दुर्घटना का जिम्मेवार कौन है?

बांध के टूट जाने से इस पैसे से किये, या न किये गये काम का सारा सबूत मिट गया और बाढ़ नियंत्रण नाटक के पहले अंक का पटाक्षेप हो गया जब तटबन्ध पर आपातस्थिति बनने लगी तो ठेकेदारों ने भी अपने रंग दिखाने शुरू किये। यहाँ जो स्टाफ था वह एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, सुपरिन्टेडिंग इंजीनियर यहाँ तक कि चीफ इंजीनियर भी, सब नये थे। सब ने अप्रैल 1984 के आस पास यहाँ अपना पद संभाला था। ठेकेदारों ने भुगतान के लिए एस. डी. ओ. का घेराव किया।

जहाँ लोग तटबन्ध टूटने से अपने घर-द्वार, सम्पत्ति, फसल और रोजगार के साधन खो कर दर-दर के भिखारी बन गये वहीं एक दूसरा नाटक भी चल रहा था कि तटबन्ध टूटने की जिम्मेवारी किस पर डाली जाय। वास्तव में 1984 में मई महीने से ही बारिश शुरू होने के बाद बराज से 75-78 कि.मी. दूरी पर तटबन्ध पर कटाव का अन्देशा बना हुआ था और इस स्थान पर युद्ध स्तर पर बचाव कार्य चल भी रहा था। बिहार के सिंचाई विभाग के अभियंता-प्रमुख स्वयं बाँध टूटने से एक दिन पहले आकर बचाव कार्य देख गये थे और बाँध की स्थिति देख कर निश्चित तौर पर उन्होंने यह नहीं कहा था कि बाँध के टूट जाने का खतरा है। बाँध कब टूटा इसके बारे में भी मतभेद बने रहे। कुछ लोगों का कहना है कि तटबन्ध 5 सितम्बर की रात में टूटा और आधिकारिक रूप से इसकी सूचना 6 सितम्बर की शाम को दी गई और यह बीच का समय बाँध टूटने के कारणों का सबूत गायब करने के काम आया। दुर्घटना के समय प्रशासन के उफँचे अधिकारी भी शहर में नहीं थे और लागों को उनके भाग्य के सहारे छोड़ दिया गया। उसके बाद दस्तूर के मुताबिक कीचड़ उछालने का काम शुरू हुआ। कहा जाता है कि तत्कालीन राहत और पुर्नवास मंत्री ने राहत कार्यों में गड़बड़ी की जिम्मेवारी अपने ऊपर लेते हुए इस्तीफा दिया जो कि बाद में वापस ले लिया गया। एक जाँच समिति का भी गठन हुआ जिसने कुछ अभियंताओं को इस दुर्घटना के लिए दोषी पाया और उनके निलम्बन की सिफारिश की और यह कहा गया कि बड़ी मात्रा में धन के आवंटन के बावजूद कटावरोधी काम जान बूझ कर देर से शुरू किये जाने के कारण ही दुर्घटना घटी। अभियंता-प्रमुख के ऊपर भी आरोप लगा कि उन्होंने तटबन्धों की सुरक्षा के सम्बन्ध में प्रशासन को गुमराह किया। अब बारी अभियंता प्रमुख के इस्तीप़ेफ की थी जो कि सम्भवतः देकर वापस ले लिया गया। निलम्बन के मुद्दे को लेकर अभियंताओं ने हड़ताल की धमकी दी जो देकर वापस ले ली गई।

जाँच बैठाना, निलम्बन, इस्तीफा, हड़ताल की धमकी और इन सारी चीजों को वापस लिये जाने का नाटक विभिन्न स्तरों पर 1985 तक चलता रहा और नई बाढ़ के साथ सारी चीजे़ं पुरानी पड़ गईं। तटबन्ध टूटने के कुछ ही दिन पहले 51 लाख रुपये का भुगतान मरम्मत कार्यों पर लगे हुये ठेकेदारों को किया गया था जिनमें से कुछ सक्षम स्थानीय राजनीतिज्ञों के सम्बन्धी थे और कुछ परियोजना के इन्जीनियरों के रिश्तेदार बताये जाते हैं। इस मामले को भी उन दिनों काफी उछाला गया। इन्जीनियरों द्वारा सफाई में बहुत सी पुरानी रिपोर्टं खोद कर निकाली गईं जिनमें तटबन्धों और योजनाओं के भविष्य पर शंका व्यक्त की गई थी और कहा गया था कि तटबन्ध बाढ़ की समस्या का आखिरी समाधान नहीं है।

