कहते हैं, इन दिनों
धरती बेहद उदास है
इसके रंजो-गम के कारण
कुछ खास हैं।
कहते हैं, धरती को बुखार है;
फेफड़े बीमार हैं।
कहीं काली, कहीं लाल, पीली,
...तो कहीं भूरी पड़ गईं हैं
नीली धमनियां।
कहीं चटके...
कहीं गादों से भरे हैं
आब के कटोरे।
कुंए हो गये अंधे
बोतल हो गया पानी
कोई बताये
लहर कहां से आये ?
धरती कब तक रहे प्यासी ??
कभी थी मां मेरी वो
बना दी मैने ही दासी।
कहते हैं इन दिनों....
कुतर दी चूनड़ हरी
जो थी दवा
धुंआ बन गई वो
जिसे कहते थे
कभी हम-तुम हवा
डाल मेरी, काट मेरी
जन्म लेने से पहले
मासूमों को दे रहे
हम मिल सजा!
कहते हैं इन दिनों.....
सांस पर गहरा गया
संकट आसन्न
उठ रहे हैं रोज
प्रश्न के ऊपर भी प्रश्न
तो क्यों न उठे
दिल्ली जल पर उंगलियां
रहें कैसे यमुना जी से
पूछती कुछ मछलियाँ।
कहते हैं इन दिनों....
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