पिछले अंक में हमने नदियों की निर्मलता पर बात की और यह समझने की कोशिश की कि नदियों की निर्मलता क्यों जरूरी है? साथ ही हमनें औद्योगिक प्रदूषण, बढ़ते शहरीकरण और शहरी अपशिष्ट निदान के नदी पर दुष्प्रभाव और कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के नदी पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बात की। आइए इस अंक में यह समझने की कोशिश करते हैं कि नदियों की निर्मल धारा कैसी होती है? किन कसौटियों पर परखने के बाद यह तय किया जाता है कि कोई नदी निर्मल है या नहीं? जैविक कारकों का नदी की निर्मलता से क्या संबन्ध है? क्या हम अपनी साधारण दृष्टि से नदी की निर्मलता को पहचान सकते हैं और नदियाँ निर्मल बने, निर्मल बहे इसमें कोई भूमिका निभा सकते है? आइए कोशिश करते है. इस अंक में इन जिज्ञासाओं को शांत करने की।
नदियाँ प्रकृति द्वारा मनुष्य को दिया हुआ ऐसा क्रेडिट कार्ड है जिससे मनुष्य अनगिनत फायदे लेता है और इन फायदों को लेने के बाद नदी से ली गई सौगातों को जिम्मेदारीपूर्वक लौटाने की बजाय डिफॉल्टर की श्रेणी में आकर खड़ा हो जाता है। लिहाजा एक दिन नदी की हालत भी किसी दिवालिया बैंक की तरह हो जाती है, जिसके संसाधन समाप्त हो चुके हैं। हमारी कई नदियाँ इस कगार पर पहुंच चुकी हैं और कुछ पहुंचने के करीब है। नदी के संसाधनों और नदी की निर्मलता में गहन संबंध है। अगर नदी की निर्मलता पर संकट आता है तो संसाधन भी खतरे में पड़ जाते हैं और अगर नदी के संसाधनों का अत्याधिक दोहन हो जाता है तब उसकी निर्मलता पर भी दुष्प्रभाव पड़ने लगते हैं।
नदी की निर्मलता एक पेचीदा विषय है, जिसे समझाने के लिए सैकड़ों पहलूओं और कारकों को समझाना पड़ता है। हम किसी अस्वच्छ स्थान को वहां का कचरा निकाल कर स्वच्छ बना सकते हैं। अस्वच्छ और अस्वस्थ बाग- बगीचों से खरपतवार और कचरा हटाकर नए पौधे लगाकर उक्त बाग को स्वच्छ कर सकते हैं लेकिन नदी की निर्मलता उपरोक्त उदाहरणों से कहीं अधिक जटिल है। यह एक निरंतर चलायमान जैविक: पारितंत्र है, जिसमें बागों की तरह वानस्पतिक संतुलन, परा की तरह जैवीय संतुलन, किसी प्राणी के शरीर की तरह सूक्ष्मजीवी संतुलन और एक समुदाय की तरह आपसी सामंजस्य रूपी भीतरी संतुलन स्थापित करना जरूरी है, वो भी जल की पर्याप्त मात्रा और जल के प्रवाह के साथ जिसके लिए नदी की मुख्यधारा, सहायक वाराओं और बेसिन के मध्य साझेदारीपूर्ण संबंधों में संतुलन जरूरी है।
नदी की निर्मलता को वैसे तो कई कारक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं जिनमें से सबसे अधिक चर्चा औद्योगिक प्रदूषण, सीवरेज, कृषि में इस्तेमाल किये जाने वाले कीटनाशक और रासायनिक उर्वरकों की होती है। नदियों में प्रदूषण और अस्वच्छता फैलाने वाले इन कारकों को नियंत्रित करने के लिए कानून और प्रशासन अपने-अपने स्तर पर लगातार कोशिश कर रहा है।
नदी में जलकुंभी की मौजूदगी
नदी के भीतर यदि जलकुंभी मौजूद है तो यह खतरे का संकेत हो सकती है, जिस पर निगरानी रखना और समय-समय पर छंटाई करना जरूरी है। गौरतलब है कि नदी के भीतर जलकुंभी खतरे का संकेत है, नदी के बाहर, नदी के किनारों के नजदीक कई बार जल जमाव हो जाता है और वहां जलकुंभी उगना सामान्य है।