इन रिपोर्टों का हवाला देकर लोगों को यह समझाने की कोशिश की गई कि तटबन्धों का प्रभावी जीवन काल 25 वर्ष का था जो कि पूरा हो चुका है। वह समाचार पत्र जिन्होंने 70 के दशक में तटबन्धों के जीवन काल तथा बराहक्षेत्र में बनाये जाने वाले बाँध की पुरजोर वकालत की थी इस बार खामोश रह गये। किसी भी इन्जीनियर ने न तो बराहक्षेत्र वाले बाँध का नाम लिया और न ही एक भी इन्जीनियर ने इस मुद्दे पर त्यागपत्र दिया कि जीवन काल पूरा हुये तटबन्धों की मरम्मत वह नहीं कर सकता और यह कि उनके अनुसार सही तथा ज्ञात समाधान बराहक्षेत्र का बड़ा बाँध ही है जिसके लिए कोसी सलाहकार परिषद ने काफी पहले, 1974 में, चेतावनी दी थी और कहा था कि यह काम प्राथमिकता के स्तर पर होना चाहिये।

मार्च 1985 में हेमपुर और चन्द्राइन के बीच पड़ी इस दरार को लगभग 8 करोड़ रुपये खर्च करके रिटायर्ड लाइन की मदद से बाँध दिया गया और अधिकांश लोग अपने गाँवों को वापस लौटने लगे तो धीरे-धीरे सारी बातें भुला दी गईं। इस बीच घरों की मरम्मत के लिए थोड़ा बहुत पैसा कुछ परिवारों को सरकार द्वार अवश्य बाँटा गया।

तटबन्ध टूटने के सवाल पर कर्पूरी ठाकुर ने 10 सितम्बर 1984 को बिहार विधान सभा में शून्य काल में एक स्थगन प्रस्ताव रखा जिसमें उन्हों ने कहा कि, ‘ ...मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि बार-बार अधिकारियों को कहने के बावजूद उस पर ध्यान न देकर, समय पर जो मरम्मती का कार्य, साधारण सा कार्य करना चाहिये था वह नहीं हुआ। फलस्वरूप कोसी के पूर्वी तटबन्ध का 76 से 78 आर. डी. तक बांध टूट गया और पूरा का पूरा सहरसा जिला पानी में करीब-करीब डूब गया है। वहाँ की स्थिति बड़ी भयावह है। इसको रोकने के लिए जिला के प्रशासन को जो करना चाहिये, सिंचाई विभाग के अभियंतागण को जो करना चाहिये, वह नहीं किया गया। ... रोम जल रहा था और नीरो बंशी बजा रहा था वैसे ही यह सरकार टुकुर-टुकुर ताक रही है। इसलिए इस सरकार को गद्दी पर बैठने का हक नहीं है।’’ इस प्रस्ताव की नामंजूरी पर विपक्षी सदस्यों ने सदन से वाक आउट किया मगर 13 सितम्बर 1984 को इसी बात पर फिर बहस हुई।

इस घटना को लेकर जयप्रकाश नारायण यादव ने सरकार पर तीखे प्रहार किये। उन्होंने कहा कि, ‘‘ ... आज सहरसा की जनता दियासलाई के लिए, मोमबत्ती के लिए, ब्लीचिंग पाउडर के लिए, दवा के लिए, रोटी के लिए तरस रही है और वहाँ के मंत्री इस ढंग से जनता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। मैं मंत्री जी से कहना चाहता हूँ कि इसके लिए आप एक मात्र जिम्मेवार हैं- आप को इस्तीफा करना चाहिये था मगर आप थेथर हैं, इस्तीफा कर के भी इस्तीफा नहीं करते हैं। ... केवल माफी मांगने से काम नहीं चलेगा।’’

उधर विधायक अमरेन्द्र मिश्र ने अपनी ही पार्टी की सरकार पर आरोप लगाया कि तटबन्ध टूटने से 6 प्रखण्डों के 5 लाख लोग प्रभावित हुये हैं और इन बाढ़ पीडि़तों को दस दिन के बाद तक भी एक भी त्रिपाल नहीं दिया गया है। कुछ खाने के पैकेट जरूर गिराये गये हैं मगर नावें नदारद हैं। उनका मानना था कि सुरक्षात्मक कामों के अभाव में यह घटना हुई है। इसके पीछे स्थानीय अधिकारियों की लापरवाही रही है और बोल्डर के नाम पर लाखों रुपयों का घोटाला हुआ है। उन्होंने दोषी अधिकारियों के खि़लाफ कठोर दण्डात्मक कार्यवाही की सिफारिश की। विधायक विश्वनाथ गुरमैता का मानना था कि बराज के सभी फाटक एक साथ खोल देने से यह दुर्घटना हुई थी। हड़ताली कर्मचारी चाभियाँ छोड़ कर चले गये थे और बराज के एस. डी. ओ. ने सारे फाटक एक साथ खुलवा दिये। उन्होंने सुपरिन्टेंडिंग इंजीनियर पर आरोप लगाया कि 3 सितम्बर को उन्होंने ठेकेदारों को 51 लाख रुपये का भुगतान किया और बीमारी का बहाना बना कर छुट्टी पर चले गये। 5 सितम्बर को बांध टूट गया।

