समुद्र का जलस्तर बढ़ने से दुनिया में 18 द्वीप पूरी तरह जलमग्न हो चुके हैं। चौवन द्वीपों के उनके समूह वाले सुंदरवन पर भी खतरा मंडरा रहा है। समुद्र के जलस्तर में दिनों-दिन बढ़ोत्तरी का अहम कारण ग्लोबल वार्मिंग है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि यदि समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी की यही रफ्तार रही तो 2020 तक चौदह द्वीप पूरी तरह खत्म हो जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र भी इस पर कई बार अपनी चिंता व्यक्त कर चुका है। उसका आकलन है कि समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर से छोटे-छोटे द्वीपों पर रहने वाले तक़रीबन 2 करोड़ लोग 2050 तक विस्थापित हो चुके होंगे।आज दुनिया के बहुतेरे द्वीपों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण समुद्र का बढ़ता जलस्तर है। इसके चलते यह आशंका बलवती हो रही है कि एक दिन मॉरीशस, लक्षद्वीप और अंडमान द्वीप समूह ही नहीं बल्कि श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे मुल्कों का अस्तित्व ही न समाप्त हो जाए। एक आकलन के अनुसार, अभी तक पूरी दुनिया में ढाई करोड़ लोग द्वीपों के डूबने के कारण विस्थापित हुए हैं। यदि राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की मानें तो खाड़ी के सभी द्वीपों में से ज्यादातर की अवस्था ठीक नहीं है। पर्यटन के लिहाज से बड़े केंद्र और खूबसूरत देशों में शुमार मालदीव पर भी खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण मालदीव ने आबादी को नई जगह पर बसाने की योजना बनाई है। और इसके लिए जमीन खरीदने पर भी विचार कर रहा है।
हालात का जायजा लें तो पाते हैं कि अभी तक समुद्र का जलस्तर बढ़ने से दुनिया में 18 द्वीप पूरी तरह जलमग्न हो चुके हैं। चौवन द्वीपों के समूह वाले सुंदरवन पर खतरा मंडरा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल के सुंदरवन के मतदाताओं के लिए द्वीपों के डूबने का खतरा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना था। यहां के मतदाताओं ने उम्मीदवारों से वायुमंडलीय तापमान में इजाफे के खतरे पर ध्यान देने की अपील की थी। रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरवन द्वीप समूह में कुल मिलाकर 40 लाख से भी ज्यादा मतदाता हैं। सुंदरवन खासतौर से बाढ़, तूफान, लवणता और कटाव की बढ़ती समस्याओं से प्रभावित रहा है। यहाँ पिछले तीस वर्षों में कटाव के चलते सात हजार लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। इसके अलावा 10 हजार से ज्यादा चीन के समीपवर्ती समुद्री द्वीपो पर भी खतरा मंडरा रहा है। दस हजार की आबादी वाला भारत का लोहाचार द्वीप 1996 में ही बर्बाद हो गया था।
बीते 25 वर्षों में बंगाल की खाड़ी में स्थित घोड़ामारा द्वीप 9 वर्ग किलोमीटर से घटकर 4.7 वर्ग किलोमीटर रह गया है। यह उस स्थिति में है। जबकि बंगाल की खाड़ी में समुद्र का जलस्तर 3.3 मिली मीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है। यही नहीं ऑकलैंड, न्यूजीलैंड, प्रशांत द्वीप क्षेत्र में स्थित दस लाख की आबादी वाला किरियाती द्वीप भी संकट में हैं। समुद्र का पानी दक्षिण प्रशांत क्षेत्र के उस द्वीप को पाट सकता है।
किरियाती का उच्चतम बिंदु समुद्र तल से केवल दो मीटर अधिक है। अभी किरियाती के लोगों को बसाने के खातिर 6 हजार एकड़ जमीन खरीदकर फिजी में शिफ्ट करने की योजना पर काम चल रहा है। असम में ब्रम्हपुत्र नदी के बीचोंबीच स्थित दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली बाढ़ और भूमि कटाव के कारण खतरे में है। इसका क्षेत्रफल 1278 वर्ग किलोमीटर से घटकर केवल 557 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसके 23 गांव में तकरीबन डेढ़ लाख लोग रहते हैं।
