डूंगरपुर की रोजगार गारंटी योजना – परिवर्तन के चिन्ह

एक महत्वपूर्ण सॉशल ऑडिट की रिपोर्ट से पता चला है कि राजस्थान के डूंगरपुर में जहाँ लोग रोजगार को लेकर चुनौतियों से जूझ रहे थे, वहाँ अब सार्वजनिक कार्यों में रोजगार में उल्लेखनीय प्रगति हुई है।

देश के बेहद गरीब ग्रामीण इलाकों में एक “खामोश क्रान्ति” की शुरुआत हो चुकी है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (नरेगा), देश के चुनिन्दा जिलों में 2 फ़रवरी से प्रारम्भ हो चुका है और इससे इन जिलों की तस्वीर बदलने लगी है। राजस्थान से चुने गये छः जिलों में से एक है डूंग़रपुर, जिसे नरेगा लागू करने हेतु प्रथम चरण में चुना गया है। यहाँ किये गये एक सॉशल ऑडिट के अनुसार पता चला है कि गरीब ग्रामीणों के जीवन में गत दो माह में ही सुधार हुआ है। यहां आधे से अधिक परिवारों का कम से कम एक सदस्य नरेगा के तहत रोजगार पा चुका है।

यह सामाजिक परीक्षण रिपोर्ट अप्रैल के अन्त में जाँची गई, जिसमें 11 राज्यों के 600 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। आस्था संस्थान और मज़दूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) ने इस सर्वे/अध्ययन में मदद का हाथ बढ़ाया। अध्ययन करने वाले प्रतिभागियों ने इस ऑडिट को करने के लिये “पदयात्रियों” के रूप में कुछ समूह बनाये और दस दिन की पैदल यात्रा पर गाँव-गाँव निकल पड़े। इन समूहों ने गाँवों में नरेगा के बारे में जानकारी देना और इस योजना के क्रियान्वयन के बारे में विभिन्न रिपोर्ट संकलित करना प्रारम्भ किया। उन्होंने इस बात का भी सत्यापन करने की कोशिश की, कि सरकार द्वारा घोषित और कानून में शामिल लाभों में से असल में कितना लोगों तक पहुँच रहे हैं।

नरेगा कानून सच्चे अर्थों में “काम के अधिकार” की ओर उठने वाला पहला कदम है जिसमें संविधान को भी एक प्रमुख घटक बनाया गया है। यह कानून कहता है – “राज्य सत्ता अपनी नीतियों को जन सुरक्षा की ओर केन्द्रित रखेगी, जिसमें प्रत्येक नागरिक, पुरुष, स्त्री सभी को आजीविका प्राप्त करने का साधन होगा…”। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम मुख्य तौर पर तात्कालिक रूप से भूख और आर्थिक संसाधनों की कमी पर केन्द्रित है, जिसमें आजीविका की कमी, खाद्य सुरक्षा में कमी, गरीबी जैसे उन मुद्दों से निपटने के लिये कारगर है जिनके द्वारा एक गरीब ग्रामीण का जीवन निरन्तर निम्न स्तर पर चला जाता है। देश के कई भागों में गम्भीर खाद्य संकट और वंचितों के सन्दर्भ में यह नया कानून, ग्रामीण गरीब परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये सरकारों की जिम्मेदारी तय करता है। फ़िर भी जैसा कि अर्थशास्त्री और समाजसेवी ज्यां द्रेज कहते हैं कि “सिर्फ़ कानून बना देने से रोजगार की गारंटी मिलने वाली नहीं है, इसके लिये सतत प्रयास करने होंगे…”। फ़िलहाल यह कानून देश के 200 जिलों में लागू किया गया है और इसके अगले पाँच साल में समूचे देश में लागू किये जाने की सम्भावना है। ग्रामीण इलाके में रहने वाले सभी निवासी इस कानून के तहत काम पाने के अधिकारी हैं और ग्राम पंचायत का यह फ़र्ज है कि वह हितग्राही को “रोजगार कार्ड” उपलब्ध करवाये, जो कि पाँच साल तक के लिये वैध होगा। इस कार्ड में सम्बन्धित व्यक्ति को कितने दिन काम मिला, कितनी मजदूरी दी गई, बेरोजगारी की दशा में कौन से लाभ दिये गये जैसे विभिन्न डाटा दर्ज किये जाते हैं। दिया गया रोजगार हितग्राही के घर से पाँच किलोमीटर के दायरे में ही होना चाहिये। लाभग्राही को विभिन्न राज्यों द्वारा निर्धारित एक न्यूनतम मजदूरी दिया जाना तय है तथा उसे आवेदन देने के 15 दिनों के भीतर सरकार यदि कोई रोजगार न दे पाये, तब बेरोजगारी भत्ता भी दिया जायेगा। इस कानून के अनुसार वर्ष में 100 दिन का रोजगार प्रति आवास दिये जाने का प्रावधान है।