स्वच्छ बेसिन, निर्मल नदी
जिस तरह किसी घर का आगन देखकर हम घर की स्वच्छता के बारे में अनुमान लगा सकते हैं ठीक वैसे ही किसी नदी का बेसिन और कैचमेंट एरिया देखकर हम नदी की निर्मलता के बारे में जान सकते है। विशाल नदियाँ कई शहरों और राज्यों से होकर गुजरती है, अगर इन शहरों में ठोस कचरे का प्रबंधन अपशिष्ट जल का प्रबंधन, औद्योगिक विकास का प्रबंधन सही है तो मोटे तौर पर माना जा सकता है कि नदी निर्मल होगी। यही बात ग्रामीण क्षेत्रों पर भी लागू होती है लेकिन नदी की निर्मलता के लिए सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं है और भी कारक है जो नदी की निर्मलता को प्रभावित करते हैं
जल निकासी प्रबंधन
बारिश के समय शहरी क्षेत्र से जल निकासी की व्यवस्था कैसी है? आमतौर पर शहरी करवाई और ग्रामीण नाले वर्षा के जल को किसी छोटी या बड़ी नदी तक ले जाते है ये नाले नदीतंत्र के महत्वपूर्ण सदस्य होते हैं बशर्ते ये नाले, नाले ही रहे, गंदे नालों में तब्दील ना हो जाए जब शहर की सीवरेज व्यवस्था सुचारू नहीं होती तब सीवेज का पानी नालों में मिल जाता है और नाले गंदे नाले बनते है। कहीं सीवरेज कहीं औद्योगिक निकास तो कहीं किसी अन्य किस्म का प्रदूषण लाकर ये नदी में समाहित कर देते हैं।
चित्र 1: कैसे काम करते है आर्द्र भूमि
नदी की जैव विविधता
नदी के भीतर मूल रूप से पाई जाने वाली जलीय जीवों की प्रजातियां यदि नदी में मौजूद हैं, उनका भोजन, आवास और प्रजनन सुधारू रूप से चल रहा है तो मोटे तौर पर माना जा सकता है कि नदी की धारा निर्मल है। इसके अतिरिक्त भी कुछ कारण है जो नदियों की निर्मलता में बाधक है।वेटलैंड्स का घटना नदी के विपरितंत्र में मानवीय हस्तक्षेप की वजह से असंतुलन बनना, नदी के जल का अत्याधिक दोहन, नदी की अविरलता में बाधा और सहायक धाराओं का प्रदूषण भी नदियों की निर्मलता में बाधा डालता है।
सबसे पहले बात करते हैं वेटलैंड्स यानी आद्रभूमि के बारे में वेटलैंड्स एक स्पंज की तरह काम करते है जो पानी की बहुलता के समय पानी को सोख लेते है और शुष्क मौसम में धीरे धीरे इस पानी को उत्सर्जित करते है। इस प्रक्रिया में वेटलैंड्स एक फिल्टर की भूमिका भी निभा लेते हैं, वे कई प्रदूषकों को नदियों में मिलने से रोक लेते हैं। भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक नदियों के वेटलैंड्स के क्षेत्रफल में कमी दर्ज की गई है। किसी भी इलाके में वेटलैंड की भूमिका उस इलाके की किडनी की तरह होती है। इन्हें किडनी ऑफ लैंडस्केप भी कहा जाता है क्योंकि ये मानवजनित और प्राकृतिक हानिकारक तत्वों को जलीय परितंत्र में जाने से रोक देते है। एक रिपोर्ट के मुताबिक हमारी दुनिया ने जंगलों से भी ज्यादा तेजी से वेटलैंड्स का खात्मा हुआ है, जो पूरी दुनिया के पर्यावरण में आ रहे बदलावों का बड़ा कारण हैं।
कैसे काम करते हैं
इसजब वर्षा का पानी नदी के जल ग्रहण क्षेत्र से बहते हुए वेटलैंड्स तक पहुंचता हैं तो वेटलैंड्स के पीछे झाडियां और जन्य वनस्पतियां इस पानी के बहाव की गति को कम कर देती है जो गाद, मृदा, ठोस अपशिष्ट और रसायन बारिश के पानी में घुलकर नदी की ओर बढ़ रहे थे, वेटलैंड्स तक पहुंचने के बाद उनकी गति कम हो जाती है, गाद और मिट्टी वेटलैंडस की तली में जमने लगते हैं रासायनिक उर्वरकों में फॉस्फेट और नाइट्रेट्स के रूप में मौजूद फॉस्फोरस और नाईट्रोजन को वेटलैंड्स के पौधे और झाडियां सोख लेते हैं (चित्र 1) |
