मालदा के पंचानंदपुर और मुर्शिदाबाद के धुलियान कस्बों को कभी विकसित इलाका माना जाता था। लेकिन अब उनका अस्तित्व ही नहीं है। मालदा में 1980 से अब तक 4816 एकड़ जमीन नदी में समा चुकी है। मालदा जिले से 40 हजार परिवार विस्थापित हो चुके हैं। 1995 के बाद से 26 गांव पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं। इन गांवों में स्थित 100 प्राइमरी स्कूलों और 15 हाईस्कूलों का अब कहीं पता नहीं।
नाम: मंजूर आलम। उम्रः 52 साल। पताः खटियाखाना चक (द्वीप), हमीदपुर। कहने को तो यह हमीदपुर पश्चिम बंगाल मालदा जिले में पड़ना चाहिए। लेकिन बीच गंगा में नदी के इस द्वीप का पता कुछ भी नहीं है। मंजूर आलम ने 1979 में इस द्वीप के जिस छोर पर अपना घर बनाया था, वह जगह अब 15 किलोमीटर दूर निकल गई है। अब तक चार बार विस्थापित होकर नया आशियाना जोड़ते-जोड़ते अपना पता भी खो बैठा है मंजूर आलम। मालदा जिले में कालियाचक थ्री ब्लॉक के हमीदपुर ग्राम पंचायत इलाके में मंजूर आलम जैसे लगभग दो लाख लोगों में से लगभग हरेक की दास्तान है- जाएं तो कहां जाएं। नौ साल पहले तक ये सभी लोग पश्चिम बंगाल के नागरिक थे। लेकिन गंगा नदी में कटान के चलते उनका मूल गांव कटकर झारखंड की सीमा से जा लगा था। अब ये लोग गंगा नदी में उगे अलग-अलग छोटे-बड़े 24 चक (नदी के द्वीप, जो 50 से 100 मीटर की लंबाई-चौड़ाई में होते हैं) में रह रहे हैं।इन इलाकों के आठ हजार से ज्यादा परिवारों के पास बंगाल के नागरिक होने के दस्तावेज हैं- राशन कार्ड या जमीन के दस्तावेज आदि। ये लोग मानिकचक, कालियाचक टू, कालियाचक थ्री के बाशिंदे हुआ करते थे। लेकिन इस तरह के गांवों से राजस्व नहीं मिलता, इसलिए इन गांवों के लोगों को अपना नागरिक नहीं मानता प्रशासन। मालदा के दो बड़े चर माने जाते हैं खटियाखाना और सुभानीतला। दोनों जगहों पर अब तक कोई भी सरकारी योजना नहीं चालू की गई है। बहुप्रचारित मनरेगा स्कीम भी नहीं। इन जगहों पर लोगों ने अपनी नागरिकता ‘खोजने’ की कोशिश में कुछ गैरकानूनी काम भी कर लिया। मसलन, अफीम की खेती शुरू कर दी। मालदा के किसी इलाके में डकैती डाल दी। मामला पुलिस तक गया तो स्थानीय लोगों ने एफआईआर में राज्य और जिले का नाम लिखने का दबाव डाला। इस तरह के कई मामलों में बंगाल और झारखंड की पुलिस कई दफा पहुंची, गिरफ्तारियां हुईं लेकिन सिरदर्द कौन मोल ले। वितंडा खड़ा होने पर पुलिस बगैर किसी लिखा-पढ़ी के लौट गई।
इन जगहों पर रहने वाले राजेननाथ मंडल, तारीकुल इस्लाम, मंजूर आलम जैसे कई लोगों की अरसे से एक ही ख्वाहिश है, उन्हें नागरिकता की पहचान मिल जाए। इन लोगों ने 1998 से ‘गंगा भांगन प्रतिरोध एक्शन नागरिक कमेटी’ बना रखी है। लगभग हर राजनीतिक पार्टी के छोटे-बड़े नेता से मिल चुके हैं। लेकिन कोई सुने तब तो। इन लोगों की मुख्य रूप से दो मांगे हैं- एक, राज्यों की सीमा का निर्धारण मौजा के माप-जोख से किया जाए। नदियों की धारा के अनुसार नहीं। दूसरे, नदियों