प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, सुखाड़ एवं ओलावृष्टि आदि कह कर नहीं आती हैं। लोग इससे बचने के लिए विभिन्न उपायों के साथ-साथ बीमा का भी सहारा लेते हैं। मानव एवं विभिन्न जीव-जंतुओं के साथ-साथ फसलों का भी बीमा होता है। हाल के वर्षों में फसल बीमा के प्रति जागरूकता आयी है। बड़ी संख्या में किसान अपनी फसलों का बीमा कराते हैं। इसमें झारखंड के किसान भी पीछे नहीं हैं। लेकिन, व्यवस्थागत खामियों की वजह से झारखंड के किसानों के लिए फसल बीमा एक धोखा साबित हुई है। पढ़िए उमेश यादव की रिपोर्ट :
झारखंड में फसल बीमा के लिए नोडल बैंक के तौर पर सहकारी बैंक काम करता है। सहकारी बैंक विभिन्न पैक्स यानी प्राथमिक कृषि साख सहयोग समिति और लैंपस यानी वृहदाकार बहुउद्देशीय सहकारी समिति के जरिये किसानों की फसलों का बीमा करता है। कम वर्षा को ध्यान में रख कर वर्ष 2012 में देवघर जिले के सभी 10 प्रखंडों से किसानों ने अपनी-अपनी फसल का बीमा कराया। बीमा कराने वाले किसानों की संख्या कम से कम एक लाख थी।
फसलों की बीमा कराने के बाद किसानों एवं कृषि वैज्ञानिक का अनुमान सही निकला। कम बारिश होने से फसल का उत्पादन अनुमान से काफी कम हुआ। लोगों को उम्मीद थी कि बीमा के जरिये इसकी भरपाई हो जायेगी। किसानों को क्षतिपूर्ति जरूर मिलेगी। लेकिन, खरीफ 2013 का सीजन समाप्त हो गया और अभी तक खरीफ 2012 में कराये गये फसल बीमा की क्षतिपूर्ति नहीं मिली है।
इस संबंध में बात करने पर देवघर के जिला सहकारिता पदाधिकारी राम कुमार ने बताया कि फसल बीमा में केंद्र सरकार एवं बीमा कंपनी एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया की हिस्सेदारी मिल गयी है। अब तक राज्य सरकार की हिस्सेदारी नहीं मिलने की वजह से बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान किसानों को नहीं किया गया है। जिला सहकारिता पदाधिकारी से बातचीत में ही इस बात का भी खुलासा हुआ कि वर्ष 2012 के फसल बीमा में देवघर जिले के सभी प्रखंडों के किसानों को लाभ नहीं मिलेगा। आखिर ऐसा क्यों?
इस बारे में जिला सहकारिता पदाधिकारी राम कुमार ने बताया कि झारखंड में बीमा की क्षतिपूर्ति का आकलन प्रखंड को इकाई मानकर किया जाता है। ऐसी स्थिति में देवघर के 10 में से तीन प्रखंड सारवां, देवीपुर एवं सारठ ही मानक पर खरा उतरे हैं और बीमा कंपनी क्षतिपूर्ति देने को तैयार हुई है। इस कारण जिले के एक लाख से अधिक किसानों में सिर्फ इन तीन प्रखंडों के 44114 किसानों को ही फसल बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान होगा। इसमें देवीपुर के 7969, सारठ के 18027 और सारवां के 18118 किसान शामिल हैं।
यह स्थिति सिर्फ देवघर जिले की है या बाकी जिलों में भी ऐसा ही हुआ है, इस बारे में डीसीओ श्री कुमार कहते हैं कि दूसरे जिलों में भी ऐसा हुआ है। झारखंड में 260 प्रखंड हैं। इसमें से अधिकतर प्रखंड बड़े-बड़े हैं और वहां पर पंचायतों की संख्या 25 से ज्यादा है। बारिश की स्थिति कभी-कभी ऐसी होती है कि एक ही प्रखंड के कुछ गांव में अच्छी बारिश होती है और कुछ में नहीं होती है। फिर प्रखंड को इकाई मान कर क्षतिपूर्ति का आकलन करना कितना वैज्ञानिक एवं किसान हित में है।