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यहाँ के लोगों से वादा किया था कि यदि वह सत्ता में आई तो माजुली को विश्वविरासत का दर्जा दिलाएंगे। हालांकि यूनेस्को ने विश्व धरोहर के प्रस्ताव को रद्द कर दिया। इक्वडोर के 972 किलोमीटर पश्चिम में स्थित प्रशांत महासागर में भूमध्य रेखा के आस-पास फैले ज्वालामुखी द्वीपों का एक समूह है। जिसे गैलापोगोस कहते हैं। यह विश्व धरोहर स्थल है। वन्यजीव इसकी विशेषता हैं। लेकिन मानव द्वारा इन द्वीपों पर लाए गए पौधे और जानवर पारिस्थितिकी के लिए खतरा साबित हो रहे हैं। दरअसल समुद्र के जलस्तर में दिनों दिन बढ़ोत्तरी का अहम कारण ग्लोबल वार्मिंग हैं। इस कारण द्वीपों पर डूबने का खतरा मंडरा रहा है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि यदि समुद्र का जलस्तर में बढ़ोत्तरी की यही रफ्तार रही तो 2020 तक 14 द्वीप पूरी तरह खत्म हो जाएंगे। सयुंक्त राष्ट्र का आकलन है कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर से छोटे-छोटे द्वीपों पर रहने वाले तक़रीबन 2 करोड़ लोग वर्ष 2050 तक विस्थापित हो चुके होंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि 21वीं सदी के अंत तक समुद्र के जलस्तर में एक मीटर की बढ़ोत्तरी होगी। मौजूदा हालात में 0.2 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की रफ्तार से तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है। इस कारण वर्ष 2100 तक 4 डिग्री तक दुनिया का तापमान बढ़ जाएगा।
इस बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से मानवीय, पर्यावरणीय और वित्तीय नुकसान बर्दाश्त करने की सीमा से बाहर होता जा रहा है। विश्व को कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा, तभी इस सदी के अंत तक विश्व कार्बन मुक्त हो सकेगा। बढ़ते तापमान के खतरे के लिए कार्ययोजना बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद 120 देशों का बीते दिनों न्यूयॉर्क में हुआ सम्मेलन भी बेनतीजा रहा। इसमें 2020 के बाद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के समझौते तय करने वाले 2015 के पेरिस सम्मेलन की बुनियाद रखी जानी थी। नतीजतन मुंबई, शंघाई, बीजिंग और न्यूयार्क जैसी बड़ी आबादी वाले तटीय शहरों को भी खतरा बढ़ेगा। साथ ही बाढ़, सूखा, तूफान और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की तादाद में भी बढ़ोत्तरी होगी। इन सबका कारण कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया के देशों में आम सहमति नहीं बन पाना है। अमीर देश, भारत और चीन जैसे देशों पर ज्यादा बोझ डालने के पक्ष में हैं। विकासशील देश आर्थिक विकास को जोखिम में डालकर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि विकसित देश अक्षय ऊर्जा और वैकल्पिक ऊर्जा के लिए तकनीक का हस्तांतरण क्यों नहीं करते? यही नहीं, उन्होंने तो इस हेतु सौ अरब डालर की राशि गरीब देशों को देने का जो वादा किया था वह भी पूरा नहीं किया। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र की चिंता जायज है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से मानवीय, पर्यावरणीय और वित्तीय नुकसान बर्दाश्त करने की सीमा से बाहर होता जा रहा है। विश्व को कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा। तभी इस सदी के अंत तक विश्व कार्बन मुक्त हो सकेगा। धरती पर बढ़ते तापमान के खतरे के लिए कार्य योजना बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर कोपेनहेगेन सम्मेलन के बाद 120 देशों का बीते दिनों न्यूयार्क में हुआ सम्मेलन भी बेनतीजा रहा। इसमें वर्ष 2020 के बाद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के समझौते तय करने वाले 2015 के पेरिस सम्मेलन की बुनियाद रखी जानी थी। इसमें भारत का दृढ़ मत था कि विकसित देश अपने वायदे के मुताबिक काम करें। तभी अंतरराष्ट्रीय समुदाय तय किए गये लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तय किए गए हैं। भारत वर्ष 2010 में कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान लिए संकल्प के अनुसार वर्ष 2005 के स्तर से 2020 तक अपनी जीडीपी के 20 से 25 फीसदी तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में कमी लाएगा।
