एनएमडीसी के विरोध में खोला मोर्चा
एनएमडीसी प्रदूषित पानी के कारण ज़मीन और मवेशियों को पहुँचने वाले नुकसान का मुआवजा देती रही है, लेकिन केवल मुख्य सड़क से लगे गाँवों में, जबकि अन्दरूनी इलाकों के गाँवों में नुकसान का कोई सर्वेक्षण भी नहीं किया जाता। आदिवासी कभी इन नदियों को पवित्र मानकर इनकी पूजा करते थे, लेकिन अब यही नदियाँ लौह अयस्क खनन के कारण लोगों के लिये जानलेवा बन गई हैं। भारत का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक और निर्यातक नेशनल मिनिरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएमडीसी) इन दिनों छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विरोध का सामना कर रहा है। प्रदेश के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिला दंतेवाड़ा के किरंदुल और बचेली की लौह अयस्क खदानों ने इलाके के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है।
लौह अयस्क उत्खनन से निकलने वाले रेड ऑक्साइड के प्रदूषण से दक्षिण छत्तीसगढ़ की जीवनरेखा समझी जाने वाली डंकिनी और शंखिनी नदियों का रूप ही बदल गया है। इस इलाके के लोग लाल पानी पीने को मजबूर हैं। जिससे उनके मवेशी तो मर ही रहे हैं, वे भी कई घातक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
यही कारण है कि स्थानीय बाशिन्दे एनएमडीसी का विरोध करने सड़कों पर उतरकर कर रहे हैं। पिछले वर्ष भी करीब ढाई हजार आदिवासियों ने रैली निकालकर NMDC के खिलाफ प्रदर्शन किया था।
हाथों में तख्तियाँ लिये करीब ढाई हजार आदिवासी महिला पुरुषों ने एनएमडीसी के किरंदुल प्लांट की घेराबन्दी कर दी थी। हालात यह है कि लाल पानी पीने को मजबूर दंतेवाड़ा के 55 गाँवों के लोग एनएमडीसी का विरोध कर रहे हैं।
स्वच्छ पर्यावरण, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा माँग रहे आदिवासी इलाके में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विस्तार को लेकर भी विरोध जता रहे हैं।
आदिवासियों को कोरापुट से लेकर बैलाडीला तक डल रही दोहरी रेल लाइन से भी ऐतराज है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनका जीवन और दूभर हो जाएगा।
आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे रमेश सामू कहते हैं कि अब हम अत्याचार नहीं सहेंगे। लौह अयस्क की अधिकता से लाल हुए पानी को पीकर हमारे बच्चे मौत के मुँह में जा रहे हैं। हमारे खेत फसल लेने के लायक नहीं रह गए। मवेशी दम तोड़ रहे हैं। रोज़गार के नाम पर हमें केवल छला गया है। अब हम इस इलाके में नया खनन नहीं होने देंगे।
ऐसा नहीं है कि एनएमडीसी का विरोध पहली बार हो रहा है। लेकिन पिछले दो वर्षों से यह विरोध ज्यादा मुखर हो गया है। इसका कारण यह है कि पिछले वर्ष नेशनल मिनिरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएमडीसी) को एक नई खदान ‘बैलाडीला डिपोजिट 13’ में भी खनन के लिये फॉरेस्ट क्लियरेंस मिल गया है। इसके पहले तक एनएमडीसी के पास कुल 14 खदानों में से चार यानि किंरदुल में ‘डिपोजिट 14’ और ‘11 सी’ एवं ‘बचेली में डिपोजिट 5’ और ‘10 सी-11ए’ में खनन की अनुमति थी।
पर्यावरण मंत्रालय की फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी (FAC) की 29 और 30 अप्रैल 2014 को हुई एक अहम बैठक में एनएमडीसी को नई खदान के लिये फॉरेस्ट क्लियरेंस देने सम्बन्धी निर्णय लिया गया है। इसके पहले मुख्यमंत्री रमन सिंह भी FAC को पत्र लिखकर बैलाडीला खदान की अनुमति देने का आग्रह कर चुके हैं।
मुख्यमंत्री के पत्र में कहा गया था कि बैलाडीला की मदद से छत्तीसगढ़ के छोटे स्पांज आयरन एवं अन्य स्टील उद्योगों को आयरन और प्राप्त हो सकेगा। फिलहाल एनएमडीसी की मौजूदा खदानों से इन उद्योगों को अपनी जरूरत का सिर्फ 50 फीसदी आयरन ही प्राप्त हो पा रहा है।
आवश्यकतानुसार आयरन की सप्लाई सुनिश्चित होने से राज्य में स्टील उत्पादन बढ़ाने में भी मदद मिल सकेगी। साथ ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को रोज़गार के नए अवसर भी प्राप्त हो सकेंगे।
एनएमडीसी के एक अधिकारी के मुताबिक बैलाडीला साइट 13 में करीब 300 मिलियन टन आयरन का निक्षेप मौजूद है।