क्या होते हैं वैटलेंड्स
वेटलैंडस को आम भाषा में दलदल, कच्छभूमि, पंक या धसान भी कहा जाता है। ये नदी या समुद्र के पास वह भूमि होती है, जिसमें घास, छोटी झाडियों से लेकर वृक्ष तक पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में जलजमाव हो सकता है, कही कही वेटलैंड्स में छोटी झील या मौसमी तालाब भी पाए जाते हैं। समुद्र और नदियों दोनों के करीब वेटलैंड्स पाए जाते हैं। यहां हम नदियों के वेटलैंड्स पर विमर्श करेंगे। नदियों के वेटलैंड्स किस तेजी से घंटे है इसका अनुमान हम एक उदाहरण से लगा सकते हैं काश्मीर से बहने वाली झेलम नदी के बेसिन अने वाले 20 वेटलैंड्स शहरीकरण को चलते खत्म हो चुके हैं। जिसके बारे में कई रिपोर्ट्स सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं। कई नदियों के वेटलैंड्स की पहचान और दस्तावेजीकरण होता उसके पहले ही वेटलैंड्स की भूमि को कृषि, रहवासी या व्यवसायिक भूमि में तब्दील कर दिया गया।
नदी के जीव और निर्मलता में संबंध
नदीं के जीव-जंतुओं और निर्मलता में साझेदारों की तरह संबंध होते हैं। यदि नदी निर्मल होगी। तभी बहुत से जलीय जंतु नदी में रह सकेंगे इसी तरह यदि नदी में जीव-जंतु होंगे तभी वह निर्मल रह सकेगी। पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी नदी की खाद्य श्रृंखला में उसके तृतीयक उपभोक्ता की स्थिति देखकर नदी की निर्मलता और नदी के स्वास्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है। अधिकांश विशाल नदियों की भोजन श्रृंखला में तृतीयक उपभोक्ता मगरमच्छ होते हैं।
दरअसल, नदी में मगरमच्छ की मौजूदगी नदी के अंदरूनी पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन स्थापित करती है। मगरमच्छ मछलियों की जनसंख्या को नियंत्रित रखता है यह सिर्फ मछलियों का शिकार नहीं करता बल्कि प्राकृतिक कारणों से मृत हुए जीव जंतुओ के अवशेषों का भी भक्षण करता है और नदी की स्वच्छता को कायम रखने में अपनी भूमिका निभाता है। एक तरह से यह जीव नदी के लिए प्रकृति का बनाया हुआ अपशिष्ट निदान सयंत्र है। मत्स्य उद्योग के लिए महत्वपूर्ण मछलियों का शिकार करने वाली कैटफिश भी मगरमच्छ का भोजन बनती है इस तरह मछलियों की विभिन्न प्रजातियों के मध्य संतुलन स्थापित करने में भी मगरमच्छ की अहम भूमिका होती है।
इसी तरह कछुआ भी नदी की अदरूनी पारिस्थितिकी की महत्त्वपूर्ण कई है। कछुओं से इंसान को कोई खतरा नहीं है लेकिन कछुओं को जरूर इंसान ने खतरे में डाला है। कछुओं से प्राप्त होने वाला जैविक उत्पादों की उंची कीमतों के चलते इनका शिकार हुआ और कई अन्य कारणों से कछुओं के प्राकृतिक आवास भी खत्म हुए है। गंगा में पाए जाने वाली गंगा डॉल्फिन की जनसंख्या का कम होना भी ऐसा ही एक उदाहरण है।
