जलवायु संकट से जमीनी संघर्ष
‘‘हमें अपने पैरों के नीचे जमीन के बारे में उतना नहीं पता है, जितना हम खगोलीय पिंडों की गति के बारेमें जानते हैं।’’
लियोनार्दो दा विंची
‘‘मिट्टी का ख्याल रखो, और बाकी चीजें अपना ख्याल खुद रख लेंगी।’’
-किसानों का एक मुहावरा
पांच सौ साल बीत गए, जब दा विंची ने वह बात कही थी, लेकिन बहुत कुछ नहीं बदला है। कई लोगों के लिए मिट्टी सिर्फ धूल और कणों का एक मिश्रण है। लेकिन, वास्तविकता यह है कि वह इस ग्रह के लिए सबसे ज्यादा हैरतअंगेज जीवित पारिस्थितिकी तंत्रों में एक है। करोड़ों पौधे, जीवाणु, काई, कीडे़ और अन्य सूक्ष्म जीव, जिनमें से अधिकतर नंगी आंखों से देखे जा सकते हैं, निरंतर विकास की प्रक्रिया में होते हैं जिसमें जैव तत्व बनता और टूटता रहता है। यही तत्व अनिवार्य तौर पर किसी के लिए भी प्रस्थान बिंदु का काम करते हैं, यदि वह खाद्यान्न उगाना चाहता है।
मिट्टी में जैव तत्व के रूप में भारी मात्रा में कार्बन होता है। वैश्विक स्तर पर जितना कार्बन वनस्पतियों में नहीं, उसके दोगुने से अधिक मिट्टी में है। पिछली सदी में हालांकि, औद्योगिक कृषि के उभार ने रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के चलते मिट्टी के उपजाऊपन के प्रति उपेक्षा जताई है और इसके चलते इसमें से जैविक तत्व का क्षरण हुआ है। यह बड़े पैमाने पर वातावरण में सबसे महत्वपूर्ण ग्रीन हाउस गैस कार्बन डाई ऑक्साइड के रूप में उत्सर्जित हो गया है।
औद्योगिक कृषि ने जिस तरीके से मिट्टी को बरता है, वह मौजूदा जलवायु सकंट को तेज करने में एक प्रमुख कारक रहा है, लेकिन हमारी जानकारी से कहीं अधिक मिट्टी इसके समाधान का भी एक हिस्सा हो सकती है। हमारी गणना के मुताबिक यदि हम इस मिट्टी में औद्योगिक कृषि से लगातार उत्सर्जित हो रहे जैव तत्व को वापस ला सके तो हम वातावरण में मौजूद कम से कम अतिरिक्त कार्बन डाई ऑक्साइड का एक-तिहाई अवशोषित कर पाएंगे। यदि एक बार हमने ऐसा कर लिया और फिर अपनी मिट्टी के पोषण का ख्याल रखा, तो करीब 50 साल बाद हम वातावरण में मौजूद अतिरिक्त कार्बन डाई ऑक्साइड का करीब दो-तिहाई अवशोषित करने में सक्षम होगें। इस प्रक्रिया में हम अपनी मिट्टी को ज्यादा स्वस्थ और उत्पादक बना पाएंगे और साथ ही रासायनिक उर्वरकों के प्रयाग से बच पाएगे जो कि जलवायु परिवर्तन की गैसों का एक बडा़ उत्पादक है।
वाया कैम्पेसीना ने दलील दी है कि लघु स्तरीय कृषि यानी कृषि पारिस्थितिकीय उत्पादन के तरीकों तथा स्थानीय बाजारों को केन्द्र में रखकर हम इस धरती को ठंडा कर पाएंगे जिससे हमारी आबादी का पेट भर सकेगा (देखें, बॉक्स 1)। वे सही कह रहे हैं और इसकी वजह मिट्टी में ही छिपी है।
जीवित पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में मिट्टी
