भारत इस अर्थ में नियति का चुना हुआ खास देश है कि यहाँ वह प्रयोग सम्भव है जिसकी संभावना गाँधी ने देखी और जिसे साबित करने की कोशिश की। यहाँ आज से नहीं, सदियों से वे सारे धर्म साथ रहते आए हैं जो दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक-दूसरे का अस्तित्व भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं। दुनिया के सारे जीवित धर्मों का एक-न-एक आराधक भारत की इस धरती पर कहीं-न-कहीं रहता है और हमारा संविधान व हमारी परंपरा, आस्था के उसके निजी अधिकार को स्वीकार भी करती है और उसकी रक्षा का आश्वासन भी देती है।
गाँधी अपने धर्म-युद्ध पर निकल पड़े थे- जैसे अश्वमेध का घोड़ा छूटा हो! चुनौती यह नहीं थी कि कोई इस घोड़े को रोक कर तो दिखाए; निवेदन यह था कि जो जब, जहाँ चाहे इसे रोक ले ताकि संवाद हो!वैचारिक क्रांति का ऐसा अभियान छेड़े रहना उनकी आदत भी बन गई थी और फितरत भी! इस बार प्रसंग था- अस्पृश्यता निवारण व हरिजनों का मंदिर प्रवेश! पूरे देश की नसों में आग घोलते वे किसी सुनामी की तरह बढ़े जाते थे और पीछे वैसा ही विनाश छोड़ते जाते थे कि जैसा विनाश सुनामी रचती है। बस, फर्क इतना ही था कि उनकी सुनामी मानव-देह की मौत नहीं रचती थी; याकि यह कहूँ कि वे हमारे कल्मषों की मौत रचते हुए, हमारे भीतर नवीनतम मूल्यों, भावों का उन्मेष करते जा रहे थे। मानो मृत्यु और जीवन का सर्जन साथ-साथ हो रहा था।
अपनी कमजोर-सी दीखती लेकिन अपराजेय साबित होती काया लिये, अपने मन-प्राणों का पूरा बल समेट कर वे हमारे मन-प्राणों के हर अंधेरे गह्नर पर हमला कर रहे थे और तथाकथित धर्म, संप्रदाय, जाति आदि की जड़ मान्यताएँ क्षत-विक्षत होती जा रही थीं। लेकिन क्षत-विक्षत होना यानी मरना नहीं होता है, घायल होना होता है; और यह कहा ही गया है कि घायल शेर जिंदा, स्वस्थ शेर से भी ज्यादा खतरनाक होता है; कहा ही गया है कि साँप को घायल कर मत छोड़ो क्योंकि वह ज्यादा मारक हो जाता है। लेकिन अहिंसक लड़ाई का शस्त्र इससे अलग ही कहता है। वहाँ मनुष्य को मारना वर्जित है। लेकिन वह कहता है कि तुम अर्जित करो वह शक्ति कि जिससे उसकी सारी पुरानी मान्यताओं-मूल्यों को झकझोर सको; झकझोर कर उसे छोड़ दो ताकि अपने किसी प्रकाश-क्षण में वही आदमी अपने लिये नए मानक-मूल्य सृजित कर सके! अहिंसक शास्त्र कहता है कि संशय मत रखो! जिसकी पुरानी मूल्यों-मान्यताओं को तुमने झकझोर दिया है, वह आदमी नए मानक-मूल्य अपनाएगा ही क्योंकि मनुष्य मूल्यों के बिना रह ही नहीं सकता है, जैसे वह सांस के बिना नहीं रह सकता है। देश-समाज को देखना यह चाहिए कि वह जिस नई हवा में सांस लेगा, वह हवा जहरीली न हो। बस, आस्था की यही डोर थामे वे सारे देश में घूम रहे थे।