यही नहीं भारत में गोल्डन महसीर (सुनहरी महसीर) का लुप्तप्राय प्रजातियों की गिनती में आ जाना भी इसी असंतुलन का एक उदाहरण हैं। सुनहरी महसोर की नदियों का सिंह माना जाता है। जंगल के शेर की तरह नदी का यह शेर भी आज लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल हो चुका है। किसी समय गंगा समेत उत्तराखड की नदियों में सुनहरी महसीर प्रमुखता से पाई जाती थी. दरअसल यह खूबसूरत मछली साल में एक बार बड़ी नदी से छोटी नदी की और प्रवास पर जाती है कई नदियों को अपना आशियाना बनाती थी। आज यह मछलियां भी लुप्त हो रही है।
जब नहीं होगा फिल्टर
जब वेटलैंड्स रूपी फिल्टर नदी के पास नहीं होगा तो नदियों में गाद अधिक मात्रा में पहुंचेगी, मिट्टी का कटाव होगा और नाईट्रोजन और फॉस्फोरस के अधिक मात्रा में नदी में पहुंचने से नदी में शैवाल (एल्गी) और अन्य जलीय पौधों की तादाद बढ़ जाएगी। नाइट्रोजन की बहुलता में उनकी वृद्धि भी तेज हो जाती है, जो अंत: नदी के लिए घातक साबित होती है। ऐसे भी उदाहरण देखने को मिले हैं जहां जलकुंभी शैवाल समेत अन्य वनस्पतियाँ नदी की समूची सतह पर फैल गई और निचली सतह के लिए ब्लैक आउट की स्थिति पैदा कर दीं। नदी की सतह पूर्ण रूप से ढक जाने की वजह से सतह के नीचे सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच सका, जिससे कि अन्य जलीय जीवों के समक्ष संकट खड़ा हो गया और नदी का जलस्तर भी कम हो गया। इस तरह की स्थिति बनने पर नदी के पानी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। नदी का पारिस्थितिकी और रसायनिक संतुलन बिगड़ जाता है। नदियों में जलकुंभी का जनाव इस परिघटना का सबसे सामान्य उदाहरण है. मध्यम लंबाई की कई नदियां जलकुंभी जमाव की वजह से सूख जाती है, नब्बे के दशक में मध्यप्रदेश की क्षिप्रा नदी के कई हिस्से जलकुंभी जमाव की वजह से पूरी तरह सूख गए थे, जिसके कारण नदी के इन भागों में जलीय परितंत्र लगभग समाप्त हो गया था।
क्यों खत्म हुए वेटलैंड्स
ताजे पानी के वेटलैंड्स को कई जगहों पर कृषि भूमि में तब्दील किया गया, कई वेटलैंड्स बांधो से भी प्रभावित हुए। वेटलैंडस का क्षेत्रफल घटने का सबसे बड़ा कारण वेटलैंड्स की जमीन पर खेती रहवासी सुविधाओं का निर्माण था। आज जब नदी परितत्र और अन्य परितंत्र में वेटलैंड्स की भूमिका स्पष्ट हो गई है भारत में कई जगहों पर कृत्रिम वेटलैंड्स भी विकसित किये जा रहे हैं। जो कि शहरी अपशिष्ट को बड़े शहरों से गुजरने वाली छोटी और बड़ी नदियों में मिलने से रोकने वाले फिल्टर का काम कर रहे हैं। जल संवेदनशील शहरी परियोजनाओं में अब वेटलैंड्स को तवज्जो दिया जाना शुरू हो रहा है लेकिन यह अभी सिर्फ शुरूआत है, इस दिशा में और काम होना बाकी है। अभी भी कई नदियों के वेटलैंड्स की पहचान और उनके दस्तावेजीकरण का काम बाकी है।
जलीय जीवों का शिकार
जंगली जानवरों की तर्ज पर ही नदियों के विशाल जानवर भी मानव की लिप्सा के शिकार हुए है। अपने शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए इंसान ने जहां जंगल से जंगल के राजा शेर का खात्मा किया, वहीं नदियों से नदी के क मगरमच्छ का भी सफाया किया शेर और मगरमच्छ दोनों ही इंसान के लिए घातक हैं. लेकिन अपने-अपने परितंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। चूंकि मानव जल और जंगल दोनों पर ही अपना एकाधिकार जमाना चाहता है इसलिए दोनों ही जगह से यहां के तृतीयक उपभोक्ताओं को हटाकर मानव ने अपना आधिपत्य स्थापित करने की कोशिश की।