मिट्टी एक पतली परत होती है जो इस धरती की सतह के 90 फीसदी पर है और बहुत लोग जैसा सोचते हैं उसके उलट एक जीवित और गतिशील पारिस्थितिकी तंत्र है। स्वस्थ मिट्टी सूक्ष्म जीवों और बड़े जीवों का घर होती हैं जो कई बडे़ काम करते हैं तथा मृत व क्षरणप्रायः पदार्थ व खनिजों को पौधों के पोषक तत्व में बदल देते हैं। विभिन्न जीव अलग-अलग जैव स्तरों पर अपना पेट भरते हैं। इस जीवित तंत्र को धूल से अलग करने वाली चीज एक ही है कि यह पौधों के बढ़नें के लिए जरूरी पोषक तत्व को अपने भीतर बनाए रखकर उन्हें मुहैया करा सकती है। यह पानी अपनी भीतर जमा रख सकती है और धीरे-धीरे नदी, झीलों या फिर पौधों की जड़ों के आस-पास इसे छोड़ सकती है ताकि नदियां बहती रह सकें और पौधे वर्षा होने के काफी देर बाद तक पानी से सिंचित हो सकें। यदि मिट्टी इन प्रक्रियाओं को जन्म नहीं देगी, तो हम जानते हैं कि इस धरती पर जैसा जीवन हम देख पा रहे हैं, वह अस्तित्व में नहीं होगा।
मिट्टी के काम करने के पीछे एक प्रमुख घटक उसका जैविक तत्व एसओएम होता है। यह पौधों और पशु पदार्थों के विघटन से पैदा हुई चीजों का मिश्रण है। इसमें काई, बैक्टीरिया, कीड़ों और अन्य जीवों द्वारा छोड़े गए तत्वों का समावेश होता है। जैसे-जैसे खाद्य और मृत जीव अपघटित होते हैं, वे धीरे-धीरे ऐसे पोषक तत्व छोड़ते हैं जिसका इस्तेमाल पौधे अपनी वृद्धि के लिए कर सकते हैं। चूंकि, ये सभी चीजें मिट्टी में मिली होती हैं, इसलिए वे मिलकर नए अणु बनाती हैं जिससे मिट्टी को नए लक्षण प्राप्त होते हैं। एसओएम के अणु धूल के अणुओं के मुकाबले 100 गुना ज्यादा पानी सोख सकते हैं, रोक सकते हैं, बाद में पौधों को पोषक तत्वों के समान अनुपात में जारी कर सकते हैं। जैव पदार्थ में कुछ बांधने वाले अणु भी होते हैं जो मिट्टी के कणों को साथ रखते हैं और मिट्टी को क्षरण से बचाकर उसे कम ठोस और ज्यादा मुलायम बनाते हैं। इन्हीं लक्षणों के चलते मिट्टी वर्षा के जल को अवशोषित कर पाती है और धीरे-धीरे नदियों, झीलों व पौधों को वह जल मुहैया कराती है। इससे पौधे बढ़ पाते हैं। पौधे जैसे-जैसे बढ़ते हैं, ज्यादा से ज्यादा पत्तियां और अन्य चीजें मिट्टी में मिलती हैं जिससे और जैविक पदार्थ बनते हैं। यह एक लगातार चलने वाले चक्र को जन्म देता है जिससे मिट्टी में जैव पदार्थ जमा होते जाते हैं। यह प्रक्रिया करोड़ों सालों तक चली है और मिट्टी में जैव तत्व का भंडारण वातावरण में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को कम करने का एक प्रमुख स्रोत रहा है जिसके माध्यम से करोड़ों साल पहले इस धरती पर जीवन पैदा हुआ।
जैव पदार्थ मिट्टी की सबसे उर्वर परत यानी ऊपरी परत में पाए जाते हैं। ऊपर होने के कारण यह क्षरण के प्रति संवेदनशील होती है और इसे कैनोपी से बचाया जाना होता है, जो खुद अतिरिक्त जैव पदार्थ का एक स्थायी स्रोत है। पौधों का जीवन और मिट्टी की उर्वरता इस तरह एक-दूसरे को समृद्ध करने वाली प्रक्रियाएं हैं जिनके बीच जैव पदार्थ एक सेतु का काम करते हैं, लेकिन जैव पदार्थ को बैक्टीरिया, फंजाई, छोटे कीटों और मिट्टी में रहने वाले अन्य जीवों का भोजन है। यही वे हैं जो खाद्य और मरी हुई कोशिकाओं को न केवल पोषक तत्वों में बदलते हैं, बल्कि मिट्टी में जैव पदार्थों को अपघटित भी करते हैं, इसलिए