के कटान को राष्ट्रीय आपदा माना जाए। मंजूर आलम के अनुसार, इस इलाके में उन्हें पिछले 30 साल में छह बार अपना घर बनाना पड़ा है। कालियाचक थ्री ब्लॉक के दस्तावेजों में मंजूर आलम अब भी छह बीघे जमीन के मालिक हैं। लेकिन हकीकत में उनके पास सिर्फ आधा बीघा जमीन है। बाकी जमीन गंगा निगल चुकीं है। मजे की बात यह कि प्रशासन भले ही इन इलाकों को राज्य का हिस्सा न मानता हो, लेकिन जमीनों की रजिस्ट्री बाकायदे बंगाल में होती है। खटीयाखाना चर में पिछले साल मंजूर आलम ने अपनी दो बीघे जमीन बेची थी। उसकी रजिस्ट्री कालियाचक में हुई।
पश्चिम बंगाल के मालदा, मुर्शिदाबाद, हुगली, मिदनापुर, बर्दवान, 24 परगना आदि जिलों में गंगा, आदिगंगा, पद्मा और दामोदर नदियों के कटाव के चलते गांव के गांव बरसों तक नदी में समाते रहे हैं। अस्तित्व खो चुके 26 गांवों के विस्थापित 40 हजार परिवारों की दुर्दशा पर प्रशासन ने चुप्पी साध रखी है। सरकारी फाइलें ठंडे बस्ते में डाली जाती रही हैं। कुछ अरसा पहले बंगाल में हुगली और नदिया जिलों के बीच तकरार का कारण बने एक द्वीप ‘चर जात्रासिद्धि’ का विवाद उपग्रह चित्रों के जरिए सुलटाया गया। उसके बाद से बंगाल और झारखंड के बीच इस द्वीपों पर रह रहे लोगों की उम्मीद नए सिरे से जगी है। गंगा नदी का धारा बदलने के साथ कटाव के चलते 1982-83 में नदी तट पर स्थित हुगली के जात्रासिद्धि गांव का अस्तित्व खत्म मान लिया गया था। 1985 में 24 वर्ग किलोमीटर का नया भूखंड प्रकट हुआ। इस द्वीप पर जात्रासिद्धि के विस्थापितों ने डेरा जमा लिया। दूसरी ओर, प्रशासन ने इसे हुगली के बजाय नदिया जिले का हिस्सा मान लिया। दस्तावेजों में वीरान इस द्वीप को सरकारी संपत्ति माना गया। यहां के लोग जबरन दखलदार। अब 25-26 वर्षों तक के लंबे संघर्ष के बाद चुनाव आयोग के दखल से यहां के 1452 लोगों को पहचान मिली। यहां के लोगों द्वारा लगातार धरना-प्रदर्शनों और कुछ स्वयंसेवी संगठनों द्वारा दबाव बनाए जाने पर राज्य सरकार ने उपग्रह चित्रों के जरिए पता लगवाया कि आखिर यह द्वीप किस जिले का हिस्सा है। पता चला हुगली का। और लोगों की नागरिकता का सवाल हल हो गया।
खटियाखाना, सुभानीतला और अन्य 24 द्वीपों पर रह रहे लोगों की नागरिकता का सवाल इतनी आसानी से हल नहीं होने वाला। जात्रासिद्धि द्वीप के अस्तित्व का सवाल तो दो जिलों के बीच उलझा था, इसलिए बंगाल सरकार ने सुलझा लिया। लेकिन कटाव में 26 गांवों के लुप्त होने से उभरे द्वीपों की स्थिति पर कौन गौर करे, जिनके अस्तित्व का मसला दो राज्यों के बीच फंसा है- पश्चिम बंगाल और झारखंड। ये द्वीप दोनों राज्यों के बीच गंगा और अन्य स्थानीय नदियों में उभरे पड़े हैं। अपने-अपने अनुमान से लोगों ने अपनी जमीनें चिन्हित कर डेरा-डंडा डाल रखा है।