इस बारे में बीमा कंपनी के झारखंड राज्य प्रबंधक कहते हैं कि क्षतिपूर्ति का आकलन ग्राम पंचायत को इकाई मान कर भी किया जाता है। लेकिन, झारखंड में सरकार ने अब तक ग्राम पंचायतों को इकाई अधिसूचित नहीं किया है। इसके बाद भी बीमा कंपनी राज्य सरकार के रिपोर्ट पर ही भुगतान करती है। ऐसे में कम क्षतिपूर्ति का भुगतान या भुगतान नहीं होने के लिए बीमा कंपनी जिम्मेवार नहीं है।
इस बारे में झारखंड सहयोग समितियों के निबंधक केके सोन कहते हैं कि फसल बीमा में क्षतिपूर्ति भुगतान के लिए प्रखंड का इकाई होना उतना खराब नहीं है, जितना कि कागज पर रिपोर्टिंग। कागज पर रिपोर्टिंग का क्या मतलब है। इस बारे में श्री सोन साफ-साफ स्वीकार करते हैं कि फसल उत्पादन रिपोर्ट धरातल पर वास्तविक प्रयोग के आधार पर नहीं होता है। उनके मुताबिक यदि रिपोर्ट धरातल पर वास्तविक प्रयोग के आधार पर बने तो किसानों के साथ कोई नाइंसाफी नहीं होगी।
इस बारे में श्री सोन समझाते हैं कि फसल बीमा में क्षतिपूर्ति आकलन का आधार फसल कटनी प्रयोग है। हर साल दिसंबर महीने में फसल कटनी प्रयोग सभी प्रखंडों में होता है। यह काम प्रखंड स्तर पर सांख्यिकी एवं राजस्व विभाग के पदाधिकारी एवं कर्मचारी करते हैं। इसके लिए प्रखंड के कुछ गांव का चयन किया जाता है। चिह्नित गांव के चिह्नित प्लॉट पर फसल की कटाई के बाद प्रति एकड़ उत्पादन रिपोर्ट तैयार किया जाता है। रिपोर्ट में फसल उत्पादन पिछले तीन साल के औसत का 60 प्रतिशत से कम होने पर ही फसल बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान होता है अन्यथा भुगतान नहीं होता है।
फसल बीमा में क्षतिपूर्ति भुगतान के लिए सरकार ग्राम पंचायतों को इकाई क्यों नहीं मानती है। इस पर निबंधक श्री सोन कहते हैं कि झारखंड में प्रखंड इकाई जरूर है। लेकिन, आकलन प्रखंड के 15 गांव के फसल कटनी प्रयोग के आधार पर किया जाना है। उनके मुताबिक यदि किसी प्रखंड के 15 ग्राम पंचायत में फसल कटनी प्रयोग हो तो सही आंकड़ा प्राप्त किया जा सकता है। फिर भी सरकार ने ग्राम पंचायतों को इकाई मानने की दिशा में काम शुरू कर दिया है।
संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के तहत रांची सहित आठ जिलों में ट्रायल चल रहा है। जल्द ही इसे सभी जिलों में लागू किया जायेगा। इसके साथ ही सरकार वर्षापात का आकलन भी प्रखंड से न करके ग्राम पंचायत से करेगी। इसके लिए सभी ग्राम पंचायतों में वर्षामापक यंत्र लगाने का प्रस्ताव है। जल्द ही इन योजनाओं को अमल में लाया जायेगा। एक साल बाद भी राज्य सरकार ने फसल बीमा में अपनी हिस्सेदारी क्यों नहीं दी है।
इस बारे में निबंधक श्री सोन कहते हैं कि राज्य सरकार ने सभी जिलों से उन किसानों की सूची मांगी थी जिन्होंने फसल बीमा कराया है, लेकिन अभी तक जिलों से रिपोर्ट नहीं आयी है। उनके मुताबिक राज्य सरकार को पहले यह तो पता चले कि किन-किन किसानों ने फसल बीमा कराया है और कितना कराया है। निबंधक श्री सोन कहते हैं कि गलत भुगतान से अच्छा है कि देर से भुगतान हो जाये।