जैव पदार्थों को लगातार पोषित करते रहना चाहिए क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया गया, तो यह धीरे-धीरे मिट्टी में से गायब हो जाएंगे। जब सूक्ष्म जीव और अन्य जीवित प्राणी जैव पदार्थ को मिट्टी में अपघटित करते हैं, तो इस प्रक्रिया में वे खुद के लिए ऊर्जा पैदा करते हैं तथा खनिज व कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं। प्रति किलोग्राम जैव पदार्थ के अपघटन में वातावरण में डेढ़ किलोग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती है।
दुनिया भर में गांवों में रहने वाले लोगों को मिट्टी की गहरी समझ है। वे अनुभव से जानते हैं कि मिट्टी का ध्यान रखना पड़ता है और उसे खाद-पानी देते रहना पड़ता है। पारंपरिक कृषि में तमाम ऐसे तरीके हैं जो इस ज्ञान को सामने लाते हैं। खाद, फसलों के बचे हुए हिस्से और कम्पोस्ट से मिट्टी में जान आती है और जैविक पदार्थ ताजा हो उठते हैं। रोटेशन की प्रक्रिया में जमीन के कुछ हिस्से को बिना पौधारोपण के लिए खाली छोड़ दिया जाता है ताकि उस पर अपने आप जंगली पौधे उग आएं। ऐसा करने से अपघटन की प्रक्रिया ठीक से चल पाती है। इसके अलावा जुताई, मेढ़, खरपतवार हटाने और अन्य संरक्षण के तरीकों से क्षरण के खिलाफ मिट्टी को बचाया जा सकता है ताकि जैव पदार्थ न बह पाएं और न उड़ पाएं। वनाच्छादन को अक्सर बनाए रखा जाता है और जितना संभव हो सके, उससे कम छेड़-छाड़ की जाती है ताकि पेड़ क्षरण से मिट्टी को बचा सकें और अतिरिक्त जैव पदार्थ मुहैया करा सकें। इतिहास में जब-जब इन तरीकों को लोगों ने भुला दिया है या किनारे कर दिया है, उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। ऐसा लगता है कि मध्य अमेरिका की माया सभ्यता के लुप्त हो जाने की यह मुख्य वजह थी। हो सकता है कि चीनी साम्राज्य के संकटों के पीछे भी इसी का हाथ हो और निश्चित तौर पर अमेरिका व कनाडा में धूल की अधिकता के पीछे केन्द्रीय वजह यही है।
कृषि का औद्योगीकरण और मिट्टी में जैव पदार्थों का नुकसान
कृषि औद्योगीकरण की शुरुआत यूरोप और उत्तरी अमेरिका में हुई जिसे बाद में हरित क्रांति के रूप में दुनिया के अन्य हिस्सों में अपना लिया गया। यह इस मान्यता पर आधारित था कि मिट्टी की उर्वरता रासायनिक उर्वरकों के माध्यम से बनाई रखी जा सकती है और बढ़ाई जा सकती है। ऐसे में मिट्टी में मौजूद जैव पदार्थ की ओर कम ही ध्यान दिया गया। दशकों तक कृषि के औद्योगीकरण तथा लघु कृषि पर औद्योगिक तकनीकी मानकों को थोपे जाने से वे प्रक्रियाएं कमजोर हुई हैं जो सुनिश्चित करती थीं कि मिट्टी को जैव पदार्थ की लगातार आपूर्ति होती रहे तथा वह क्षरित न हो पाए। जैव पदार्थ को ताजा न किए जाने तथा उर्वरकों के इस्तेमाल का प्रभाव शुरू में नजरअदांज कर दिया गया क्योंकि उस वक्त पर्याप्त मात्रा में जैव पदार्थ मौजूद थे, लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे यह भंडार कम होता गया, इसके दुष्परिणाम सामने आते गए जिसका विनाशक प्रभाव दुनिया के कुछ हिस्सों में पडा़ है। वैश्विक नजरिए से देखें, तो औद्योगीकरण से पहले हवा और मिट्टी के बीच संतुलन की स्थिति यह थी कि हवा में प्रत्येक टन कार्बन के मुकाबले मिट्टी में करीब दो टन कार्बन मौजूद होता है। वर्तमान अनुपात गिर गया है और अब प्रत्येक टन वातावरणीय कार्बन के लिए मिट्टी में 1.7 टन कार्बन ही बचा रह गया है।