दक्षिण भारत के अलप्पी में, 18 जनवरी 1933 की एक आमसभा। हरिजनों के मंदिर-प्रवेश की उनकी अकाट्य पैरवी और उसके प्रभाव में उस निषेध की तेजी से टूटती दीवारों व अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी उफनती भावनाओं से घबराए सवर्णों ने इसी सभा में उनका मुकाबला करने की ठानी; और सनातनी हिंदू होने का जिसका दावा था, उस गाँधी के सामने ब्रह्मास्त्र चलाए बगैर कोई रास्ता नहीं है, यह मान कर, उनसे सीधा यही कहाः यह सब जो आप कह व कर रहे हैं, इससे तो हिंदू धर्म का नाश हो जाएगा!... गाँधी पल भर भी नहीं ठिठके और वज्र-सी यह बात बोले- मुझे इसकी फिक्र नहीं है! अगर मेरे ऐसा कहने व करने से हिंदू धर्म का नाश होता हो तो हो, क्योंकि अभी मैं हिंदू धर्म को बचाने नहीं आया हूँ! आप मेरे शब्द लिख लेंः मेरे इस अभियान का इससे कोई वास्ता नहीं है कि इससे हिंदू धर्म मजबूत हो रहा है कि कमजोर हो रहा है कि उसका विनाश हो रहा है! मैं अभी जो कर रहा हूँ उसके सही होने के प्रति मैं इतना पक्का हूँ कि यदि मेरी इस भूमिका से हिंदू धर्म कमजोर होता है तो मैं उसका कुछ भी नहीं कर सकता, न मुझे उसकी फिक्र ही है... मैं इस धर्म का चेहराबदल देना चाहता हूँ।
धर्म का चेहरा बदल देने का संकल्प लेने वाला यह आदमी कितना धार्मिक था? धार्मिकता के बारे में जैसा दावा गाँधी का था वैसा दावा शायद ही किसी दूसरे ने किया हो! यह बात गौर करने जैसी है कि गाँधी के जीवन में मंदिर, मूर्ति, मंत्र, पूजा, अनुष्ठान, ध्यान, समाधि जैसा कोई वितान था ही नहीं। वे अपने धार्मिक होने का कोई प्रतीक-चिन्ह भी धारण नहीं करते थे। हम उनके पास प्रार्थना का अटूट क्रम पाते हैं लेकिन उनकी अटूट प्रार्थना में हम एकांत नहीं पाते हैं। वे अनंत कोलाहल के बीच भी अपना एकांत खुद ही रच लेते थे। उनकी प्रार्थना भी सार्वजनिक सभा के रूप में ही होती थी। वह कहलाती ही थी बापू की प्रार्थना सभा! ... खुली जगह पर, सार्वजनिक तौर पर और सर्वधर्म प्रार्थना! और प्रार्थना के बाद होती थी गाँधी की सभा जिसमें पूरा इंसान और सारे इंसान समाए होते थे। आचार्य कृपालानी ने अपनी परेशानी बताई हैः मैं ठहरा पक्का नास्तिक आदमी! प्रार्थना आदि में कभी जाने-बैठने का सवाल ही नहीं होता था। लेकिन परेशानी यह आई कि यह आदमी, जिसे हमने अपना नेता माना था, यह अपनी राजनीतिक बातें भी प्रार्थना में ही करता था। इसे सुनना-समझना हो तो प्रार्थना में जाना ही होगा, ऐसी स्थिति थी... मैं उसकी प्रार्थना में बैठने लगा... और तब यह समझ में आया धीरे-धीरे कि इस आदमी के पास खाँचे हैं ही नहीं!
गाँधी धर्म का चेहरा बदलने की बात करते हैं! जहाँ हर दिन धर्म के नाम पर लोग अपने चेहरे बदल लेते हैं, वहाँ यह आदमी जो कह रहा है, उसका मतलब क्या है! कैसा होना चाहिए धर्म का चेहरा? देव का नहीं तो दानव का भी नहीं, कम-से-कम मनुष्य का तो हो! मनुष्य जिस सूरत से भय खाए और जिस सूरत की रक्षा में आपको हमेशा तलवार उठाए रखनी पड़े, वह क्या किसी ऐसे धर्म की सूरत हो सकती है, जो मनुष्यों को जोड़ता हो, उनके चित्त को उदात्त बनाता हो, जो उनके कल के और आज के और कल के कर्तव्यों और विचार-भूमि को सींचता व पाटता हो? इसलिये तो सारे संसार में जितना रक्तपात धर्म की रक्षा के नाम से हुआ है, उतना साम्राज्यवादी या राजनीतिक कारणों से भी नहीं हुआ है। धर्म उस दिन से अधर्म में बदलने लगा जिस दिन से हमने उसे गिनने, तोलने, नापने, बेचने, बदलने की वस्तु बना दिया। समुद्र-मंथन में से जैसे अमृत निःसृत हुआ था वैसे ही मानवीय चेतना के मंथन में से धर्म निःसृत हो, तो वह धर्म है! हमारी गहन आस्था और चेतना की उदात्तता में से जो पैदा हो, वह धर्म; बाकी सारे कर्म-कलाप, अधर्म या धर्म पर पर्दा डालने के उपक्रम हैं।
