धरती के प्रति धर्म निभाने का आह्वान

earth in danger
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पृथ्वी दिवस, 22 अप्रैल 2017 पर विशेष


पृथ्वी का अस्तित्व खतरे मेंपृथ्वी का अस्तित्व खतरे मेंशेयर बाजार अपनी गिरावट का दोष, बारिश में कमी को दे रहा है। उद्योगपति, गिरते उत्पादन का ठीकरा पानी की कमी पर फोड़ रहे हैं। डाॅक्टर कह रहे हैं कि हिन्दुस्तान में बढ़ती बीमारियों का कारण जहरीला होते हवा-पानी हैं। भूगोल के प्रोफेसर कहते हैं कि मिट्टी में अब वह दम नहीं रहा। उपभोक्ता कहते हैं कि सब्जियों में अब स्वाद नहीं रहा। कृषि वैज्ञानिक कह रहे हैं कि तापमान बढ़ रहा है, इसलिये उत्पादन घट रहा है। किसान कहता है कि मौसम अनिश्चित हो गया है, इसलिये उसके जीवन की गारंटी भी अनिश्चित हो गई है।

पेयजल को लेकर आये दिन मचने वाली त्राहि-त्राहि का समाधान न ढूँढ पाने वाली हमारी सरकारें भी मौसम को दोष देकर अपना सिर बचाती रही हैं। अप्रैल के इस माह में बेकाबू होते पारे को हम सभी कोस रहे हैं, किन्तु अपने दोष को स्वीकार कर गलती सुधारने की दिशा में हम कुछ खास कदम उठा रहे हों; ऐसा न अभी सरकार के स्तर पर दिखाई देता है और न ही हमारे स्तर पर। हकीकत तो यह है कि अभी जो कुछ घट रहा है, हम यह स्वीकार ही नहीं रहे हैं। वह हमारी ही कारगुजारियों का नतीजा है। इसके लिये मौसम या धरती को दोष क्यों दें? हम यह नहीं कह रहे कि बढ़ते भौतिक-आर्थिक विकास की भूख हमें भी है और हमारी सरकारों को भी।

इसी भूख ने हमें अधिक उपभोग और अधिक सुविधाभोग का चस्का लगाया। एक व्यक्ति के लिये कई पोशाकें, कई गाड़ियाँ, कई मकान; इस चस्के का कारण हमारी जरूरत की पूर्ति से अधिक इसे ‘स्टे्टस सिंबल’ मान लेना है। इसी चस्के के कारण धरती का शोषण भी बढ़ा है और नुकसानदेह गैसों का उत्सर्जन भी। किन्तु क्या हम इस चस्के को छोड़ने को तैयार हैं?

 

रवैया बदलने की जरूरत


आप कह सकते हैं कि बिहार सरकार की शराबबन्दी के बाद अब उत्तराखण्ड और मध्य प्रदेश मे भी शराब का उपभोग घटाने की तैयारी है; पेपरलैस दफ्तर, पेपरलैस काॅलेज, पेपरलैस टिकट, ई-दस्तावेज की तरफ बढ़ने की तैयारी भी कई स्तर पर चलती दिखाई दे रही है। किन्तु कोई एक नीति अथवा कोई एक समुदाय बताइए, जो कम-से-कम में जीवन चलाने को प्रेरित अथवा सम्मानित करता हो। क्या कम उपभोग करने वाले को सम्मानित माने बगैर कम उपभोग की दिशा में प्रेरित करना सम्भव है? दिल पर हाथ रखिए और खुद से पूछिए कि हम बड़ी गाड़ी अथवा आलीशान बंगले वाले अपरिचित के समक्ष ज्यादा सलीके से पेश आते हैं अथवा एक सादा कपड़ा पहनने वाले अपरिचित से?