लाल पानी के कारण अब लोग पलायन के लिये भी मजबूर हो गए हैं। दंतेवाड़ा कलेक्टर के.सी. देवसेनापति इस बारे में कहते हैं कि दंतेवाड़ा के करीब 65 प्रभावित गाँवों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिये जिला प्रशासन ने कई उपाय किये हैं। लाल पानी की समस्या से निपटने के लिये सभी सम्बन्धित विभागों को एक संयुक्त कार्य योजना तैयार करने को कहा गया है। एनएमडीसी को भी पर्यावरण की सुरक्षा के लिये कई निर्देश दिये गए हैं।एनएमडीसी की खदानों से स्थानीय और राष्ट्रीय लौह उद्योगों की जरूरतें तो पूरी की जा रही हैं। लेकिन स्थानीय आदिवासियों के हितों की पूरी तरह अनदेखी कर दी गई है। लौह अयस्क की खदानों में खनन के कारण स्थानीय नदी-नालों का रंग लाल हो गया है। इस पानी से जहाँ स्थानीय लोगों को खेत खराब हो गए हैं।
हालांकि एनएमडीसी में पर्यावरण प्रबन्धन के तहत जल प्रदूषण को रोकने के लिये चेकडैम और टेलिंग डैम बनाए गए हैं। लेकिन इसके बावजूद माइनिंग एरिया के चारों तरफ का करीब 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र का पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो चुका है। यह पूरा इलाका वन रहित हो गया है।
इस इलाके के करीब 100 किलोमीटर के विस्तार में बहने वाली शंखिनी और डंकिनी नदियाँ लाल दलदल वाले क्षेत्रों में बदल गई हैं। सैंकड़ों गाँवों का पानी प्रदूषित हो गया है। साथ ही सिंचाई की सुविधा भी छीन गई है।
बैलाडीला खदान प्रभावित संघर्ष समिति के सचिव रमेश सामू का कहना है कि एनएमडीसी और जिला प्रशासन लाल पानी प्रभावितों को गुमराह कर रहा है। दो आन्दोलन में सभी माँगों को पूरा करने का वादा किया गया था। जिस पर अभी तक अमल नहीं हुआ है। अब तक तो हमने शान्तिपूर्ण तरीके से आन्दोलन किया है, लेकिन अब उग्र रुख अपनाना पड़ेगा।
वहीं एनएमडीसी किरंदुल के डायरेक्टर प्रोडक्शन वी.के.सतपथी कहते हैं कि हम अपनी क्षमताओं में रह कर जितना कर सकते हैं, उतना कर रहे हैं। लोगों की माँग है कि उनके इलाके का विकास हो, उन्हें रोज़गार मिले, चिकित्सा सुविधा और शिक्षा मिले। यह हमारा काम नहीं है, राज्य सरकार का है। लेकिन फिर हम अपने सामाजिक सरोकारों के तहत यह सामुदायिक सुविधाएँ उपलब्ध करवा रहे हैं।
इतना ही नहीं लाल पानी के कारण अब लोग पलायन के लिये भी मजबूर हो गए हैं। दंतेवाड़ा कलेक्टर के.सी. देवसेनापति इस बारे में कहते हैं कि दंतेवाड़ा के करीब 65 प्रभावित गाँवों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिये जिला प्रशासन ने कई उपाय किये हैं। लाल पानी की समस्या से निपटने के लिये सभी सम्बन्धित विभागों को एक संयुक्त कार्य योजना तैयार करने को कहा गया है। एनएमडीसी को भी पर्यावरण की सुरक्षा के लिये कई निर्देश दिये गए हैं।
स्थानीय ग्रामीण नंदराम कुंजम आरोप लगाते हैं कि एनएमडीसी प्रदूषित पानी के कारण ज़मीन और मवेशियों को पहुँचने वाले नुकसान का मुआवजा देती रही है, लेकिन केवल मुख्य सड़क से लगे गाँवों में, जबकि अन्दरूनी इलाकों के गाँवों में नुकसान का कोई सर्वेक्षण भी नहीं किया जाता। कोडेनार गाँव की सरपंच मीना मंडावी भी अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुए कहती हैं कि आदिवासी कभी इन नदियों को पवित्र मानकर इनकी पूजा करते थे, लेकिन अब यही नदियाँ लौह अयस्क खनन के कारण लोगों के लिये जानलेवा बन गई हैं।
दंतेवाड़ा जिले की अपनी खदानों से एनएमडीसी प्रतिदिन करीब 60,000 टन अयस्क का उत्पादन करती है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार भारत के कुल कोयला और लौह अयस्क भण्डार का पाँचवाँ हिस्सा छत्तीसगढ़ में है। दंतेवाड़ा में बैलाडिला की पहाड़ियों में देश के सबसे अच्छे लौह अयस्क की खदानें है। यहाँ 14 खदानों में 1.2 अरब टन इस्पात का भण्डार है, जिसमें इस्पात की मात्रा 66 फीसदी है।
नक्सलियों का गढ़ कहे जाने वाले इस क्षेत्र में एनएमडीसी 1960 से काम कर रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की इस कम्पनी के पास 788 एकड़ ज़मीन है। लेकिन इसकी खदानों ने बचेली और किरंदुल के आदिवासियों का जीना मुहाल कर दिया है। यही वो दो इलाके हैं, जहाँ नक्सली सबसे ज्यादा उत्पात मचाते हैं। ऐसे में स्थानीय आदिवासियों की स्थिति दो पाटों के बीच फँसने जैसी हो गई है।
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Post By: RuralWater