भूगोलवेत्ताओं के अनुसार चर का बनना प्राकृतिक प्रक्रिया है। एक किनारे से कटाव और नदी में कुछ दूरी पर नए द्वीप की सृजन। लेकिन नदी की धारा के साथ छेड़छाड़ हो तो समस्या गंभीर हो जाती है। फरक्का में गंगा नदी पर बांध के बाद से हालात बिगड़ते गए हैं। विश्व भारती के भूगोल विभाग के डॉ. मलय मुखोपाध्याय और डॉ. सुतपा मुखोपाध्याय ने फरक्का परियोजना को लेकर अपने शोध में कहा है कि इस बांध ने क्षेत्र की नदियों का संतुलन बिगाड़ दिया है। नदियां अब कटाव और तटछट जमा कर अपना बहाव संभाल रही हैं। कटाव को लेकर 2004 में गठित विधानसभा की कमेटी ने भी यही कारण बताया है। लेकिन सरकार तमाम रिपोर्टस पर सोती रही। रोकथाम के कोई कदम नहीं उठाए गए। नतीजा, विस्थापन की समस्या। सरकारी नियमों में नदी कटाव को प्राकृतिक आपदा नहीं माना जाता। इस कारण अपनी शरणस्थली, जीविका, बच्चों के स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, खेती – बाड़ी खो बैठने वाले विस्थापितों को क्षतिपूर्ति नहीं मिलती। इन जिलों में नदियों के पश्चिम बंगाल वाले हिस्से की तरफ मालदा और मेदिनीपुर जिलों में मानिकचक, कालियाचक दो और कालियाचक तीन ब्लॉकों के 59 मौजा में हालत ज्यादा गंभीर है। 750 वर्ग किलोमीटर जमीन नदियां लील चुकी हैं। इनमें 269 वर्ग किलोमीटर उपजाऊ जमीन है।
मुर्शिदाबाद में अकेले 356 वर्ग किलोमीटर जमीन नदी में समा चुकी है। इन इलाकों में 60 प्राइमरी स्कूल और मदरसे और 14 हाईस्कूल नष्ट हो चुके हैं। मालदा के पंचानंदपुर और मुर्शिदाबाद के धुलियान कस्बों को कभी विकसित इलाका माना जाता था। लेकिन अब उनका अस्तित्व ही नहीं है। मालदा में 1980 से अब तक 4816 एकड़ जमीन नदी में समा चुकी है। मालदा जिले से 40 हजार परिवार विस्थापित हो चुके हैं। 1995 के बाद से 26 गांव पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं। इन गांवों में स्थित 100 प्राइमरी स्कूलों और 15 हाईस्कूलों का अब कहीं पता नहीं। नदी के कटाव में पांच बार अपनी खेती-बाड़ी गंवा बैठने वाले अबू बकर याद करते हैं कि किस तरह 1973 में उन्होंने पहली बार अपनी 25 बीघा जमीन खो दी थी। अब नदी में दो किलोमीटर दूर उग आई नई जमीन पर उन्होंने पनाह ली है। यहां भी उनके पास जमीन है। उन्हें रोजी-रोटी की तकलीफ नहीं। राज्य सरकार के समाज कल्याण और पुनर्वास विभाग ने संयुक्त राष्ट्र संघ की मदद से मिलने वाले फंड से विस्थापितों को अन्य कहीं बसाने के लिए अभियान चला रखा है। लेकिन लोग अपनी जगह नहीं छोड़ना चाहते। क्यों? ऐसे विस्थापितों के बीच काम कर रहे लोगों का मानना है- लोग किसी अपरिचित इलाके में नहीं जाना चाहते, नदियों से मछली पकड़ना रोजगार का प्रमुख जरिया है, नदी में उग आए द्वीप पर फसल अच्छी होती है, पशुओं के लिए चारा और जलावन आसानी से मिल जाते हैं और जलावन आसानी से मिल जाते हैं और नदी से आर्सेनिक मुक्त पानी मिलता है। जाहिर है, नदी कटाव के विस्थापितों को नदी से मिल रही इन ‘सुविधाओं’ का मोह उन्हें बांधे रखता है। उन्हें तड़प है तो सिर्फ अपने पहचान की।
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