धरती को बरतना कब सीखेंगे

संकट में धरती
संकट में धरती

नई दिल्ली से न्यूयार्क तक अब हवा बदल चुकी है, हालात पहले जैसे कदापि नहीं हैं। अब जब दिल्ली प्राकृतिक वर्षा कर वायु प्रदूषण से मुक्त होना चाहती हो, तो इससे ज्यादा बिगड़ती किन परिस्थितियों के बाद हम गम्भीर होंगे, यह सवाल आज सबसे बड़ा है। दुर्भाग्य यह है कि अब साल का कोई भी महीना ऐसा नहीं बचा, जिसमें सीधे बिगड़ते पर्यावरण के तेवर न दिखाई देते हों। जाड़ों में धुन्ध, गर्मियों में तूफान व बवंडर व बरसात में अतिवृष्टि। और ये सब इसलिये हो रहा है कि हम चिन्ता तो करते हैं पर बहस और निर्णय को परिणामों तक नहीं ले जाते। विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस में हमें विश्लेषण कर लेना चाहिए कि हम अपने संसाधनों को लेकर कहाँ खड़े हैं।

पर्यावरण के चार मजबूत स्तम्भ हवा, पानी, मिट्टी व वन अब लड़खड़ाने लगे हैं और इन्हीं स्तम्भों पर दुनिया भी टिकी है। प्राणी जगत में एक भी ऐसा जीव नहीं, जिसका अस्तित्व इनसे न जुड़ा हो। मतलब इनके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती पर यह विडम्बना ही है कि सब कुछ जानते हुए भी हम मूक हैं। सबसे बड़ी बात यह भी है कि प्रकृति के साथ बर्ताव के बुरे लक्षण भी दिखने लगे। इतना ही नहीं प्रकृति ने बड़ी मार भी लगानी शुरू कर दी है, तमाम तरह की प्राकृतिक घटनाएँ इसी का एक हिस्सा है। ये तूफान हों या फिर प्रचंड गर्मी या फिर दम घोंटू हवा, सब कहीं-न-कहीं पर्यावरण से छेड़छाड़ का ही परिणाम है।

अब प्रकृति प्रदत्त संसाधनों पर नजर डाल लें, दुनिया में पिछले 300 वर्षों में यानी कि औद्योगिक क्रान्ति के बाद वन क्षेत्र घटकर आधे से कम रह गया है। अपने यहाँ फॉरेस्ट सर्वे इण्डिया की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश के पूरे भू-भाग में लगभग 21.54 हिस्से ही वन हैं और ये वर्ष 2015 की तुलना में 6,770 वर्ग किलोमीटर ज्यादा है। इस वन क्षेत्र में 2.99 फीसदी घने, 9.38 फीसदी सामान्य रूप से घने व करीब 9.18 फीसदी खुले वन हैं।

उत्तर पश्चिम के पहाड़ी क्षेत्रों में तो 759 वर्ग किलोमीटर वन बढ़े हैं। पर वहीं दूसरी तरफ उत्तर पूर्वी क्षेत्र में 630 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। यह कहानी अपने देश की ही नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया की है, जहाँ वनों के प्रति गम्भीर चिन्ता नहीं दिखती। एक आकलन से पता चला कि अगर हालात ऐसे ही रहे, तो अगले 100 वर्षों में वर्षा वन नहीं रहेंगे। प्रति सेकेण्ड में आधा हेक्टेयर वन कटते हैं।

एक वृक्ष एक दिन में 0.0597 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड लेता है और 0.03234 किलोग्राम ऑक्सीजन छोड़ता है। वर्ल्ड रिसोर्स संस्थान के अनुसार वनों की हानि से लगभग 17 फीसदी ग्रीन हाउस असर पड़ता है। और इससे लगभग 28,000 प्रजातियाँ इस शताब्दी के अन्त तक गायब हो जाएँगी। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार लगभग दुनिया के आधे उष्ण वन या तो समाप्त हो चुके हैं या बुरी हालत में हैं।

हमारे जीवन का आधार पानी हमारे बीच से तेजी से गायब होता जा रहा है। अब देखिए वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 5,177 घन मीटर थी, जो घटकर वर्ष 2025 में 1,341 घन मीटर पहुँचने वाली है, 4,000 घन मीटर पानी की कमी की हर व्यक्ति पर चोट। अपने देश के अधिकतर तालाबों और कुओं से पानी गायब होते देखा है और जहाँ जल 15 से 20 फीट में उपलब्ध था, वह 200 फीट से नीचे जा चुका है। लोकसभा में ही स्वीकारा गया है अपने देश में 275 नदियाँ खतरे की घंटी बजा चुकी हैं, क्योंकि उनमें पानी की मात्रा तेजी से खत्म हो रही है। ऐसे ही हालात ग्लेशियर के भी हैं, चाहे वे अपने देश के हों या दुनिया के। बड़ा सवाल जिस पर सामूहिक चर्चा व शोर-शराबा होना चाहिए, वह यह है कि अपने देश की जल चिन्ता को लेकर हम कहाँ खड़े हैं। क्योंकि टुकड़ों-टुकड़ों में दाएँ-बाएँ से हम किसी तरह जल जुटा ही लेते हैं और स्थितियाँ सामान्य होने पर वह सब भुला भी दिया जाता है। अपने देश में बढ़ते जल संकट का दूसरा बड़ा पहलू यह भी है कि धरती को छेदकर हर हद तक पानी निकालने के हमारे पागलपन ने आर्सेनिक क्लोराइड, फ्लोराइड, नाइट्रेट व आयरन जैसे तत्वों की जल में बहुतायत पैदा कर दी है, जिससे नई तरह की बीमारियाँ झेलनी पड़ रही हैं।

अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हम कभी खरे नहीं उतर पाए और मिट्टी भी उसमें से एक है। मिट्टी के बिगड़ते हालात भी आज बड़े संकट के रूप में हमारे सामने आ चुका है। मिट्टी के हालात देश दुनिया मेें अच्छे नहीं हैं। जिस तरह से दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की माँग बढ़ रही है, उसी गति से मिट्टी के हालात भी खराब होते जा रहे हैं। हरित क्रान्ति के बाद के कुछ साल खासकर 80 के दशक के बाद किसान जिस तरह से यूरिया-डीएपी और पेस्टीसाइड का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह आत्मघाती है। केन्द्रीय मृदा और जल संरक्षण संस्थान, देहरादून की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले भारत में 5,334 लाख टन मिट्टी हर वर्ष खत्म होती जा रही है, जो 16.35 टन प्रति हेक्टेयर है। पर्यावरण संरक्षण को किसी देश विशेष या संगठन की पहल मानकर नहीं देखना चाहिए। शायद ये ही एक ऐसा विषय है कि जिसमें सबकी बात जुड़ी है और क्योंकि प्रकृति का भी यही मानना है कि अगर उसे सब भोगते हैं, तो सब उसे जोड़ने में भी भागीदारी करें।


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