दुुनिया की छत से देखें जलवायु परिवर्तन

आगामी पेरिस जलवायु सम्मेलन से पूर्व अभी देश, विकासशील और विकसित के बीच बँटे नजर आ रहे हैं। बँटवारे का आधार आर्थिक है और माँग का आधार भी। किन्तु क्या प्रकृति से साथ व्यवहार का आधार आर्थिक हो सकता है?

उपभोग और प्रकृति को नुकसान की दृष्टि से देखें तो यह दायित्व निश्चय ही विकसित कहे जाने वाले देशों का ज्यादा है, किन्तु इस लेख के माध्यम से मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि मानव उत्पत्ति के मूल स्थान के लिहाज से यह दायित्व सबसे ज्यादा हम हिमालयी देशों का है; कारण कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति सबसे पहले हिमालय की गोद में बसे वर्तमान तिब्बत में ही हुई। आज मानव उत्पत्ति का यह क्षेत्र ही संकट में है।

संकट में छत


गौर कीजिए कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से बाहर दुनिया का सबसे बड़ा बर्फ भण्डार, तिब्बत में ही है। ऊँचाई के नाते, तिब्बत को ‘दुनिया का छत’ कहा जाता है। बर्फ भण्डार के नाते, आप तिब्बत को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कह सकते हैं। यह तीसरा ध्रुव, पिछले पाँच दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि की नई चुनौती के सामने विचार की मुद्रा में है।

नतीजे में इस तीसरे ध्रुव ने अपना 80 प्रतिशत बर्फ भण्डार खो दिया है। तिब्बती धर्मगुरू दलाईलामा चिन्तित हैं कि 2050 तक तिब्बत के ग्लेशियर नहीं बचेंगे। नदियाँ सूखेंगी और बिजली-पानी का संकट बढे़गा। तिब्बत का क्या होगा?

जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के लिहाज से यह सिर्फ तीसरे ध्रुव नहीं, पूरी दुनिया के लिये चिन्ता का विषय है, किन्तु क्या दुनिया वाकई संजीदा है?

कितना संजीदा विश्व?


एक बैठक में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख क्रिस्टीन लोगान ने कहा कि यदि जलवायु परिवर्तन पर एहतियाती कदम तत्काल न उठाये गए, तो दुनिया की हालत पेरु के उस प्रसिद्ध चिकन की तरह होने वाली है, जिसका लुत्फ उनके बयान सम्बन्धी सम्मेलन में आये प्रतिनिधियों ने उठाया।

सच पूछिए, तो मुद्रा कोष द्वारा खासकर गरीब देशों में जिस तरह की परियोजनाओं को धन मुहैया कराया जा रहा है, यदि कार्बन उत्सर्जन कम करने में उनका योगदान आकलित कर लिया जाये, तो मालूम हो जाएगा कि अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रमुख की चिन्ता कितनी जुबानी है और कितनी ज़मीनी।

कहने को तिब्बत को अपना कहने वाला चीन भी बढ़ती मौसमी आग और बदलते मौसम से चिन्तित है, किन्तु क्या वाकई? तिब्बत को परमाणु कचराघर और पनबिजली परियोजनाओं का घर बनाने की खबरों से तो यह नहीं लगता कि चीन को तिब्बत या तिब्बत के बहाने खुद या दुनिया में जीवन बचाने की कोई चिन्ता है। कोई चिन्ता करे न करे, हमें करनी चाहिए।

भारत पर असर


एक अन्य अध्ययन के मुताबिक, विकास के नए पैमानों को अपनाने की भारतीय ललक यदि यही रही, तो वर्ष 2050 तक शीतकाल में तापमान 3 से 4 डिग्री तक बढ़ सकता है। मानसूनी वर्षा में 10 से 29 प्रतिशत कमी आ सकती है। हिमालयी ग्लेशियरों के 30 मीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से घटने का अनुमान लगाया गया है। इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा।

कई द्वीप जलमग्न होंगे। बदली जलवायु, बाढ़, चक्रवात और सूखा लाएगी। जहाँ जोरदार बारिश होगी, वहीं कुछ समय बाद सूखे का चित्र हम देखेंगे। 100 वर्ष में आने वाली बाढ़, दस वर्ष में आएगी। हो सकता है कि औसत वही रहे, किन्तु वर्षा का दिवसीय वितरण बदल जाएगा। नदियों के रुख बदलेंगे। कई सूखेंगी, तो कई उफन जाएँगी।

गंगा-ब्रह्मपुत्र के निचले किनारे पर शहर बनाने की ज़िद की, तो वे डुबेंगे ही। बाँध नियंत्रण के लिये नदी तटबंध तोड़ने पड़ेंगे। निचले स्थान पर बने मकान डुबेंगे। लोगों को ऊँचे स्थानों पर जाना होगा। पानी के कारण संकट, निश्चित तौर पर बढे़गा, साथ ही पानी का बाजार भी।

जलवायु परिवर्तन का वनस्पति पर एक असर यह होगा कि फूल ऐसे समय खिलेंगे, जब नहीं खिलने चाहिए। फसलें तय समय से पहले या बाद में पकने से हम आश्चर्य में न पड़ें। यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. ग्लेन मॉरिस के अनुसार, तापमान बढ़ने से गैम्बीयर्डिक्स नामक विषैला समुद्री शैवाल बढ़ रहा हैं।

