंजाब की मिट्टी, पानी, हवा के लिए अदालतों के दरवाजे खटखटाते रहते हैं, उन्हें सोचना होगा कि प्रकृति के उपकार गैरकानूनी हो चुके कानूनों से नहीं बचाए जा सकते। परमात्मा के उपकार तो कार-सेवाओं से ही बचाए जा सकते हैं और कार-सेवाएं भी तभी फलीभूत होती हैं जब सरबत के भले के लिए डॉलर-मोह की बजाय कोई ऑर्गेनिक श्रद्धा बची हो।

पंजाब का धू-धू कर जलता सगुण और निर्गुण अब शुद्ध मन से ही बचाया जा सकता है। होशियारी, विज्ञान आदि से निकले अन्य उपाय तो आग में पेट्रोल का काम ही करेंगे।

श्री सुरेन्द्र बंसल चंडीगढ़ के एक अखबार में काम करते हुए पंजाब में सामाजिक कामों से जुड़े हैं।

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