जगन्नाथ मिश्र ने, जो कि इस बीच किसी तरह सहरसा पहुँच पाये थे, अपनी ही पार्टी की सरकार पर आरोप लगाया कि, ‘‘ ... सरकार का कोई आदमी सरकारी स्तर पर नहीं गया है। अगर वहाँ का आदमी जिन्दा होगा तो वह सोचता होगा कि हम दस दिनों से पानी में घिरे हुये हैं और हमको कोई देखने वाला नहीं है। यह एक चिन्ता का विषय है। मैं कहूँगा कि अभी भी वहाँ के गाँवों में जो लोग जिन्दा हैं उनको देखने की कोशिश की जाय। उनको कैसे बचाया जाये, नाव से लाया जाय या हेलिकॉप्टर से, इसका प्रबन्ध किया जाय। ... सहरसा की बाढ़ कोई साधारण नहीं है, बल्कि असाधारण है और इसको हम बाढ़ की संज्ञा नहीं दे सकते, यह प्रलय है।’’ उधर गणेश यादव चाहते थे कि सहरसा के कलक्टर के निलम्बन की घोषण सदन में ही की जाये क्योंकि, ‘‘ ...कलक्टर की यह जुर्रत कि वह रिलीफ मिनिस्टर से कहे कि आप मेरे साथ अनाप-शनाप मत बोलिये।’’

राजस्व मंत्री लहटन चौधरी ने बचाव का रुख अख्तियार करते हुये कहा कि, ‘‘ ...ऐसे लोगों को तुरन्त मदद नहीं पहुँच सकी है, अक्षमता के कारण नहीं बल्कि परिस्थिति के कारण और इसलिये मैंने इसके लिए माफी मांगी है।’’

अगले दिन 14 सितम्बर 1984 को विधान सभा में सरकार की तरफ से कृष्णानन्द झा ने पूर्वी तटबन्ध के ध्वंस होने पर वक्तव्य दिया। उन्होंने बताया कि 3 सितम्बर 1984 को अचानक नदी अपनी धारा बदल कर 75.60 से 75.90 के बीच तटबन्ध के पास आ गई और वहाँ कटाव शुरू हो गया। पूर्णियाँ से चीफ इंजीनियर 4 सितम्बर शाम को 9 बजे कटाव स्थल पर पहुँचे और उनके निर्देशन में कटाव निरोधक काम शुरू हुये। सहरसा के कमिश्नर, राज्य के रिलीफ कमिश्नर, राजस्व मंत्री और विभाग के इंजीनियर-इन-चीफ ने 5 सितम्बर पूर्वाह्न में कटाव स्थल का निरीक्षण किया मगर उस दिन दोपहर बाद भारी वर्षा शुरू हो गई और बोल्डरों की आमद पर इसका बुरा असर पड़ा। प्रशासन को इसकी खबर दी गई और 6 सितम्बर की सुबह 4.45 पर बाँध में दरार पड़ गई और पानी ग्रामीण क्षेत्रों की ओर बढ़ने लगा। इस पानी ने एक बार फिर 8 सितम्बर 1984 को कोपड़िया के पास पूर्वी तटबन्ध को काटा और कोसी नदी में जा मिला। जाँच का आश्वासन देते हुये उन्होंने यह भी कहा कि जिस 75 लाख रुपये के भुगतान की बात की जा रही है, ऐसा कोई भुगतान नहीं किया गया है।