“पदयात्रियों” के समूह ने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि डूंगरपुर जिले के लगभग सभी गाँवों में लोगों को इस कानून और 100 दिनों के रोजगार के बारे में जानकारी है, हालांकि इस योजना और कानून के बारे में विस्तार से उन्हें पता नहीं है। पदयात्रियों ने ग्रामीणों और रोजगार प्राप्त करने वालों को तीन प्रश्नावलियाँ दीं, पहली गाँव के बारे में, दूसरी कार्यस्थल के बारे में और तीसरी ग्राम पंचायत के काम के बारे में। माह के अन्त में एक पैनल चर्चा आयोजित की गई, जिसमें अध्ययनकर्ता, शिक्षाविदों, विभिन्न राज्यों के वरिष्ठ नौकरशाह तथा डूंगरपुर जिले की कलेक्टर मंजू राजपाल ने भाग लिया। इस पैनल चर्चा की आयोजक थीं MKSS की अरुणा रॉय, पैनल ने कई मुद्दों को छुआ और यह बात उभरकर सामने आई कि वास्तविकता में कानून को दूरस्थ इलाकों में पहुँचाना एक चुनौती तो है, लेकिन इस प्रकार की एक वैकल्पिक कानूनी व्यवस्था का मौजूद होना भी सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।

स्वाभाविक रूप से नरेगा के क्रियान्वयन में विभिन्न राज्यों में कई तरह की समस्याएं और अनेकतायें पाई जा रही हैं, लेकिन डूंगरपुर जिले का अनुभव यह दर्शाता है कि कुछ मामूली समस्याओं के बावजूद यह कानून ग्रामीण रोजगार के क्षेत्र में एक बड़ा कदम है, और ज्यां द्रेज के मुताबिक स्थानीय ग्राम प्रशासन इस कानून को लागू करने में प्राथमिकता से रुचि दिखा रहे हैं। अध्ययन में पता चला कि पूरा कार्य ग्रामसभाओं द्वारा आयोजित किया जाता है, और चूंकि “सूचना का अधिकार” भी राजस्थान में पूरी तरह से लागू है तब एक पार्दर्शिता और जवाबदेही की संस्कृति अपने-आप बनने लगी है। उदाहरण के लिये लगभग प्रत्येक कार्यस्थल पर “मस्टररोल” पाये गये और उनमें छेड़छाड़ के भी कोई सबूत नहीं मिले। एक और सकारात्मक बदलाव यह देखने में आया कि इस जिले में नरेगा के तहत काम करने वालों में 80% मजदूर महिलायें हैं (जिनके पति काम के सिलसिले में जिले से बाहर जा चुके हैं), इसका मतलब यह भी है कि नरेगा ग्रामीण महिलाओं के लिये भी आय के साधन जुटाने का एक प्रमुख हथियार बन चुका है, इससे समुदाय और समाज में लैंगिक समीकरणों को बदलने में सकारात्मक भूमिका निभायेगा। सामाजिक कार्यकर्ता सौम्या शिवकुमार कहती हैं, पहले महिलाओं द्वारा किये जाने वाले काम को कमतर नज़रों से देखा जाता था, लेकिन अब इसे अलग तरीके से लिया जाने लगा है, जो कि उनके सशक्तिकरण में सहायक सिद्ध होगा। सौम्या ने नोट किया कि कुछ क्षेत्रों में मजदूरी के रूप में नकद पैसों के बदले अनाज की भी माँग उठने लगी है।