फिर आया पश्चिमी ढंग का लोकतंत्र, जिसने संख्यासुर का बीज बोया! इसने आदमी की गुणात्मकता को खारिज कर दिया और संख्या को देवता बना दिया। दोष तब भी कम नहीं थे, जब गुणात्मकता को डंडा बना कर, सुविधाप्राप्त लोग आमजन को खारिज कर, भूलुंठित किए, अपनी ऐंठ में चलते थे! फिर जैसे-जैसे सामाजिक चेतना फैलने लगी, इस सुविधाप्राप्त वर्ग की विशिष्ट स्थिति पर चोट पड़ने लगी। तब इसी वर्ग ने एक नई चाल चली और संख्याबल का आधार सामने रखा! तबसे बंदों को तौलने का नहीं, गिनने का दर्शन मान्य हुआ; और कहीं अंधेरे में यह बात भी इसमें जोड़ दी गई कि गिनने की ये सारी कीमिया उसी विशिष्ट वर्ग के हाथ रहेगी, जिसके हाथ में समाज तब था जब गुणों के आधार पर उसका संचालन-नियमन होता था, क्योंकि ऐसे सारे गुणा-भाग की अक्ल तो इनके पास ही थी!
संख्या किसकी है यह गिनने का अधिकार और यह गिनने का तंत्र अपने हाथ में रखकर, इस वर्ग ने संख्यासुर का ऐसा दानव स्थापित कर दिया जिसने समझदारी व विवेक को नहीं, उन्माद को हथियार बना दिया! उसकी विषबेल सब दूर ऐसी फैली कि धर्म क्या है, क्यों है और कैसे है, मानव-समाज में इसकी भूमिका क्या है जैसी बातें निरर्थक होती गईं और यह गिनती ही अंतिम सत्य बन गई कि किस धार्मिक संकल्पना के पीछे कितने लोग हैं। लोग यानी भीड़, भीड़ यानी जिसके पास गिनने को सर होते हैं, नापने को विवेक नहीं होता; चलने वाले अनगिनत पाँव होते हैं, दिशा देखने वाली आँख नहीं होती! भीड़ की ताकत यही है कि उसमें कितने लोग हैं और उनका उन्माद कितना बड़ा है! धर्म हमारे विश्वास का निजी तत्व नहीं, एक ऐसा सार्वजनिक हथियार बना दिया गया, जिससे हर वह गर्दन काटी जाने लगी जो सर को थामने का काम करती है।
आजादी के बाद भले हमने गोली मार कर अपने गाँधी से मुक्ति पा ली लेकिन हमने अपना लोकतंत्र चलाने के लिये जिस संविधान को स्वीकार किया, गांधी वामनावतार में उस संविधान में प्रवेश कर गए। मालूम नहीं कि यह परकाया प्रवेश, उस वक्त के संविधान निर्माताओं ने देखा-पहचाना या नहीं! पहचाना होता तो शायद ऐसा मौका गाँधी को नहीं दिया होता, क्योंकि संविधान निर्माताओं में सबसे प्रखर जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा की संस्तुतियों को लिपिबद्ध करने वाले बाबा साहब आंबेडकर, दोनों ही दिग्गज गाँधी से बेहद सावधान रहने वालों में थे।