मिट्टी में जैव पदार्थ की गणना प्रतिशत में की जाती है। एक फीसदी जैव पदार्थ का अर्थ होता है कि हरेक किलोग्राम मिट्टी में 10 ग्राम जैव पदार्थ हों। मिट्टी की गहराई पर निर्भर करता है कि इसकी मात्रा प्रति हेक्टेयर 20 से 80 टन भी हो सकती है। मिट्टी कैसे बनी है, उसमें क्या घटक हैं और जलवायु की स्थितियां कैसी हैं, इस पर निर्भर करता है कि किसी जगह उर्वरता सुनिश्चित करने के लायक जैव पदार्थ बचे हैं या नहीं। कहा जा सकता है कि आम तौर पर स्वस्थ मिट्टी के लिए 5 फीसदी जैव पदार्थ एक न्यूनतम, लेकिन अच्छी मात्रा है, हालांकि कुछ मिट्टी की किस्में ऐसी होती हैं जहां पैदावार की स्थितियां तभी श्रेष्ठ होंगी जब उस मिट्टी में जैव पदार्थ की मात्रा 30 फीसदी से ज्यादा हो।
कई अध्ययनों के मुताबिक यूरोप और अमेरिका में मिट्टी से औसतन 1 से 2 फीसदी अंक जैव पदार्थ ऊपरी सतह के 20 से 50 घनसेंटीमीटर में खत्म हो चुका है। हो सकता है कि यह आंकड़ा कम अनुमान का हो क्योंकि अक्सर जैव पदार्थ के मामले में तुलना का आधार बीसवीं शताब्दी का आरम्भ होता है, जब तमाम जगहों की मिट्टी औद्योगीकरण की प्रक्रिया की शिकार हो चुकी थी और पहले ही उसमें से जैव पदार्थ की भारी मात्रा का नुकसान हो चुका था। अमेरिका के मध्य-पश्चिम में कुछ जमीनों की मिट्टी में 20 फीसदी कार्बन 1950 के दशक में हुआ करता था, जो आज गिर कर महज 1 से 2 फीसदी रह गया है।4 चिली, अर्जेंटीना 5, ब्राजील 6, दक्षिण अफ्रीका 7 और स्पने 8 में करीब 10 फीसदी अंकों का नुकसान दर्ज किया गया है। हालांकि, कोलोराडा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा दिए गए आंकड़ों में बताया गया है कि दुनिया भर में जोती गई जमीन में जैव पदार्थ का नुकसान औसतन 7 अंक है।
जलवायु की गणना
मान लें कि न्यूनतम अनुमानों के मुताबिक दुनिया भर की मिट्टी में ऊपरी सतह के 30 सेंटीमीटर में औद्योगिक कृषि की शुरुआत से 1 से 2 फीसदी अंक जैव पदार्थ का नुकसान हुआ होगा। यह 1.5 लाख से 2.5 लाख मिलियन टन खत्म हुए जैव पदार्थों को दिखाता है। यदि हमें इसे मिट्टी में वापस डालना हो, तो हम 2 लाख 20 हजार से 3 लाख 30 हजार मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड हवा से लेंगे। यह राशि वातावरण के अतिरिक्त कार्बन डाई ऑक्साइड का 30 फीसदी है। तालिका 1 में ये आंकड़े संक्षेप में दिए गए हैं।
दूसरे शब्दों में, एसओएम को बहाल करने से हमारी धरती काफी ठंडी हो जाएगी और ठंडा करने की यह क्षमता इन आंकड़ों के मुताबिक कहीं ज्यादा होगी क्योंकि कई किस्म की मिट्टियां ज्यादा मात्रा में जैव पदार्थ को भंडारित कर सकती हैं।
क्या जैव पदार्थ को मिट्टी में वापस लाना संभव है?
