![earth day](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/earth%20day_0_4.jpg?itok=iukqCfvH)
earth day
22 अप्रैल - पृथ्वी दिवस पर विशेष
आज संकट साझा है... पूरी धरती का है; अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की पुरातन भारतीय अवधारणा को लागू करने से ही धरती और इसकी संतानों की सांसें सुरक्षित रहेंगी। यह नहीं चलने वाला कि विकसित देशों को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में बहाए। निजी जरूरतों को घटाए और भोग की जीवनशैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।मनुस्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकड़ों वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र किया गया है। क्या वैसे ही लक्षणों की शुरुआत हो चुकी है? ‘अलनीनो’ नामक डाकिए के जरिए भेजी पृथ्वी की चिट्ठी का ताजा संदेश तो यही है और मूंगा भित्तियों के अस्तित्व पर मंडराते संकट का संकेत भी यही। अलग-अलग डाकियों से धरती ऐसे संदेश भेजती ही रहती हैं। अब जरा जल्दी-जल्दी भेज रही है। हम ही हैं कि उन्हें अनसुना करने से बाज नहीं आ रहे। हमें चाहिए कि धरती के धीरज की और परीक्षा न लें। उसकी डाक सुनें भी और तद्नुसार बेहतर कल के लिए कुछ अच्छा गुने भी।
यदि जीवन संचार के प्रथम माध्यम का ही नाश होना शुरू हो जाए, तो समझ लेना चाहिए कि अंत का प्रारंभ हो चुका है। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई और अगले एक दशक में 10 फीसदी अधिक वर्षा का आकलन झूठा सिद्ध नहीं हुआ, तो समुद्रों का जलस्तर 90 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा; तटवर्ती इलाके डूब जाएंगे। इससे अन्य विनाशकारी नतीजे तो आएंगे ही, धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी; तब जीवन बचेगा... इस बात की गारंटी कौन दे सकता है?
एटमोस्फियर, हाइड्रोस्फियर और लिथोस्फियर - इन तीन के बिना किसी भी ग्रह पर जीवन संभव नहीं होता। ये तीनो मंडल जहां मिलते हैं, उसे ही बायोस्फियर यानी जैवमंडल कहते हैं। इस मिलन क्षेत्र में ही जीवन संभव माना गया है। यदि इन तीनों पर ही प्रहार होने लगे.... यदि ये तीनों ही नष्ट होने लगें, तो जीवन पुष्ट कैसे हो सकता है? परिदृश्य देखें तो चित्र यही है। कायदे के विपरीत आबूधाबी में बर्फ की बारिश हुई। जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ गया है।
सुनामी का कहर अभी हमारे जेहन में जिंदा है ही। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किमी का रकबा पिछले 50 सालों में सिकुड़कर लगभग 500 वर्ग किमी कम हो गया है। गंगा के गोमुखी स्रोत वाला ग्लेशियर का टुकड़ा भी आखिरकार चटक कर अलग हो ही गया। अमरनाथ के शिवलिंग के रूप-स्वरूप पर खतरा मंडराता ही रहता है। उत्तराखंड विनाश के कारण अभी खत्म नहीं हुए हैं। तमाम नदियां सूखकर नाला बन ही रही हैं। भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड के अलावा भारी धातुओं के इलाके बढ़ ही रहे हैं।
यह सच है कि अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी के झुकाव में आया परिवर्तन, सूर्य के तापमान में आया सूक्ष्म आवर्ती बदलाव तथा इस ब्रह्मांड में घटित होने वाली घटनाएं भी पृथ्वी की बदलती जलवायु के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। लेकिन इस सच को झूठ में नहीं बदला जा सकता कि आर्थिक विकास और विकास के लिए अधिकतम दोहन से जुड़ी इंसानी गतिविधियों ने इस पृथ्वी का सब कुछ छीनना शुरू कर दिया है।
जीवन, जैवविविधता, धरती के भीतर और बाहर मौजूद जल, खनिज, वनस्पति, वायु, आकाश.... वह सब कुछ जो उसकी पकड़ में संभव है। दरअसल, नए तरीके का विकास..भोग आधारित विकास है। यदि यह बढ़ेगा तो भोग बढ़ेगा, दोहन बढ़ेगा, कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा, ग्रीन गैसें बढ़ेंगी, तापमान बढ़ेगा; साथ ही बढ़ेगा प्राकृतिक वार और प्रहार। घटेगी तो सिर्फ पृथ्वी की खूबसूरती, समृद्धि। यह तय है। फिर एक दिन ऐसा भी आएगा कि विकास, भोग, दोहन, उत्सर्जन, तापमान सब कुछ बढ़ाने वाले खुद सीमा में आ जाएंगे। पुनः मूषक भव ! यह भी तय ही है। अब तय सिर्फ हमें यह करना है कि पृथ्वी के जीवन की सबसे पुरानी इकाई तक जा पहुंचे इस संकट को लाने में मेरी निजी भूमिका कितनी है।
धरती को चिंता है कि बढ़ रहे भोग का यह चलन यूं ही जारी रहा तो आने वाले कल मेंऐसी तीन पृथ्वियों के संसाधन भी इंसानी उपभोग के लिए कम पड़ जाएंगे। मानव प्रकृति का नियंता बनना चाहता है। वह भूल गया है कि प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। धरती चिंतित इस प्रवृत्ति के परिणाम को लेकर भी है।
![ग्लोबल वार्मिंग का शिकार होती पृथ्वी](https://farm3.staticflickr.com/2933/13964666135_cee9037a4d_o.jpg)
आज संकट साझा है... पूरी धरती का है; अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि ’वसुधैव कुटुंबकम’ की पुरातन भारतीय अवधारणा को लागू करने से ही धरती और इसकी संतानों की सांसें सुरक्षित रहेंगी।
यह नहीं चलने वाला कि विकसित देशों को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में बहाए। निजी जरूरतों को घटाए और भोग की जीवनशैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। “प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।’’-बापू का यह संदेश इस संकट का समाधान है। यह मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विन्रमता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसे बनाए बगैर प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं। बचें! अनसुना न करें धरती का यह संदेश। ध्यान रहे कि सुनने के लिए अब वक्त कम ही है।
Path Alias
/articles/dharatai-kae-dhairaja-kai-paraikasaa-mata-laijaie-palaija
Post By: admin