धर्म का सीधा मतलब होता है-वह जो धारण करता है! वह जो सम्भालता है; वह जो दशा समझता है और दिशा देता है! निजी स्तर पर धर्म वह है जो हमारा स्वभाव है- आग का धर्म है कि वह जलाती है, पानी का धर्म है कि वह गीला करता है, हवा का धर्म है कि वह बहती है, रोशनी का धर्म है कि वह अंधेरा काटती है। करुणा मनुष्य का धर्म है क्योंकि वह सहज स्वभाव से ही करुणा प्रेरित होता है! निजी स्तर पर यदि यह धर्म है तो धर्म का सामाजिक मतलब उस संकल्पना से प्रेषित होता है, जिसे समाज धारण करता है ताकि वह उसे धारण कर ले! यह कुछ वैसा है जैसे हम भारतीय संविधान के प्रारम्भ में ही कहते हैं कि हम भारत के लोग अपना संविधान बनाकर, इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। हर दौर का समाज अपने नियमन, संचालन व व्यवहार के लिये एक ऐसा साँचा या ढाँचा बनाता है जिसके भीतर वह समझता है कि उसका बसर हो सकता है कि जिसके भीतर उसके गुणों के विकास की पूर्ण संभावना है। वह उसके सारे यम-नियम तय करता है, जिसके बंधन में रहना उसे श्रेयस्कर लगता है। वह पुरस्कार व निषेध के वे सारे मानक बनाता है, जिससे बंध कर जीना उसे गुलामी की तरफ नहीं, उत्तरोत्तर विकसित होती स्वतंत्रता की तरफ ले जाता है।यह समझना जरा भी कठिन नहीं होना चाहिए कि सारे समाज को बाँधने वाली, सारे समाज को स्वीकार हो ऐसी संकल्पना का अवगाहन कोई विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति ही कर सकता है। इसलिये यह अकारण नहीं है कि हर धार्मिक संकल्पना का कोई-न-कोई विशिष्ट प्रज्ञावान जनक होता है- कहीं ईसा तो कहीं गौतम, कहीं मुहम्मद तो कहीं महावीर, कहीं जरथुष्ट्र! मतलब यह कि संसार के सारे धर्म अपने-अपने समय के समाज को सम्भालने के लिये मनुष्य ने खुद ही बनाए हैं! भगवान बेचारे की इसमें कोई भूमिका नहीं रही है लेकिन सारे धर्म टिके इसी मान्यता पर हैं कि इनका कोई-न-कोई दैवी आधार है! ऐसा इसलिये कि सामान्यतः मनुष्य मनुष्य की बनाई व्यवस्था में बंध कर हमेशा-हमेशा रहेगा, उसे इतना विवेकवान बनाने की मशक्कत हम करना नहीं चाहते हैं और वह इतना विवेकवान हो सकता है, इस पर हमारा विश्वास नहीं होता है। इसलिये मनुष्य के या कहें अपने बनाए हर धर्म को हम आधार ईश्वर का ही देते हैं- ईश्वर यानी मनुष्य द्वारा रची एक ऐसी संकल्पना जो मनुष्य से भी बड़ी व सामर्थ्यवान हो गई है।
इसलिये हर धर्म की जन्मकथा किसी दैवी घटना या अवतार या किताब या चमत्कार से जुड़ी होती है। यह समझना ज्यादा टेढ़ी खीर नहीं कि यदि धर्मों के रचने में सर्वशक्तिमान भगवान का हाथ होता तो वह इसके इतने-इतने संस्करण तो नहीं बनाता! उसने सारी दुनिया में इंसान तो एक ही तरह के बनाए- बाहर से भी और भीतर से भी! फिर उसे इतनी फुर्सत भला कैसे मिली, और जरूरत कैसे आन पड़ी कि उसने धर्मों के इतने संस्करण बनाए और वे भी ऐसे कि एक-दूसरे को काटते हों; और ऐसे काटते हों कि उसी आधार पर, उसके अनुयायी एक-दूसरे की गर्दन काटते हों? नहीं, संसार के सारे धर्म इंसानों ने अपने-अपने वक्त के समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिये बनाए हैं। और इसलिये इंसानों को पूरा हक है कि वे जब भी और जहाँ भी जरूरी समझें, धर्मों में फेर-बदल करें या कि एक सर्वथा ही नया धर्म सामने ला सकें!