इस कड़ी में वर्ष 2017 तक पवन ऊर्जा से 27.3 गीगावॉट, 4 गीगावॉट सौर उर्जा से, 5 गीगावॉट बायोमास और अन्य लक्ष्यों से कमी लाएगा। हालांकि कार्बन उत्सर्जन को कम करने की नीतियाँ विकसित देशों के रुख पर आकर ठहर जाती हैं। उनका अड़ियल रवैया कार्बन उत्सर्जन कम करने में सबसे बड़ा बाधक है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन द्वीपों को बचाया जाए। जरूरत इस बात की है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए, और वैकल्पिक ऊर्जा के श्रोत खोजे जाएं। कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में वैश्वीक स्तर पर कमी लाई जाए। समुद्री इलाकों में लगातार चट्टानों की खुदाई पर रोक लगाई जाए। समुद्री द्वीपों के इकोसिस्टम की सुरक्षा की जाए। प्राकृतिक संसाधनो का समुचित प्रयोग और उनका विकास किया जाए। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को कायम रखने के लिए समुद्री द्वीप संरक्षण कानून बनाया जाए और उसका सख्ती से पालन किया जाए। उसी दशा में कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब द्वीपों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
हालात का जायजा लें तो पाते हैं कि अभी तक समुद्र का जलस्तर बढ़ने से दुनिया में 18 द्वीप पूरी तरह जलमग्न हो चुके हैं। चौवन द्वीपों के समूह वाले सुंदरवन पर खतरा मंडरा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल के सुंदरवन के मतदाताओं के लिए द्वीपों के डूबने का खतरा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना था। यहां के मतदाताओं ने उम्मीदवारों से वायुमंडलीय तापमान में इजाफे के खतरे पर ध्यान देने की अपील की थी। रॉयल बंगाल टाइगर के लिए मशहूर सुंदरवन द्वीप समूह में कुल मिलाकर 40 लाख से भी ज्यादा मतदाता हैं। सुंदरवन खासतौर से बाढ़, तूफान, लवणता और कटाव की बढ़ती समस्याओं से प्रभावित रहा है। यहाँ पिछले तीस वर्षों में कटाव के चलते सात हजार लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। इसके अलावा 10 हजार से ज्यादा चीन के समीपवर्ती समुद्री द्वीपो पर भी खतरा मंडरा रहा है। दस हजार की आबादी वाला भारत का लोहाचार द्वीप 1996 में ही बर्बाद हो गया था।
बीते 25 वर्षों में बंगाल की खाड़ी में स्थित घोड़ामारा द्वीप 9 वर्ग किलोमीटर से घटकर 4.7 वर्ग किलोमीटर रह गया है। यह उस स्थिति में है। जबकि बंगाल की खाड़ी में समुद्र का जलस्तर 3.3 मिली मीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है। यही नहीं ऑकलैंड, न्यूजीलैंड, प्रशांत द्वीप क्षेत्र में स्थित दस लाख की आबादी वाला किरियाती द्वीप भी संकट में हैं। समुद्र का पानी दक्षिण प्रशांत क्षेत्र के उस द्वीप को पाट सकता है।
किरियाती का उच्चतम बिंदु समुद्र तल से केवल दो मीटर अधिक है। अभी किरियाती के लोगों को बसाने के खातिर 6 हजार एकड़ जमीन खरीदकर फिजी में शिफ्ट करने की योजना पर काम चल रहा है। असम में ब्रम्हपुत्र नदी के बीचोंबीच स्थित दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली बाढ़ और भूमि कटाव के कारण खतरे में है। इसका क्षेत्रफल 1278 वर्ग किलोमीटर से घटकर केवल 557 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इसके 23 गांव में तकरीबन डेढ़ लाख लोग रहते हैं।
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यहाँ के लोगों से वादा किया था कि यदि वह सत्ता में आई तो माजुली को विश्वविरासत का दर्जा दिलाएंगे। हालांकि यूनेस्को ने विश्व धरोहर के प्रस्ताव को रद्द कर दिया। इक्वडोर के 972 किलोमीटर पश्चिम में स्थित प्रशांत महासागर में भूमध्य रेखा के आस-पास फैले ज्वालामुखी द्वीपों का एक समूह है। जिसे गैलापोगोस कहते हैं। यह विश्व धरोहर स्थल है। वन्यजीव इसकी विशेषता हैं। लेकिन मानव द्वारा इन द्वीपों पर लाए गए पौधे और जानवर पारिस्थितिकी के लिए खतरा साबित हो रहे हैं। दरअसल समुद्र के जलस्तर में दिनों दिन बढ़ोत्तरी का अहम कारण ग्लोबल वार्मिंग हैं। इस कारण द्वीपों पर डूबने का खतरा मंडरा रहा है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि यदि समुद्र का जलस्तर में बढ़ोत्तरी की यही रफ्तार रही तो 2020 तक 14 द्वीप पूरी तरह खत्म हो जाएंगे। सयुंक्त राष्ट्र का आकलन है कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर से छोटे-छोटे द्वीपों पर रहने वाले तक़रीबन 2 करोड़ लोग वर्ष 2050 तक विस्थापित हो चुके होंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि 21वीं सदी के अंत तक समुद्र के जलस्तर में एक मीटर की बढ़ोत्तरी होगी। मौजूदा हालात में 0.2 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की रफ्तार से तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है। इस कारण वर्ष 2100 तक 4 डिग्री तक दुनिया का तापमान बढ़ जाएगा।