भारत में मगरमच्छों का शिकार दो कारणों से हुआ पहला कारण था मगरमच्छ से मनुष्य जीवन को संभावित खतरा दूसरा था, व्यवसायिक हित मगरमच्छ के शरीर का इस्तेमाल कुछ खास किस्म की दवाओं में किये जाने की मान्यता ने इस जीव के शिकार को बढ़ावा दिया। हालांकि वर्तमान में इसका शिकार प्रतिबंधित है। इन सब कारण के चलते 1970 के दशक में गंगा में मगर की संख्या घटकर बहुत कम रह गई थी। कई प्रयासों के बाद आज गंगा और इसकी सहायक नदियों में मगरमच्छो की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। गंगा और उसके मगरमच्छ दोनों का अस्तित्व आज कायम है। लेकिन कई नदियां जो अब मृतप्राय हो चुकी है, उन नदियों से सबसे पहले उनके रक्षक कहे जाने वाले मगरमच्छ का सफाया हुआ । लोककथाओं और इतिहास में इन जीवों की उक्त नदियों में मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं लोककथा ही क्यों आज भी हमारे गाँवों और शहरों में पुरानी पीढ़ी के कुछ लोग बचे हैं, जिन्होंने उन छोटी नदियों में मगरमच्छ को देखा है वही नदियां जो आज गंदे पानी के नाले, ठहरी हुई झील, छोटे से ताल या मौसमी नदी में बदल चुकी है मध्यभारत के कुछ ग्रामीण इलाकों के नाम ही उक्त इलाके में मगर की मौजूदगी की वजह से रखे गए थे जैसे मगरखेडी, नगरमुआ। आज इन इलाकों में ना नदी है, ना मगरमच्छ।
धर्म भी यही कहता है
हमारे धार्मिक आख्यानों में नदियों का वाहन मगरमच्छ को बताया जाता है। गंगा और नर्मदा नदी की प्रतिमाओं और चित्रों में उन्हें देवी स्वरूपा चित्रित कर मगर पर आसीन किया गया है। इसके पीछे इस जीव के महत्व का संकेत और उसके संरक्षण का संदेश है। इतना ही नहीं गीता के दरायें अध्याय में विभूती योग के बारे में बात करते हुए भगवान ने मगरमच्छ को स्वयं का रूप बताया है। दसवें अध्याय के 31 से श्लोक में श्रीकृष्ण कहते है
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभतामहम् । झषाणां मकरामि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।
समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु शस्त्रधारियों में राम मछलियों में नगर तथा नदियों में मैं गंगा हूँ। समयतया यहां मछलियों का तात्पर्य जलीय जीवों से है। सुनहरी महसीर मछली को हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की कुछ पहाड़ी जनजातियों में ईश्वर का अवतार माना जाता है।
कैसे बनेगा संतुलन
नदियों को प्राकृतिक रूप से निर्मल बनाने के लिए कई स्तरों पर काम करना होगा, बाहरी प्रदूषक नदी में शामिल ना हो इसके लिए प्रशासन को सख्ती अपनानी होगी नदियों के संरक्षण के लिए जो नियम कानून हैं, उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा। भीतरी संतुलन को स्थापित करने के लिए सतत अवलोकन, प्रशिक्षण, हितधारकों की जागरूकता और सक्रियता को गति देनी होगी नदियों और समूचे जलतंत्र के प्रति नागरिकों की समझ को विकसित करना इस दिशा में काम करने का पहला कदम है।