धर्म और धार्मिकता का सवाल काफी उलझाता है कि इनके बीच के फर्क को कैसे देखें व समझें! शायद सबसे आसान होगा कि हम खुद से पूछें कि जब हम किसी के बारे में यह सुनते हैं कि वह सच्चा मुसलमान है, तो हमारे मन में क्या तस्वीर उभरती है? सच्चा मुसलमान है तो दाढ़ी रखता होगा, लुँगी या लम्बे पांयचे वाला पाजामा पहनता होगा, खतना करवाया होगा, सर पर दुप्पली टोपी रखता ही होगा, मस्जिद जाता होगा, पाँच वक्त की नमाज जरूर पढ़ता होगा, गो-माँस खाता होगा! कहीं भी चले जाएँ हम और किसी से भी पूछें तो एक सच्चे मुसलमान की परिकल्पना कुछ इधर-कुछ उधर करके ऐसी ही होगी। फिर हम खुद से पूछें कि जब हम किसी के बारे में यह सुनते हैं कि वह सच्चा हिंदू है, तो हमारे मन में क्या तस्वीर उभरती है? सच्चा हिंदू है तो तिलक लगाता ही होगा, जनेऊ धारण करता होगा, बिना पूजा-अर्चना के मुँह में जल भी नहीं लेता होगा, सुबह-शाम मंदिर जाता होगा, गो-ग्रास जरूर देता होगा, जाति-व्यवस्था मानता होगा, ऊँची आवाजमें हर-हर महादेव का घोष करता होगा! कहीं भी चले जाएँ हम और किसी से भी पूछें तो एक सच्चे हिंदू की परिकल्पना कुछ इधर-कुछ उधर कर के ऐसी ही होगी। ऐसा ही सारे धर्मों के बारे में सच है।
अब इसी परिकल्पना को एक दूसरे स्तर पर टटोलें हम! जब हम सुनते हैं कि फलां आदमी बड़ा धार्मिक है तो हमारे मन में क्या तस्वीर उभरती है? यह सुनते ही हम एक ऐसे आदमी की परिकल्पना करने लगते हैं जो दयालु और ईमानदार होगा, सबकी मदद करता होगा और सबको साथ लेकर चलता होगा, भूखे की भूख और प्यासे के पानी की चिंता करता होगा! वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए जे पीड पराई जाणे रे- जैसा कोई उदात्त भाव उभरता है मन में, जब हम किसी के धार्मिक होने की बात सुनते हैं। तब कपड़े, तिलक-टीका, जनेऊ-टोपी, लुँगी-धोती, नमाज-प्रार्थना सब जैसे संदर्भहीन होते जाते हैं और जो बचा रहता है वह एक खालिस मनुष्य होता है।
धर्म जब अपने सारे केंचुल उतार कर समाज के सामने खड़ा होता है तब धार्मिकता उभरती है। धर्म बाह्य व संदर्भहीन प्रतीकों में लिपट कर खो जाता है, धार्मिकता उन बाह्य प्रतीकों को काटने के बाद आकार लेती है।
धर्म जब आदमी की चमड़ी के भीतर उतरता है तब आदमी धार्मिक बनने लगता है। धर्म की जकड़बंदी जैसे-जैसे टूटने लगती है, धार्मिकता उभरने लगती है। संगठित धर्म के ठेकेदार सावधान रहते हैं कि आदमी धर्म के दायरे के बाहर न जाए, क्योंकि संगठित धर्मों के दायरे के बाहर निकलते ही वह आदमी बनने लगता है और आप ज्यों-ज्यों आदमी बनने लगते हैं, धर्म के काम के नहीं रह जाते हैं। जैसे ही धार्मिकता आपके केंद्र में बसने लगती है, संगठित धर्म आवाज लगाता हैः धर्म खतरे में है!