जहाँ तक ठेकेदारों का काम के बदले भुगतान का सवाल है वहाँ समाचार पत्र/पत्रिकाओं में यह आरोप लगाया गया कि तटबन्ध मरम्मत के लिये हाई लेवल टेकनिकल कमेटी ने दिसम्बर 1983 में 58 से 77 किलोमीटर तक तटबन्ध को नाशुक पाया था। पाँच करोड़ रुपयों की लागत से काम पूरा करने की सिफारिश कोसी कंट्रोल बोर्ड ने की और सरकार ने राशि स्वीकृत की 1 करोड़ 33 लाख 902 रुपये। 52,000 टन पत्थर गिराने का आदेश हुआ। 1 सितम्बर 1984 को बांध बचाव कार्य के लिए स्वीकृत राशि की आखिरी किस्त का भुगतान 51 लाख रुपये, पत्रांक 3225 के जरिये किया गया। 2 सितम्बर 1984 से 4 सितम्बर 1984 के बीच, केवल तीन दिनों में 76 कि.मी. से 77.50 कि.मी. के बीच का सारा काम सम्पन्न हुआ और उसका भुगतान भी कर दिया जिसमें कुछ भुगतान का विवरण नीचे दिया जा रहा है।

1

मारुति माइनिंग कारपोरेशन

3,48,155रु.

2.

एल. डी. कम्पनी

4,50,459रु.

3.

नॉर्थ बिहार कन्स्ट्रक्शन कम्पनी

5,83,560रु.

4.

ठाकुर एण्ड कम्पनी

1,05,431रु.

5.

रॉयल ब्रद्रर्स

4,36,125रु.

6.

के. एन. झा

1,35,154रु.

7.

रामजी राउत

1,40,467रु.

8.

तुफैल अहमद

1,43,105रु.

9.

बदरी प्रसाद

1,15,019रु.

10.

मोहन मंडल

2,07,572रु.

11.

नागेश्वर सिंह और रंजन सिंह

3,33,659रु.

12.

हरिराम सिंह

4,75,023रु.

13.

इन्द्र एन. सिंह

3,03,651रु.

14.

विन्देश्वरी सिंह

3,39,918रु.

15.

राजेश्वर

2,75,987रु.

16.

राजेश कुमार सिंह

1,11,056रु.

कुल

45,04,341रुपये



बांध के टूट जाने से इस पैसे से किये, या न किये गये काम का सारा सबूत मिट गया और बाढ़ नियंत्रण नाटक के पहले अंक का पटाक्षेप हो गया यद्यपि जगदीश पाण्डेय का कहना है कि, ‘‘ ... ठेकेदारों के काम का पैसा 1983 से बाकी था और उनका कुछ पावना जून 1984 वाले काम का भी बनता था। जब तटबन्ध पर आपातस्थिति बनने लगी तो ठेकेदारों ने भी अपने रंग दिखाने शुरू किये। यहाँ जो स्टाफ था वह एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, सुपरिन्टेडिंग इंजीनियर यहाँ तक कि चीफ इंजीनियर भी, सब नये थे। सब ने अप्रैल 1984 के आस पास यहाँ अपना पद संभाला था। ठेकेदारों ने भुगतान के लिए एस. डी. ओ. का घेराव किया। हमारी बीच-बचाव की पहल करने पर हमको भी घेर लिया। हम लोगों ने सारे भुगतान कर देने के लिये दो महीने का समय मांगा मगर अधिकांश ठेकेदार नहीं माने यद्यपि उनका रुख थोड़ा नर्म जरूर पड़ा था। बाद में हम लोगों ने तय किया कि नये आवंटन में से जिस-जिस इंजीनियर की जो क्षमता बनती है उसके अनुसार वह भुगतान करके काम को रुकने से बचाये।’’ उन्होंने आगे बताया कि, ‘‘ ... जब बांध टूट गया तब तो जितने मुँह उतनी बातें हम लोगों को सुननी पड़ीं। कृष्णनन्द झा मंत्री थे। उन्होंने इंजीनियरों के निलंबन का बयान दे दिया। इस कदम से इंजीनियर-इन-चीफ नीलेन्दु सान्याल बहुत नाराज हुये और उन्होंने भी त्याग पत्र देने की बात कही मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।’’ उधर आम जनता में यह भावना प्रबल थी कि ठेकेदारों और एजेन्सियों के भुगतान तटबन्ध टूटने की स्थिति में रुक जाते और उन्हें काली सूची में डाल दिया जाता। इसलिए उनका भुगतान कर दिया गया जबकि लोगों का मानना था कि इंजीनियरों ने जितनी तत्परता ठेकेदारों के पैसों के भुगतान में दिखाई उसका अगर सौवाँ हिस्सा भी सुरक्षा सामग्री इकट्ठा करने और तटबन्ध की देख-रेख में लगाया होता तो यह दुर्दिन नहीं देखना पड़ता।

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Post By: tridmin
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