नदी के समीप बसे रहवासी और खतरनाक उमराचर पशु जैसे मगरमच्छ, कम खतरनाक किंतु व्यावसायिक रूप से लाभप्रद पशु जैसे कछुए, घडियाल, जलीय जीव जैसे महसीर और अन्य मछलियों के साथ मानव संबंधों को सकारात्मक रूप से विकसित करने की और ध्यान देना होगा। हालांकि मानव और जलीय जीवों के अंतरसंबंधों को बेहतरी की ओर ले जाने की कोई तकनीक या कोई फार्मूला अब तक विकसित नहीं हो पाया है लेकिन छोटे-छोटे प्रयास जारी हैं। प्रकृति विज्ञानी और लोकविज्ञानियों की मानें तो कोई भी पशु मनुष्य के लिए आक्रामक तब होता है जब उसका प्राकृतिक आवास और प्राकृतिक भोजन उसे उपलब्ध ना हो। विज्ञान, लोकविज्ञान और धार्मिक ज्ञान का समन्वय इस संतुलन को स्थापित करने में मददगार हो सकता है।
नदी की निर्मलता और नागरिक भूमिका
नदी की निर्मलता को बढ़ाने बनाने और सहेजने में आम नागरिक क्या भूमिका निभा सकता है? नदी की निर्मलता के परिपेक्ष्य में सबसे पहले नागरिकों की जागरूकता को बढ़ाना आवश्यक है। आमतौर पर हम नदी की निर्मलता को पेयजल से जोड़कर देखते है और एक काल्पनिक अवधारणा बना लेते हैं कि जब नदी का पानी सीधे पीने लायक होगा तो नदी निर्मल होगी। प्रत्येक नदी के संदर्भ में ऐसी अपेक्षा रखना उचित नहीं है, इसके साथ ही यह समझना जरूरी है कि नदी के पानी का रसायनिक संघटन अलग-अलग नदियों के लिए अलग-अलग हो सकता है। यह उस इलाके की भूगर्मीय स्थितियों और वहां की जमीन की रसायनिक विशेषताओं पर निर्भर करता है जहां से नदी गुजर रही है यदि हम हर नदी के पानी को सीधे ही पीने लायक बनाने के प्रयासों में जुट गए तो समय है कि हम कुछ ऐसी गलतियां कर बैठे जिससे उस इलाके के समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचे।
नदियाँ हमारी सामूहिक आस्था का केंद्र है और सार्वजनिक संसाधन भी, जिन पर सभी का अधिकार है। नदी की निर्मलता एक वैज्ञानिक विषय है जिसके बारे में ठीक तरह से पता लगाने के लिए प्रयोगशालाओं में कुछ जाँचे करनी पड़ती है। हर नागरिक वैज्ञानिक जांच नहीं कर सकता है लेकिन अपनी नदी की निगरानी जरूर कर सकता है। नदी की निगरानी, उसमें आ रहे बदलावों पर नजर, नदी के जीव-जंतुओ और उनकी स्थितियों का अवलोकन करने में प्रशासन की मदद कर नागरिक नदी के संरक्षण की दिशा में अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। खासकर वे लोग जो नदियों के किनारे ही बसे हुए हैं।
कैसे करे निगरानी
नदी की निगरानी किसी खजाने की निगरानी या पहरेदारी की तरह जटिल, जोखिमपूर्ण या व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं है, जिसके लिए चौबीस घंटे किसी को पहरा देना पड़े। थोड़ी-सी सतर्कता और सूचना देने की पहल जैसे प्रयासों से नदी के प्रति अपना सामुदायिक उत्तरदायित्व निभाया जा सकता है यदि नदी के करीब जाने पर पानी पर कोई तैलीय पर दिखाई दे, नदी में अचानक झाग नजर आए. सतह या किनारों पर मरी हुई मछलियां बड़ी संख्या मे मृत कीट-पतंगे दिखाई दे पानी में से कोई गंध आए तो ये किसी बदलाव का संकेत हो सकते हैं ऐसे बदलाव की सूचना प्रशासन तक पहुंचाई जानी चाहिए।जिन नगरों और ग्राम पंचायतों से नदियों गुजर रही है वहां के नगरीय और ग्रामीण प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नदी के समीप रहने वाले रहवासियों, नाविको, मछुवारों आदि के पास एक संपर्क बिंदु या संपर्क केंद्र हो जहाँ आवश्यकता पड़ने पर वे कोई सूचना दे सकें।
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