एसओएम को खत्म करने वाला औद्योगीकरण पिछले एक सदी से ज्यादा वक्त से औद्योगिक देशों में जारी है। हालांकि यह प्रक्रिया वैश्विक स्तर पर हरित क्रांति के रूप में साठ के दशक में ही आरंभ हुई। तब सवाल उठता है कि मृदा क्षरण के पिछले पचास साल के असर निपटने में हमें कितना वक्त लगेगा? एक फीसदी अंक एसओएम की बही का मतलब होता है एक हेक्टेयर में करीब 30 टन जैव पदार्थ को वापस ले आना। लेकिन औसतन दो-तिहाई जैव पदार्थ जो सूक्ष्म जीवों द्वारा मिट्टी के भीतर अपघटित कर दिया जाता है। इसलिए स्थायी तौर पर 30 टन जैव पदार्थ मिट्टी में मिलाने के लिए हमें 90 टन जैव पदार्थ को मिट्टी में वापस होना होगा। यह काम जल्दी से नहीं किया जा सकता। इसके लिए धीरे-धीरे ही चलना होगा।
आखिर जैव पदार्थ की वह वास्तविक मात्रा क्या है जिसे दुनिया भर के किसान मिट्टी में वापस ला सकते है? इसका जवाब अलग-अलग जगहों उनकी पारिस्थितिकी के मुताबिक पर फसलों के हिसाब से निर्भर करेगा। एक ऐसी उत्पादक प्रणाली जो सालाना तौर पर पूरी तरह विभिन्न विविध फसलों पर आधारित हो, वहां एक हेक्टेयर में एक साल में 0.5 से 10 टन जैव पदार्थ मिट्टी में मिलाया जा सकता है। यदि एक से ज्यादा फसलें उगाई जाएं, घास के मैदान हों और खाद को भी जोड़ा जाए, तो इस मात्रा को आसानी से दोगुना या तिगुना किया जा सकता है। यदि मवेशियों को भी जोड़ा जाए तो जैव पदार्थ की मात्रा अनिवार्य तौर पर तो नहीं बढ़ेगी, लेकिन इससे घास और खाद की पैदावार आर्थिक रूप से मुनाफाकारी और व्यवहार्य बनेगी। इसके अलावा यदि फसल तंत्र में पेड़ और जंगली पौधे भी शामिल हों, तो न सिर्फ फसलों की उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि अतिरिक्त जैव पदार्थ भी उत्पादित किया जा सकेगा। जैसे-जैसे मिट्टी में जैव पदार्थ बढ़ेंगे, उसकी उर्वरता भी सुधरेगी और ज्यादा जैव पदार्थ उपलब्ध होगा। जब किसान जैव कृषि में परिवर्तित होना आरंभ करेंगे, तो हो सकता है कि शुरू में सालाना 10 टन प्रति हेक्टेयर से कम जैव पदार्थ में जोड़ पाएं, लेकिन क्रमशः प्रति हेक्टेयर 30 टन जैव पदार्थ जोड़ पाने में वे सक्षम हो जाएंगे।
यदि मिट्टी में जैव पदार्थों को जोड़ने के लिए सक्रिय रूप में कृषि कार्यक्रम और नीतियों को बनाया जाए, तो शुरुआत लक्ष्य कम रखने होंगे, लेकिन धीरे-धीरे ज्यादा महत्वाकांक्षी लक्ष्य तैयार किए जा सकेंगे। तालिका 2 बताती है कि मिट्टी में जैव पदार्थ कैसे जोडे़ जा सकते हैं।
यह उदाहरण पूरी तरह व्यवहार्य है। आज दुनिया भर की खेती में हर साल प्रति हेक्टेयर कम से कम दो टन उपयोगी जैव पदार्थ पैदा कर लिया जाता है। सालाना फसलें अकेले प्रति हेक्टेयर एक टन से ज्यादा पैदा करती हैं, तथा शहरी कचरे का पुनर्चक्रण और गंदला पानी प्रति हेक्टेयर 0.2 टन जैव पदार्थ पैदा कर सकता है। यदि जैव पदार्थों को वापस लाना कृषि नीतियों का केंद्रीय लक्ष्य बन गया, तो सबसे व्यावहारिक लक्ष्य दुनिया भर में प्रति हेक्टेयर सालाना 1.5 टन जैव पदार्थ का होगा। इस नए परिदृश्य में हमें रणनीति को बदलना होगा, साथ ही एक से ज्यादा फसलें उगानी होंगी, फसल और मवेशी उत्पादन का एकीकरण करना होगा, पेड़ों और जंगली वनस्पतियों को भी इसमें शामिल करना होगा, आदि। विविधता में यह इजाफा