महात्मा गाँधी अपने विकास-क्रम में संगठित धर्मों से कई स्तरों पर रू-ब-रू हुए और बार-बार उन्हें धर्मों के ढूह-खंडहर पार करने पड़े, जमींदोज करने पड़े; और फिर-फिर मानवीय चेतना के नए आयाम खोजने व प्रतिष्ठित करने पड़े। वे जिस धर्म में पैदा हुए और जिसमें गहरी धँसी उनकी जड़ें उन्हें रससिक्त भी करती रहीं, उसकी अपूर्णताओं को जिस तरह उन्होंने पहचाना और जिस तरह उन्हें परिपूर्ण करने की अविरत कोशिश उन्होंने की, उसका आकलन आज तक किसी धर्मविद पर उधार है। अपने धर्म से ऐसी और इस तरह की लड़ाई दूसरे किसी ने लड़ी हो तो मालूम नहीं! अपने धर्मों में सुधार की लड़ाई लड़ने वाले और भी हैं, और उनकी लड़ाई के फलस्वरूप धर्मों की सर्वथा नई शाखाएँ भी फूटी हैं लेकिन उनमें से कोई भी धर्म की भूमिका को लेकर हमारे सामने वैसे गहरे सवाल खड़े नहीं कर सका, जैसे सवाल गाँधी ने खड़े किए।
गाँधी ने धर्मों का गहरा अध्ययन किया था, ऐसा कहना शास्त्रीय लोगों को नागवार गुजरेगा, क्योंकि विद्वत-समाज ने कभी गाँधी को अपने साथ बैठने की इजाजत नहीं दी। वे शास्त्राीय किस्म के बौद्धिक थे भी नहीं! जयप्रकाश नारायण ने एक बार बड़े खूबसूरत शब्दों में इस फर्क को पहचाना था। उन्होंने कहा कि महात्मा गाँधी हम युवा समाजवादियों-मार्क्सवादियों के बौद्धिक मन को उस तरह छूते नहीं थे, जिस तरह जवाहरलाल छूते थे! और ऐसा इसलिये था कि हम भी किताबों से निकले थे और जवाहरलाल भी! महात्मा गाँधी किताबों से पैदा नहीं हुए थे, किताबें उनसे पैदा होती थीं। वे इस हद तक मौलिक थे कि उनकी कही बातों, स्थापनाओं को समझने में मुझे वर्षों लगे हैं।
इस संदर्भ को समझें हम, तब हम यह भी समझेंगे कि धर्म-ग्रंथों से बाहर निकल कर, गाँधी ने धर्मों का गहरा अध्ययन किया था। वे कहते हैंः वेदों के संदर्भ में मैंने जान-बूझ कर अपौरुषेय या ईश्वरी विशेषण का प्रयोग नहीं किया। कारण, मैं ऐसा नहीं मानता कि सिर्फ वेद ही अपौरुषेय हैं- ईश्वरीय हैं, बाइबिल, कुरान तथा जेंद अवेस्ता के पीछे भी मैं उतनी ही ईश्वरीय प्रेरणा पाता हूँ। इसके अलावा, हिंदू धर्मग्रंथों में मेरा विश्वास मुझे यह नहीं कहता है कि उनके एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति को ईश्वरप्रेरित मानूँ। न मैं ऐसा ही कोई दावा करता हूँ कि मैंने इन अद्भुत ग्रंथों का मूलरूप में स्वयं अध्ययन किया है। लेकिन मेरा यह दावा जरूर है कि तत्वतः वे जो कुछ सिखाते हैं, उस सत्य को मैं जानता हूँ और उसका अनुभव करता हूँ। उनकी चाहे जितनी पांडित्यपूर्ण व्याख्या की जाए, अगर वह मेरे विवेक और नैतिक बुद्धि को नहीं रुचती है तो मैं ऐसी किसी भी व्याख्या का बंधन स्वीकार करने को तैयार नहीं हूँ।
अपने धर्म के अलावा गाँधी ने दो धर्मों को बहुत करीब से देखा और समझा। एक वह धर्म जिसके अनुयायियों के देश में वे छात्रा बनकर पहुँचे थे- ईसाई धर्म! बाइबिल उन्होंने खास तौर पर पढ़ी थी क्योंकि वे बाइबिल के देश में ही अपनी चेतना की आँखें खोल रहे थे। न्यू टेस्टामेंट और ईसा के ‘गिरी-प्रवचन’ का हिस्सा उनका खास प्रिय हुआ। वे प्रारम्भ से ही इतने सच्चे थे कि उनके सम्पर्क में आने वाला हर कोई उन्हें अपने साथ करना चाहता था और इसलिये उनके ईसाई मित्रों ने यह कोशिश की कि गाँधी ईसाई धर्म स्वीकार कर लें। इस्लाम के साथ भी उनका सफर लंबा चला और उनके मुसलमान सहयोगियों ने भी इसकी काफी कोशिश की कि गाँधी इस्लाम कबूल कर लें। ईसाई और इस्लाम के इन अनुयायियों की इन कोशिशों का गाँधीजी को पता नहीं चला, ऐसा नहीं था। वे धर्म परिवर्तन को राजी नहीं हुए, इसमें कोई खास बात नहीं थी।