हम जिसका सम्मान करेंगे, समाज वैसा ही बनने को प्रेरित होगा, तो फिर दोष धरती को क्यों? गौर कीजिए कि हमने ऐसे पेन निर्मित किये हैं, जो एक बार उपयोग होने के बाद कचरा बढ़ाता है। गुणवत्ता के नाम पर हमने हर चीज को पैकिंग में पैक करने को प्रोत्साहित किया है; जबकि हकीकत यह है कि सबसे ज्यादा डुप्लीकेट और घटिया माल पैक के रूप में ही बिकता है। एक-दो सवारियों के लिये भी चार पहिया गाड़ियों को दौड़ते आप कभी भी देख सकते हैं। आखिरकार हमारे ऐसे रवैए से धरती का शोषण कैसे रुकेगा?

 

चेतावनी देता अतीत


सदैव याद रखने की बात यह है कि यदि शोषण यूँ ही जारी रहा तो धरती का नुकसानदेह गैसों का उत्सर्जन कभी नहीं रोका जा सकेगा। एक दिन धरती इतनी गर्म हो जाएगी कि ज्वालामुखियों में सामूहिक विस्फोट होगा। सामूहिक विस्फोट का नतीजा एक साथ बड़ी मात्रा में कार्बन डाइआॅक्साइड के वायुमण्डल में घुलने के रूप में सामने आएगा। इससे तापमान और बढ़ेगा। बढ़े हुए तापमान के कारण समुद्र का पानी जहरीला हो जाएगा। अन्तिम परिणाम होगा, अधिकतम जीव और वनस्पतियों का विनाश।

करीब दो अरब साल पहले भी यही हुआ था। ऐसे हालातों के कारण धरती के 90 प्रतिशत जीव नष्ट हो गए थे। जो प्रजातियाँ इन परिस्थितियों के लिये खुद को तैयार नहीं कर पाईं, वे हमेशा के लिये विलुप्त हो गईं। आज उनका कोई नामलेवा भी नहीं है। पैलियोवर्ल्ड नामक पत्रिका में एक शोध का निष्कर्ष यही है। क्या हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ियों के साथ भी यही हो?

 

पृथ्वी दिवस - चर्चा नहीं, संकल्प करें


यही नहीं, तो संकल्प लें कि 'पृथ्वी दिवस' सिर्फ पृथ्वी को दोष देने अथवा उसके हालात पर चर्चा करने का दिन नहीं है; धरती के प्रति अपना धर्म निभाने का दिन है। माँ पृथ्वी अपना धर्म निभा रही है। हम अपना धर्म पहचानें और उसे निभाएँ। सरकारें क्या करेंगी या नहीं करेंगी; जरूरी है कि अब हम इस बहस से आगे बढ़ें और कुछ प्रयास खुद शुरू करें। क्या करें? यह सोचें, समझें, करें और दूसरों को वैसा करने के लिये प्रेरित करें।

 

धर्म सुझाते कुछ संकल्प


पृथ्वी के सरोकार व्यापक हैं। अतः संचेतना और सावधानियाँ भी व्यापक ही रखनी होगी। यदि पृथ्वी की चिन्ता करनी है, तो सृष्टि के हर अंश की चिन्ता करनी होगी। हम इंसानों की चिन्ता इसमें स्वयंमेव शामिल है। इसके लिये आप कुछ छोटे कदम तय कर सकते हैं। पृथ्वी दिवस पर एक पौधा लगाकर उसकी सेवा का संकल्प कर सकते हैं। न्यूनतम उपभोग करने वाले का सम्मान करना, दूसरा संकल्प हो सकता है। बच्चों अपनी काॅपी के पन्ने अनावश्यक खर्च न करने का संकल्प ले सकते हैं।

यह भी कर सकते हैं कि गली में कचरा फेंकने वाले घर/दुकान अथवा प्रदूषण फैलाने वाली फैक्टरी को चिन्हित करें और पृथ्वी दिवस पर उसके बाहर एक पोस्टर लगाएँ- ''इस घर/ दुकान/फैक्टरी को कचरा फैलाना पसन्द है।'' ....या फिर कचरा फेंकने के खिलाफ कचरा फेंकने वाले के दरवाजे पर मौन.. शान्तिपूर्ण सांकेतिक प्रदर्शन करें। उनकी सूची बनाकर किसी एक सार्वजनिक स्थल पर लगाएँ।