इस तरह डेढ़ साल बाद भी फसल बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान नहीं होना, प्रखंड को इकाई मानकर क्षतिपूर्ति का आकलन करना और बैंक की गड़बिड़यों से सुखाड़ जैसी आपदा से निबटने के लिए किया जाने वाला फसल बीमा किसानों के लिए धोखा है।
झारखंड में फसल बीमा के लिए नोडल बैंक के तौर पर सहकारी बैंक काम करता है। सहकारी बैंक विभिन्न पैक्स यानी प्राथमिक कृषि साख सहयोग समिति और लैंपस यानी वृहदाकार बहुउद्देशीय सहकारी समिति के जरिये किसानों की फसलों का बीमा करता है। कम वर्षा को ध्यान में रख कर वर्ष 2012 में देवघर जिले के सभी 10 प्रखंडों से किसानों ने अपनी-अपनी फसल का बीमा कराया। बीमा कराने वाले किसानों की संख्या कम से कम एक लाख थी।
फसलों की बीमा कराने के बाद किसानों एवं कृषि वैज्ञानिक का अनुमान सही निकला। कम बारिश होने से फसल का उत्पादन अनुमान से काफी कम हुआ। लोगों को उम्मीद थी कि बीमा के जरिये इसकी भरपाई हो जायेगी। किसानों को क्षतिपूर्ति जरूर मिलेगी। लेकिन, खरीफ 2013 का सीजन समाप्त हो गया और अभी तक खरीफ 2012 में कराये गये फसल बीमा की क्षतिपूर्ति नहीं मिली है।
इस संबंध में बात करने पर देवघर के जिला सहकारिता पदाधिकारी राम कुमार ने बताया कि फसल बीमा में केंद्र सरकार एवं बीमा कंपनी एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया की हिस्सेदारी मिल गयी है। अब तक राज्य सरकार की हिस्सेदारी नहीं मिलने की वजह से बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान किसानों को नहीं किया गया है। जिला सहकारिता पदाधिकारी से बातचीत में ही इस बात का भी खुलासा हुआ कि वर्ष 2012 के फसल बीमा में देवघर जिले के सभी प्रखंडों के किसानों को लाभ नहीं मिलेगा। आखिर ऐसा क्यों?
इस बारे में जिला सहकारिता पदाधिकारी राम कुमार ने बताया कि झारखंड में बीमा की क्षतिपूर्ति का आकलन प्रखंड को इकाई मानकर किया जाता है। ऐसी स्थिति में देवघर के 10 में से तीन प्रखंड सारवां, देवीपुर एवं सारठ ही मानक पर खरा उतरे हैं और बीमा कंपनी क्षतिपूर्ति देने को तैयार हुई है। इस कारण जिले के एक लाख से अधिक किसानों में सिर्फ इन तीन प्रखंडों के 44114 किसानों को ही फसल बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान होगा। इसमें देवीपुर के 7969, सारठ के 18027 और सारवां के 18118 किसान शामिल हैं।
यह स्थिति सिर्फ देवघर जिले की है या बाकी जिलों में भी ऐसा ही हुआ है, इस बारे में डीसीओ श्री कुमार कहते हैं कि दूसरे जिलों में भी ऐसा हुआ है। झारखंड में 260 प्रखंड हैं। इसमें से अधिकतर प्रखंड बड़े-बड़े हैं और वहां पर पंचायतों की संख्या 25 से ज्यादा है। बारिश की स्थिति कभी-कभी ऐसी होती है कि एक ही प्रखंड के कुछ गांव में अच्छी बारिश होती है और कुछ में नहीं होती है। फिर प्रखंड को इकाई मान कर क्षतिपूर्ति का आकलन करना कितना वैज्ञानिक एवं किसान हित में है।
इस बारे में बीमा कंपनी के झारखंड राज्य प्रबंधक कहते हैं कि क्षतिपूर्ति का आकलन ग्राम पंचायत को इकाई मान कर भी किया जाता है। लेकिन, झारखंड में सरकार ने अब तक ग्राम पंचायतों को इकाई अधिसूचित नहीं किया है। इसके बाद भी बीमा कंपनी राज्य सरकार के रिपोर्ट पर ही भुगतान करती है। ऐसे में कम क्षतिपूर्ति का भुगतान या भुगतान नहीं होने के लिए बीमा कंपनी जिम्मेवार नहीं है।