मछलियाँ, समुद्र में शैवाल खाकर ही जिन्दा रहती हैं। शैवालों की बढ़ती संख्या के कारण, वे इन्हें खाने को मजबूर हैं। यह ज़हर इतना ख़तरनाक किस्म का है कि पकाने पर भी इनका ज़हर खत्म नहीं होता। इन मछलियों को खाने वाले लोग गम्भीर रोग की चपेट में आये हैं।

आकलन है कि यदि तापमान एक से चार डिग्री सेल्सियस तक नीचे गया, तो दुनिया में खाद्य उत्पादन 24 से 30 प्रतिशत गिर जाएगा। मौसम की मार का असर, फसल उत्पादन के साथ-साथ पौष्टिकता पर भी असर पड़ेगा। भारत, पहले ही दुनिया से सबसे अधिक कुपोषितों की संख्या वाला देश है; आगे क्या होगा?

गौर कीजिए कि वर्ष 2010 के वैश्विक जलवायु संकट सूचकांक में भारत पहले दस देशों में है। तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी, कार्यक्षमता प्रभावित होगी। लवणता बढे़गी। जैव विविधता घटेगी। बाढ़ से मृदा क्षरण बढ़ेगा, सूखे से बंजरपन आएगा। गर्मी कीट प्रजनन क्षमता में सहायक होती है। अतः कीट व रोग बढ़ेगा।

गंगा-ब्रह्मपुत्र के निचले किनारे पर शहर बनाने की ज़िद की, तो वे डुबेंगे ही। बाँध नियंत्रण के लिये नदी तटबंध तोड़ने पड़ेंगे। निचले स्थान पर बने मकान डुबेंगे। लोगों को ऊँचे स्थानों पर जाना होगा। पानी के कारण संकट, निश्चित तौर पर बढे़गा, साथ ही पानी का बाजार भी। जलवायु परिवर्तन का वनस्पति पर एक असर यह होगा कि फूल ऐसे समय खिलेंगे, जब नहीं खिलने चाहिए। फसलें तय समय से पहले या बाद में पकने से हम आश्चर्य में न पड़ें। परिणामस्वरूप, कीटनाशकों का प्रयोग बढे़गा, जो अन्त में हमारी बीमारी का कारण बनेगा। असिंचित खेती सीधे प्रभावी होगी। असिंचित इलाके सबसे पहले संकट में आएँगे। असिंचित इलाकों में भी किसान सिंचाई की माँग करेगा। सिंचित इलाकों में तो सिंचाई की माँग बढ़ेगी ही, चूँकि उपलब्धता घटेगी।

उत्पादन घटेगा


विशेषज्ञों के मुताबिक, इन सभी का असर यह होगा कि भारत में चावल उत्पादन के 2020 तक 6 से 7 प्रतिशत, गेहूँ में 5 से 6 प्रतिशत आलू में तीन तथा सोयाबीन में 3 से 4 प्रतिशत कमी आएगी। तापमान में 10 सेल्सियस की वृद्धि हुई तो गेहूँ का उत्पादन 70 लाख टन गिर जाएगा। अंगूर जैसे विलासी फल गायब हो जाएँगे। दूसरी ओर, जनसंख्या बढ़ने से खाद्य सामग्री की माँग बढ़ेगी। भारतीय राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा पिछले तीन साल में डेढ़ फीसदी घटा है।

वर्ष 2009 में सूखे की वजह से 29 हजार करोड़ का खाद्यान्न कम हुआ। खेती में गिरावट का असर सीधे 64 प्रतिशत कृषक आबादी पर तो पड़ेगा ही। खाद्य वस्तुएँ महंगी होने से गैर कृषक आबादी पर भी असर पड़ेगा और राजनीति पर भी। पिछले महीने, दाल के उत्पादन में कमी के कारण हो-हल्ला हुआ।

खाद्यान्न में पाँच फीसदी की कमी आएगी, तो जीडीपी एक फीसदी नीचे उतर जाएगी। भारत में 2100 तक प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में 23 प्रतिशत तक की कमी का अनुमान है।

संकट में साझे की दरकार


जब खाद्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं बचेगी, तो परिणाम क्या होगा? खाद्य सुरक्षा घटेगी, तो गरीबी बढ़ेगी; आत्महत्याएँ बढ़ेंगी; छीना-झपटी बढ़ेगी; अपराध बढ़ेंगे; प्रवृत्तियाँ और विकृत होंगी। सबसे ज्यादा गरीब भुगतेगा; मछुआरे, कृषक और जंगल पर जीने वाले आदिवासी। भारत के हाथों से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का बिल्ला छिन जाएगा। क्या करें?

रासायनिक खेती भी हरित गैसों का उत्सर्जन बढ़ाती है। अतः जैविक खेती चाहिए, एकल की बजाय समग्र खेती चाहिए। लवण व क्षार सहने वाली किस्में ईजाद करनी होगी। कृषि वानिकी करनी होगी। किन्तु क्या ये पर्याप्त होगा? नहीं, सिर्फ इतने से काम चलेगा नहीं। हम प्रत्येक को चाहिए कि जो जितना अधिकतम सकारात्मक यत्न कर सकता है, उसे उतनी क्षमता और पूरी ईमानदारी से अधिकतम उतना साझा करना चाहिए। संकट में साझे का सामाजिक सिद्धान्त यही है। साझेदारी से ही संकट को निपटाया जा सकता हैं। आइए, साझा बनाएँ।

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Post By: RuralWater
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