अध्ययन में पाया गया कि काम करने वाली महिलाओं को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिये कार्यस्थल पर उनके लिये किसी प्रकार की मूल सुविधायें नहीं के बराबर हैं। न ही किसी प्रकार की चिकित्सकीय सुविधा है, न ही बच्चों की देखभाल की, जिस कारण महिलाओं को अपने छोटे-छोटे बच्चों को भरी गर्मी में घर पर अकेले छोड़कर जाना पड़ता है। अरुणा रॉय कहती हैं कि चूंकि कार्यस्थल पर किसी प्रकार की “क्रेशे” सुविधा नहीं है, इसलिये कई दुधमुँहे बच्चों को उनकी माँ का दूध आठ-दस घंटे बाद ही मिल पाता है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ने लगा है। नेशनल लॉ कालेज के छात्र सिद्धार्थ, जो कि ज्यां द्रेज़ के साथ इन इलाकों में साइकल दौरे पर गए थे, बताते हैं कि “कई जगहों पर काम करने वाली महिलायें अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिये काम के बीच में से जाती हैं और वापस आती हैं जिससे उनकी मेहनत दोहरी हो जाती है…”। इस महत्वपूर्ण अध्ययन में पाया गया कि काम के माप (अर्थात वास्तविकता में कितना काम किया गया) और दी गई मजदूरी के बीच कई विभिन्न प्रकार की समस्यायें हैं। काम करने वाले मजदूरों में से कई का कहना है कि उनके द्वारा किये जाने वाले काम की अपेक्षित मात्रा बहुत ज्यादा है। काम के दौरान मिट्टी के प्रकार और मौसम सम्बन्धी किसी प्रकार की प्रतिकूलताओं का व्यक्तिगत मजदूर पर प्रभाव तो पड़ता ही है। अधिकतर मजदूरों को सिर्फ़ 40 से 60 रुपये रोजाना की मजदूरी दी जाती है, जो कि राजस्थान सरकार द्वारा निर्धारित 73 रुपये से बहुत ही कम है। MKSS के सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं कि मजदूरों को दिये गये अधिकतर काम पूरा करना अधिकतर बहुत ही मुश्किल है।

हाल ही में “द हिन्दू” में प्रकाशित अपने एक लेख में मजदूरी की गणना के बारे में मिहिर शाह कहते हैं, “नरेगा के कार्यान्वयन में एक बुनियादी कठिनाई है, बल्कि एक गहरा विरोधाभास है…”, किये जाने वाले काम के बदले में मजदूरी की जो निर्धारित दर है, उसे कानूनी दायरे के भीतर लाना होगा और उसे युक्तियुक्त बनाना होगा। मिहिर शाह का इशारा भी “औसत मजदूरी” की ओर है, जिसमें ज़मीन और मिट्टी के प्रकार, लिंग, उम्र, तथा अन्य मानकों को ध्यान में नहीं रखा गया है और सभी के लिये एक जैसा रखा गया है। डूंगरपुर में इसी पहलू की ओर ध्यान दिलाते हुए आंध्रप्रदेश के मुख्य सचिव के. राजू ने सुझाव दिया कि प्रत्येक जिले में काम की गति और उत्पादकता का अध्ययन किया जाना चाहिये और मिट्टी के प्रकार के आधार पर मजदूरी तय की जाना चाहिये ताकि प्रत्येक मजदूर सात घंटे के काम पर एक उचित मजदूरी हासिल कर सके, और दिलचस्प बात यह है कि आंध्रप्रदेश सरकार ने नरेगा योजना में अनुसूचित मजदूरी की दरों में संशोधन किया है।