इस बारे में झारखंड सहयोग समितियों के निबंधक केके सोन कहते हैं कि फसल बीमा में क्षतिपूर्ति भुगतान के लिए प्रखंड का इकाई होना उतना खराब नहीं है, जितना कि कागज पर रिपोर्टिंग। कागज पर रिपोर्टिंग का क्या मतलब है। इस बारे में श्री सोन साफ-साफ स्वीकार करते हैं कि फसल उत्पादन रिपोर्ट धरातल पर वास्तविक प्रयोग के आधार पर नहीं होता है। उनके मुताबिक यदि रिपोर्ट धरातल पर वास्तविक प्रयोग के आधार पर बने तो किसानों के साथ कोई नाइंसाफी नहीं होगी।
इस बारे में श्री सोन समझाते हैं कि फसल बीमा में क्षतिपूर्ति आकलन का आधार फसल कटनी प्रयोग है। हर साल दिसंबर महीने में फसल कटनी प्रयोग सभी प्रखंडों में होता है। यह काम प्रखंड स्तर पर सांख्यिकी एवं राजस्व विभाग के पदाधिकारी एवं कर्मचारी करते हैं। इसके लिए प्रखंड के कुछ गांव का चयन किया जाता है। चिह्नित गांव के चिह्नित प्लॉट पर फसल की कटाई के बाद प्रति एकड़ उत्पादन रिपोर्ट तैयार किया जाता है। रिपोर्ट में फसल उत्पादन पिछले तीन साल के औसत का 60 प्रतिशत से कम होने पर ही फसल बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान होता है अन्यथा भुगतान नहीं होता है।
फसल बीमा में क्षतिपूर्ति भुगतान के लिए सरकार ग्राम पंचायतों को इकाई क्यों नहीं मानती है। इस पर निबंधक श्री सोन कहते हैं कि झारखंड में प्रखंड इकाई जरूर है। लेकिन, आकलन प्रखंड के 15 गांव के फसल कटनी प्रयोग के आधार पर किया जाना है। उनके मुताबिक यदि किसी प्रखंड के 15 ग्राम पंचायत में फसल कटनी प्रयोग हो तो सही आंकड़ा प्राप्त किया जा सकता है। फिर भी सरकार ने ग्राम पंचायतों को इकाई मानने की दिशा में काम शुरू कर दिया है।
संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के तहत रांची सहित आठ जिलों में ट्रायल चल रहा है। जल्द ही इसे सभी जिलों में लागू किया जायेगा। इसके साथ ही सरकार वर्षापात का आकलन भी प्रखंड से न करके ग्राम पंचायत से करेगी। इसके लिए सभी ग्राम पंचायतों में वर्षामापक यंत्र लगाने का प्रस्ताव है। जल्द ही इन योजनाओं को अमल में लाया जायेगा। एक साल बाद भी राज्य सरकार ने फसल बीमा में अपनी हिस्सेदारी क्यों नहीं दी है।
इस बारे में निबंधक श्री सोन कहते हैं कि राज्य सरकार ने सभी जिलों से उन किसानों की सूची मांगी थी जिन्होंने फसल बीमा कराया है, लेकिन अभी तक जिलों से रिपोर्ट नहीं आयी है। उनके मुताबिक राज्य सरकार को पहले यह तो पता चले कि किन-किन किसानों ने फसल बीमा कराया है और कितना कराया है। निबंधक श्री सोन कहते हैं कि गलत भुगतान से अच्छा है कि देर से भुगतान हो जाये।
इस तरह डेढ़ साल बाद भी फसल बीमा की क्षतिपूर्ति का भुगतान नहीं होना, प्रखंड को इकाई मानकर क्षतिपूर्ति का आकलन करना और बैंक की गड़बिड़यों से सुखाड़ जैसी आपदा से निबटने के लिए किया जाने वाला फसल बीमा किसानों के लिए धोखा है।
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