खास बात इसमें थी कि वे इस नतीजे पर पहुँचे कि संसार के सारे ही धर्म अपूर्ण हैं क्योंकि सभी अपूर्ण इंसानों द्वारा रचे गए हैं। वे मानते हैं कि संसार का कोई भी धर्म कालातीत नहीं है और इसलिये उनकी मूल मान्यताओं की समीक्षा करने का आदमी को अधिकार है। वे बार-बार जोर देकर कहते हैं कि धर्म की कमियों-बुराइयों से आप धर्म बदलकर नहीं लड़ सकते, क्योंकि आप अपने जन्म-धर्म से निकल कर जिस धर्म में जाएँगे, वहाँ भी स्थितियाँ ऐसी ही मिलेंगी। वे बार-बार कहते हैं कि हमें अपने-अपने जन्म-धर्म को परिपूर्ण करने की ही कोशिश करते रहनी चाहिए, क्योंकि यह दूसरे धर्मावलंबियों को भी ऐसा प्रयास करने की प्रेरणा देता है। वे निजी विश्वासों के आधार पर धर्म परिवर्तन के अधिकार को स्वीकार करते हैं लेकिन उनकी आधारभूत मान्यता यह थी कि हमारी सावधान कोशिश यह होनी चाहिए कि सभी अपने धर्म के सच्चे अनुयायी बनें, हम इसमें मदद करें।
अपनी धर्म-यात्रा में गाँधी एक ऐसे मुकाम पर पहुँचे जहाँ उन्होंने कहाः ईश्वर ही सत्य है! लेकिन उसी यात्रा-क्रम में वे आगे इस नतीजे पर पहुँचे कि ऐसी मान्यता से तो सभी संगठित धर्मों को यह मौका मिल जाता है कि वे अपने-अपने ईश्वरों को, दूसरे के ईश्वरों से आमने-सामने कर दें और फिर वही पुराना मुकाबला जारी रहे! और फिर उनका सफर बढ़ता हुआ इस मुकाम पर पहुँचा कि वे कह उठे: सत्य ही ईश्वर है!
मन के स्तर पर एक क्रांति घट गई! गाँधी से पहले किसी भी धार्मिक अवतार ने, किसी भी समाज सुधारक ने, किसी भी पैगंबर या ऋषि ने ऐसा नहीं कहा था। यह ऐसा आर्षवचन था, जिसने एक झटके में वह घटित कर दिया जो मानवीय चेतना के उर्ध्वगामी विकास में अब तक कभी घटा नहीं था। गाँधी के इस अनुभूत सत्य ने सारे धर्मों की दीवारें गिरा दीं, धर्मोंपदेशकों को एक ऐसी चुनौती के सामने खड़ा कर दिया जिसमें दीवारें खड़ी करने की नहीं, दीवारें गिराने की खोज करनी थी। हर धर्म को मनुष्यों में विभाजन का नहीं, एकात्मकता पैदा करने का मार्ग खोजना है, गाँधीजी ने यह नई भूमिका हमारे सामने रखी। धर्म पीछे छूट गए, धार्मिकता अपनी पूरी प्रखरता के साथ उभर आई।
गाँधी मानवीय चेतना के इस बिन्दु तक हमें पहुँचा कर विदा हुए! तब वे ऐसी ही साधना का कर्म-पक्ष तलाश रहे थे और भारत के विभाजन की नैतिक व राजनीतिक भित्ती को ढहाने का तानाबाना बुनने में लगे थे। जिन लोगों ने विभाजन का आधार धर्म को बनाया था- मुहम्मद इकबाल से लेकर सावरकर, जिन्ना, गोलवलकर तक- उन सबको वे एक दूसरे धरातल पर ले जाने में लगे थे जहाँ धर्म नहीं, संस्कृति से राष्ट्र बनते हैं। इसलिये धर्मों को पीछे छोड़ते हुए, वे हमें एक नए दायित्व से जोड़ गए- सबमें धार्मिकता को प्रतिष्ठित करो; वही ऐसे धर्म की प्रस्थापना करेगी जो सार्वभौम होगा!