इसके अलावा पदयात्री दल के अध्ययन में कुछ अन्य समस्यायें भी सामने आईं, जैसे पर्याप्त प्रशासनिक स्टाफ़ की कमी, जिसके कारण नरेगा का कार्यान्वयन प्रभावित होता है। आंध्र प्रदेश के एक प्रेक्षक ने पाया कि कुछ गाँवों में कोई काम ही नहीं है और वहाँ के निवासियों को काम ढूंढने पास के गाँव तक जाना पड़ता है। हालांकि ज्यां द्रेज़ के अनुसार, “जैसे-जैसे प्रशासनिक मशीनरी कार्य करने लग पड़ी है, बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होने लगा है…। ऐसा कभी भी नहीं हुआ था, भीषण सूखे के दौर के बाद “गुणक प्रभाव” के चलते और भी रोजगार की सम्भावनायें आने की उम्मीद है, तथा नरेगा ने इस जिले के लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ा दिया है, जहाँ गैर-कृषि कार्य बहुत कम या नहीं के बराबर ही हैं…”।

शैक्षणिक और सामाजिक कार्यकर्ता रीतिका खेरा के अनुसार, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून ने सम्पत्ति बनाने के अवसर भी पैदा कर दिये हैं। जब तक ग्रामीण अपने काम की उपयोगिता को नहीं पहचानेंगे तब तक यह बेकार ही है, लेकिन वाटर हार्वेस्टिंग की सुविधायें, सड़कें, बाँध धीरे-धीरे उनके क्षेत्र की आर्थिक स्थिति और उत्पादकता को बढ़ायेंगे ही। नरेगा के अन्तर्गत किये जाने वाले कामों की उपयोगिता के बारे में रीतिका खेड़ा बताती हैं कि यदि इन कामों में अधिक से अधिक आम जनता की भागीदारी हो तब ये विशिष्ट बन सकते हैं…”। वागड़ मजदूर किसान संगठन के मान सिंह ने जल संरक्षण परियोजनाओं की प्रधानता पर बल देते हुए कहा कि ऐसी योजनायें बढ़ाई जाना चाहिये और उसे सार्वजनिक भूमि की बजाय गाँव के आसपास की पूरी ज़मीन पर लागू किया जाना चाहिये।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ रूरल डेवलपमेंट के निदेशक राजा कुट्टी कहते हैं कि इस अध्ययन में नरेगा के कई सकारात्मक पहलू उभरकर सामने आये हैं, लेकिन कुछ प्रशासनिक और कुछ नीतिगत मामलों की तरफ़ तुरन्त ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। डूंगरपुर में एक संवेदनशील स्थानीय प्रशासन के कारण इन मुद्दों को देखा जा सकता है और इन पर उचित सुधार भी किये जा सकते हैं, क्योंकि वहाँ एक सतत निगरानी प्रक्रिया भी जारी है। निखिल डे जोर देकर कहते हैं कि ग्राम सभाओं को नरेगा के अन्तर्गत चल रहे सभी कार्यों को प्रति छमाही में अवलोकन करने और उनके सभी रिकॉर्ड, मस्टररोल, खर्चे और कार्यस्थलों को चेक करने की आवश्यकता है।

बहरहाल जो भी अनुभव हों, डूंगरपुर जिले को नरेगा के लिये समूचे देश में एक मॉडल के रूप में स्थापित किया जा सकता है, कि यदि मजबूत इच्छाशक्ति हो तो कैसे ग्रामीण प्रशासन के सभी घटक मिलकर एक काम को सफ़ल बना सकते हैं। डूंगरपुर के इस सामाजिक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सार्वजनिक निगरानी, पारदर्शिता और प्रशासनिक मशीनरी के सही ढंग से काम करने पर जनता के एक बड़े हिस्से को लाभ पहुँचाया जा सकता है, इसमें न सिर्फ़ भ्रष्टाचार कम होता है, बल्कि सही मायनों में विकास की धारा गरीबों तक पहुँचती है, और उनका जीवन सुधरता है।
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