पृथ्वी दिवस के छह दिन बाद 28 अप्रैल को अक्षय तृतीया आने वाली है। शास्त्रों में इस दिन से आगे पूरे बैसाख-जेठ तक प्याऊ लगाने को पुण्य का काम माना गया है। भारत के कई इलाकों में ऐसा होता है। आप भी अपना एक छोटा सा प्याऊ लगा सकते हैं। प्याऊ - पानी के बाजार के खिलाफ एक औजार! आप चाहें प्यासे पथिक को पानी पिलाएँ या चिरैया, बिल्ली या सियार को; ऐसा कर आप धरती और स्वयं की मदद ही करेंगे।

अक्षय तृतीया से जलसंरचनाओं की गाद निकालने और पाल को ठीक करने का काम करने के भी निर्देश हैं। जैविक खेती करना, कूड़े की खाद बनाना, पानी का अनुशासित उपयोग करना, उपयोग किये पानी को संजोने के लिये सोख्ता गड्ढा बनाना, बोतलबन्द पानी खरीदकर न पीना, निजी की जगह, सार्वजनिक वाहन का प्रयोग करना, डीजल में मिट्टी के तेल की मिलावट न करना, अपने गली-मोहल्ले की सफाई करना; ये सभी पृथ्वी बचाने के ही काम हैं।

जिस चीज का ज्यादा अपव्यय करते हों, संकल्प ले सकते हैं - “मैं इसका त्याग करुँगा अथवा अनुशासित उपयोग करुँगा। सामर्थ्य होते हुए भी कम-से-कम कपड़े, एक जोड़ी जूते में गुजारा चलाने का संकल्प ले सकते हैं। ध्यान रहे कि अपव्यय और कंजूसी में फर्क होता है। जूठन छोड़ना कंजूसी नहीं, अपव्यय है। गाँव में तो यह जूठन मवेशियों के काम आ जाता है अथवा खाद गड्ढे में चला जाता है। शहरों में जूठन न छोड़कर करके आप भोजन का अपव्यय रोक सकते हैं। तय कर सकते हैं कि दूध लेने के लिये मैं दुकानदार से पाॅलीथीन की झिल्ली नहीं लूँगा। इसके लिये घर से सदैव एक पाॅलीथीन बैग लेकर जाऊँगा।’’ ऐसा कर आप एक वर्ष में 365 झिल्लियों का कचरा कम करेंगे। इस तरह एक बात तो तय है कि हम जो कुछ भी बचाएँगे, अन्ततः उससे पृथ्वी का हित ही होगा। इससे धरती बचेगी और हम भी।

ये तो बस कुछ विचार हैं। यदि आपको ये काम अपने लिये मुफीद नहीं लगते, तो आप कुछ और काम सोचकर कर सकते हैं। बस! कुछ भी करने से एक बात जरूर समझ लें कि पृथ्वी कोई एक गोेला मात्र नहीं है; पृथ्वी पंचतत्वों से निर्मित जीवन्त प्रणालियों का एक अनोखा रचना संसार है। रचना और विनाश, ऐसी दो प्रक्रियाएँ जो इसे हमेशा नूतन और सक्रिय बनाए रखती हैं। इसकी रचना, विकास और विनाश में हर जीव की अपनी एक अलग भूमिका है।

जब-जब हम इस भूमिका का निर्वाह करने में चूक करते हैं, पृथ्वी हमें चेताती है। अमीबा, चींटी, बिल्ली, सियार, कौआ, बाघ तक सभी की कुछ-न-कुछ भूमिका है। सहयोगी भूमिका पहाड़, पठार, रेगिस्तान, तालाब, झील, समंदर, नमी से लेकर उस पत्थर की भी है, जो नदी के बीच खड़ा नदी के प्रवाह को चुनौती देता सा प्रतीत होता है। यदि हमने धरती की चुनौतियों और इनके समाधान में प्रत्येक की भूमिका समझने का थोड़ा भी प्रयास किया, तो हमें अपनी भूमिका स्वयंमेव समझ आ जाएगी। क्या आप प्रयास करेंगे? मैं करुँगा।

 

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