इस बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से मानवीय, पर्यावरणीय और वित्तीय नुकसान बर्दाश्त करने की सीमा से बाहर होता जा रहा है। विश्व को कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा, तभी इस सदी के अंत तक विश्व कार्बन मुक्त हो सकेगा। बढ़ते तापमान के खतरे के लिए कार्ययोजना बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद 120 देशों का बीते दिनों न्यूयॉर्क में हुआ सम्मेलन भी बेनतीजा रहा। इसमें 2020 के बाद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के समझौते तय करने वाले 2015 के पेरिस सम्मेलन की बुनियाद रखी जानी थी। नतीजतन मुंबई, शंघाई, बीजिंग और न्यूयार्क जैसी बड़ी आबादी वाले तटीय शहरों को भी खतरा बढ़ेगा। साथ ही बाढ़, सूखा, तूफान और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की तादाद में भी बढ़ोत्तरी होगी। इन सबका कारण कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनिया के देशों में आम सहमति नहीं बन पाना है। अमीर देश, भारत और चीन जैसे देशों पर ज्यादा बोझ डालने के पक्ष में हैं। विकासशील देश आर्थिक विकास को जोखिम में डालकर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि विकसित देश अक्षय ऊर्जा और वैकल्पिक ऊर्जा के लिए तकनीक का हस्तांतरण क्यों नहीं करते? यही नहीं, उन्होंने तो इस हेतु सौ अरब डालर की राशि गरीब देशों को देने का जो वादा किया था वह भी पूरा नहीं किया। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र की चिंता जायज है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से मानवीय, पर्यावरणीय और वित्तीय नुकसान बर्दाश्त करने की सीमा से बाहर होता जा रहा है। विश्व को कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा। तभी इस सदी के अंत तक विश्व कार्बन मुक्त हो सकेगा। धरती पर बढ़ते तापमान के खतरे के लिए कार्य योजना बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के आह्वान पर कोपेनहेगेन सम्मेलन के बाद 120 देशों का बीते दिनों न्यूयार्क में हुआ सम्मेलन भी बेनतीजा रहा। इसमें वर्ष 2020 के बाद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के समझौते तय करने वाले 2015 के पेरिस सम्मेलन की बुनियाद रखी जानी थी। इसमें भारत का दृढ़ मत था कि विकसित देश अपने वायदे के मुताबिक काम करें। तभी अंतरराष्ट्रीय समुदाय तय किए गये लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तय किए गए हैं। भारत वर्ष 2010 में कोपेनहेगन सम्मेलन के दौरान लिए संकल्प के अनुसार वर्ष 2005 के स्तर से 2020 तक अपनी जीडीपी के 20 से 25 फीसदी तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में कमी लाएगा।
इस कड़ी में वर्ष 2017 तक पवन ऊर्जा से 27.3 गीगावॉट, 4 गीगावॉट सौर उर्जा से, 5 गीगावॉट बायोमास और अन्य लक्ष्यों से कमी लाएगा। हालांकि कार्बन उत्सर्जन को कम करने की नीतियाँ विकसित देशों के रुख पर आकर ठहर जाती हैं। उनका अड़ियल रवैया कार्बन उत्सर्जन कम करने में सबसे बड़ा बाधक है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन द्वीपों को बचाया जाए। जरूरत इस बात की है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए, और वैकल्पिक ऊर्जा के श्रोत खोजे जाएं। कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में वैश्वीक स्तर पर कमी लाई जाए। समुद्री इलाकों में लगातार चट्टानों की खुदाई पर रोक लगाई जाए। समुद्री द्वीपों के इकोसिस्टम की सुरक्षा की जाए। प्राकृतिक संसाधनो का समुचित प्रयोग और उनका विकास किया जाए। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को कायम रखने के लिए समुद्री द्वीप संरक्षण कानून बनाया जाए और उसका सख्ती से पालन किया जाए। उसी दशा में कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब द्वीपों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
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Post By: pankajbagwan