निश्चित तौर पर उत्पादकता की क्षमता को बढ़ाएगा, मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी जिससे उच्च उत्पादकता और जैव पदार्थों की उच्च उपलब्धता का एक चक्र विकसित हो सकेगा। पानी सोखने की मिट्टी की क्षमता भी बढ़ेगी, जिसका अर्थ यह होगा कि तेज बारिश से बाढ़ और सूखे की संभावनाएं कम हो जाएंगी। फिर भूमि क्षरण की समस्या नहीं रहेगी। मिट्टी में क्षार और अम्ल की मात्रा घटेगी, जिससे उसमें जहरीले पदार्थों की मात्रा कम होगी। इसके अलावा जैविक गतिविधियां बढ़ने से पौधों को कीटों और रोगों से बचाया जा सकेगा। इन तमाम प्रभावों का अर्थ उच्च उत्पादकता और मिट्टी में ज्यादा जैविक तत्वों की उपलब्धता होगी, और इस तरह आने वाले वर्षों में हम अपने लक्ष्यों को लगातार बढ़ाते रह सकेंगे। इस प्रक्रिया में ज्यादा खाद्यान्न पैदा होगा।
इसके बावजूद शुरुआती लक्ष्य कितने भी कम हों, उनका दूरगामी प्रभाव होगा। जैसा कि तालिका 2 में दिखाया गया है, इस प्रक्रिया का आरंभ शुरुआती दस साल में 1. 5 टन जैव पदार्थ के समावेश के लक्ष्य से किया जाएगा, जिसका अर्थ हुआ कि सालाना 3,750 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड को अवशोषित किया जा सकेगा। यह मौजूदा मानवीय उत्सर्जन का करीब 9 फीसदी है। ग्रीनहाउस गैसों की कटौती के दो अन्य रूपों को भी साथ में हासिल किया जा सकेगा। पहला, दुनिया भर की मिट्टी में मौजूदा उर्वरक उत्पादन से ज्यादा या समान मात्रा में पोषक तत्व कृषि मिट्टी में शामिल हो सकेंगे। मौजूदा रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन और उपयोग को समाप्त करने से नाइट्रस ऑक्साइड (वनोन्मूलन के बाद कुल जीएचजी उत्सर्जन के आठ फीसदी के बराबर, जो कृषि द्वारा ग्रीनहाउस प्रभाव में किया जाने वाला सबसे बड़ा योगदान है) तथा उर्वरकों के उत्पादन और परिवहन से होने वाले एक फीसदी से ज्यादा जीएचजी उत्सर्जन को खत्म किया जा सकेगा। दूसरे, यदि जैव कचरा मिट्टी में वापस आ सका, तो सोख्तों और गंदले पानी से निकलने वाली मीथेन और कार्बन डाई ऑक्साइड (मौजूदा उत्सर्जन के 3.6 फीसदी के बराबर) को भी कम किया जा सकेगा। संक्षेप में कहें तो इतने मामूली लक्ष्यों के साथ भी दुनिया भर के उत्सर्जन में 20 फीसदी तक की कटौती सालाना संभव है।
और ये सारी बातें हम सिर्फ आरंभिक दस साल की कर रहे हैं। तालिका दो दिखाती है कि यदि हमने अपनी मिट्टी में लगातार जैव पदार्थों का समावेश जारी रखा, तो पचास साल में हम मिट्टी में जैव पदार्थ की मात्रा को दो फीसदी अंक तक बढ़ा सकेंगे। यह अवधि तकरीबन उतनी ही है जितना वक्त इतनी ही मात्रा को कम करने में लगा था। इस प्रक्रिया में हम 450 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख चुके होंगे, जो वातावरण में मौजूदा अतिरिक्त कार्बन डाई ऑक्साइड के दो-तिहाई से ज्यादा है।
ऐसा करने के लिए चाहिए सही नीतियां