भारत इस अर्थ में नियति का चुना हुआ खास देश है कि यहाँ वह प्रयोग सम्भव है जिसकी संभावना गाँधी ने देखी और जिसे साबित करने की कोशिश की। यहाँ आज से नहीं, सदियों से वे सारे धर्म साथ रहते आए हैं जो दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक-दूसरे का अस्तित्व भी स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं। दुनिया के सारे जीवित धर्मों का एक-न-एक आराधक भारत की इस धरती पर कहीं-न-कहीं रहता है और हमारा संविधान व हमारी परंपरा, आस्था के उसके निजी अधिकार को स्वीकार भी करती है और उसकी रक्षा का आश्वासन भी देती है। ऐसा नहीं कि हम आपस में टकराते नहीं हैं, साथ रहने की इस कला में विफल नहीं होते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि अपनी हर विफलता और टकराव में से हम ज्यादा सयाने बन कर बाहर आए हैं।
आजादी के बाद भले हमने गोली मार कर अपने गाँधी से मुक्ति पा ली लेकिन हमने अपना लोकतंत्र चलाने के लिये जिस संविधान को स्वीकार किया, गांधी वामनावतार में उस संविधान में प्रवेश कर गए। मालूम नहीं कि यह परकाया प्रवेश, उस वक्त के संविधान निर्माताओं ने देखा-पहचाना या नहीं! पहचाना होता तो शायद ऐसा मौका गाँधी को नहीं दिया होता, क्योंकि संविधान निर्माताओं में सबसे प्रखर जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा की संस्तुतियों को लिपिबद्ध करने वाले बाबा साहब आंबेडकर, दोनों ही दिग्गज गाँधी से बेहद सावधान रहने वालों में थे। सरदार, मौलाना, राजेंद्र बाबू, राजाजी और ऐसी ही सारी विभूतियाँ गाँधी को महापुरुष तो मानती थीं लेकिन यह भी मानती थीं कि सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनसे कुछ दूरी बनाए रखने में ही अपनी खैर है! लेकिन गाँधी आम भारतीय की समझ-सोच में और भारत की आत्मा में इस कदर समा गए थे कि उन्हें अलग कर पाना किसी के बस का नहीं था। आज भी नहीं है।
संविधान स्वीकार करने के बाद से, उसके साथ चलते हुए आधी शताब्दी से अधिक का यह सफर हमें इतना सयाना बना गया है कि हम हिम्मत और हिकमत के साथ अपने समाज में एक नया प्रयोग करें, इस लम्बे सहधर्मी सामाजिक जीवन के बाद, महात्मा गाँधी को सामने रखकर। अब यहाँ से एक नए धर्म के उदय की यह बेला है। यह धर्म वह नहीं होगा जो हमारे निजी विश्वासों को संचालित करेगा बल्कि वह होगा जो हमारे सामूहिक जीवन की मर्यादाओं और संभावनाओं को उजागर करेगा।
हमारी नवीनतम संकल्पना का सबसे ताजा पुष्प है लोकतंत्र! यह वह नवीनतम धर्म-संकल्पना है जो भीड़ को जन का स्वरूप व संस्कार देती है। यह वह संकल्पना है जो बंदों को गिनती भी है और तौलती भी है।
यह वह धर्म है जो अपने अनुयायियों को एक नैतिक बंधन में बाँध कर, हर सम्भव छूट देता है- इस हद तक कि वे चाहें तो इसे खारिज कर, एक नया ही लोकतंत्र सामने ला खड़ा करें! इस धर्म के साथ चलने का संकल्प करने वाले समाजों में स्वतः ही यह अनुशासन बनता है: किसी भी जाति-धर्म-विश्वास-परम्परा-रीति-रिवाज की ध्वजा इतनी ऊपर नहीं जाएगी कि वह लोकतंत्र की ध्वजा से टकराए। जब भी ऐसी नौबत आएगी, लोकतंत्र की ध्वजा के सामने दूसरी सारी ध्वजाएँ झुकेंगी।
फिर निजी आस्थाओं-विश्वासों की जगह क्या होगी? निजी आस्थाओं-विश्वास की जगह निजता में ही होगी, क्योंकि वे वहीं संरक्षित हो सकती हैं। हम सबकी चौखट के भीतर हमारी निजी आस्थाएँ रहेंगी लेकिन जैसे ही आप अपनी चौखट लाँघते हैं, वैसे ही आप लोकतंत्र के बड़े धर्म-विश्वास के आँगन में प्रवेश करते हैं और तब आपकी दूसरी सारी ध्वजाएँ इतनी ही उठेंगी, जितनी उठने से किसी से, कहीं भी कोई टकराव न हो!
हम इस धर्म-देहरी पर खड़े हैं और समय-देवता इंतजार कर रहा है कि कब हम देहरी पार करते हैं। यह बौद्धिक कसरत तो है ही, एक गहन सांस्कृतिक यात्रा भी है, जिसमें गाँधी कंपास बन सकते हैं।
अज्ञान भी ज्ञान है (इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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