जलवायु संकट पर राजनीतिक प्रतिक्रिया की जरूरत है, जिसके तहत कई व्यापक आर्थिक और सामाजिक बदलाव करने पड़ेंगे। भले ही धरती को ठंडा करने के लिए जैव पदार्थों का अवशोषण एक व्यावहारिक और लाभकारी तरीका हो, लेकिन जलवायु परिवर्तन बढ़ता रहेगा जब तक कि हम अपने उत्पादन और उपभोग के तरीकों में बुनियादी बदलाव न ले आएं। मिट्टी में जैव पदार्थ को लौटाने की प्रक्रिया तब तक संभव नहीं होगी जब तक भूमि के केंद्रीकरण के मौजूदा रुझान और खाद्य तंत्र की एकरूपता जारी रहेगी। हर साल सात अरब टन से ज्यादा जैव पदार्थ मिट्टी में वापस डालने का महती काम तभी संभव होगा जब इसे करोड़ों किसान और समुदाय मिल कर एक साथ करें। इसके लिए सबसे पहले बुनियादी कृषि सुधारों की जरूरत होगी- जिसमें दुनिया भर के छोटे किसानों की जमीनों तक पहुंच बनानी होगी, फसलें बदलने के काम को उनके लिए जैविक व आर्थिक रूप से संभव करना होगा। इसके लिए मौजूदा किसान विरोधी नीतियों को भी समाप्त करने की जरूरत है जो किसानों को उनकी जमीनों से उजाड़ती हैं, ऐसे कानून जो बीजों पर एकाधिकार और निजीकरण को बढ़ावा देते हैं, तथा ऐसे नियम जो निगमों की रक्षा करने के लिए पारंपरिक खाद्य प्रणालियों की जान ले लेते हैं। औद्योगिक स्तर पर पशुओं के उत्पादन का वैश्विक व्यापार- जो करोड़ों टन खाद और कचरा पैदा करता है जिससे करोड़ों टन मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड हवा में उत्सर्जित होते हैं- उन्हें भी उलटना होगा और इसकी जगह विकेंद्रीकृत पशुपालन प्रणाली को लाना होगा जो फसल उत्पादन के साथ एकीकृत हो। जैसा कि हम इस अंक के अन्य लेखों में दिखाएंगे, मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय खाद्य तंत्र , जो कि जलवायु परिवर्तन के प्रमुख संचालकों में एक है, उसके सपूंर्ण कायाकल्प की जरूरत है। यदि ऐसा कर लिया गया, तो जलवायु संकट का एक संभावित समाधान मौजूद है- मिट्टी!
तालिका 1 : मिट्टी में जैविक पदार्थ (एसओएम) के निर्माण से कार्बन डाई ऑक्साइड का अवशोषण
वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड1 | 2,867,500 मिलियन टन |
वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाई ऑक्साइड2 | 717,800 मिलियन टन |
दुनिया में कृषि भूमि3 | 5000 मिलियन हेक्टेयर |
दुनिया की सिंचित भूमि4 | 1800 मिलियन हेक्टेयर |
सिंचित भूमि में एसओएम की हानि | 2 फीसदी अंक |
घास के मैदानों और गैर-सिंचित भूमि में एसओएम की हानि | 1 फीसदी अंक |
मिट्टी से खत्म हुआ जैव पदार्थ | 1,50,000- 2,05,000 मिलियन टन |
इन नुकसानों की भरपाई करने के लिए अवशोषित | |
किए जाने वाले कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा | 2,20,000-3,00,000 मिलियन टन |
1. देखें कार्बन डाई ऑक्साइड इंर्फोमेशन एनालिसिस सेंटर, http://cdiac.ornl.gov/pns/graphics/c_cycle.htm
2. समय के हिसाब से केन्द्रीकरण में होने वाले बदलाव पर आधारित गणना।
3. एफएओ के आंकड़ों से ली गई सामग्री, http://faostat.fao.org/site/377/default.aspx#ancor
4. वही।
स्रोत: ग्रेन की गणना।
हुआ है। 2002 में मापे गए स्तर की तुलना 1940 के स्तरों से करने पर पाया गया कि दूध में आयरन का स्तर 62 फीसदी गिर चुका था जबकि पारमेसन पनीर में कैल्शियम और मैग्नीशियम दोनों ही 70 फीसदी कम थे तथा डेयरी उत्पादों में 90 फीसदी की कमी पाई गई।
स्रोतः मरीन हम, ‘सॉयल मिनरल डिप्लीशन’, ऑप्टिमम न्यूट्रिशन, वर्ष 19, अंक 3, 2006।
तालिका 2: विश्व की कृषि भूमि में जैविक पदार्थ के समावेश का प्रभाव
वर्ष | 1-10 |
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