दुइ पाटन के बीच में

पृष्ठभूमि


एक बार 1992 में बिहार सरकार द्वारा सहरसा/मधुबनी और दरभंगा के जिलाधीशों से कोसी तटबन्धों के बीच बसे गाँवों की सूची मांगी गई थी, उसमें भी अशुद्धियाँ हैं। सुपौल के पुनर्वास कार्यालय से जो तटबन्धों के बीच फंसे गाँवों की सूची हमें उपलब्ध हो सकी उसमें ऐसे गाँवों की संख्या केवल 285 बताई गई है। इस तरह से इन गाँवों सम्बन्धी जितने स्रोत हैं, उतनी ही जैसी-तैसी सूचनाएँ भी उपलब्ध हैं। मार्च 1959 में बिहार विधान सभा में बिहार एप्रोप्रिएशन बिल पर बहस चल रही थी। कोसी तटबन्ध इस समय तक लगभग बन कर तैयार हो चुके थे। रसिक लाल यादव ने 20 मार्च की बहस में तटबन्धों पर एक बड़ी तीखी टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा कि, “...कोसी नदी को बांध दिया। इसके बीच से पहले लोग निकल सकते थे लेकिन अब घेर दिया है जिससे वे निकल नहीं सकेंगे और रेवेन्यू डिपार्टमेन्ट (राजस्व विभाग) की हालत यह है कि सरकार के सरकिल अफसर लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूल करते हैं जबकि उनका घर पानी में है। वे ऐसे लोगों को भी खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूलते हैं जो केवल ककड़ी पैदा करके अपना जीवन बसर करते हैं। जो नदी के बाहर हैं उनको कहा जाता है कि खेती करने के लिए बांध के बीच में जायें। लेकिन जब वे खेती करने के लिए जाते हैं तो घटवार लोग उन्हें खदेड़ कर घाट वसूल लेते हैं। कोसी योजना उनकी रक्षा के लिए बनाई गई थी न कि उनको खदेड़ने के लिए।”

रसिक लाल यादव ने सरकार पर कोसी परियोजना में पुनर्वास के नाम पर हुई बदइन्तजामी की जो बात उठाई थी उसके बाद से अब तक 47 वर्षो में कुछ भी नहीं बदला है सिवाय इसके कि उन लोगों को जिनको कोसी तटबन्धों के बाहर पुनर्वास मिला था उनमें से अधिकांश अब अपने गाँवों को, तटबन्धों के अन्दर वापस चले गये हैं। हम पहले बता आये हैं कि कोसी पर तटबन्धों के निर्माण के फलस्वरूप दोनों तटबन्धों के बीच पहली खेप में 304 गाँवों के 1,92,000 (1951 जनगणना) लोग फंस गये थे जिनका पुनर्वास जरूरी हो गया था। यह परिस्थिति उस समय की है जब पूर्वी तटबन्ध का निर्माण भीमनगर से महिषी तक और पश्चिमी तटबन्ध का निर्माण भारदह से भंथी तक हुआ था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि कोसी का पूर्वी तटबन्ध बाद में महिषी से कोपड़िया तक और पश्चिमी तटबन्ध भंथी से घोंघेपुर तक बढ़ा दिया गया। फिलहाल आधिकारिक तौर पर यह विश्वसनीय सूचना कहीं भी आम जनता के लिए उपलब्ध नहीं है कि कोसी तटबन्धों के बीच कितने गाँव हैं और वहाँ रहने वालों की जनसंख्या कितनी है। सुपौल में कोसी योजना का पुनर्वास का दफ्तर जरूर है मगर वहाँ भी सूचनायें व्यवस्थित रूप से उपलब्ध नहीं हैं। विधान सभा में भी इस विषय पर प्रश्न हुये हैं मगर 18 दिसम्बर 1958 को जो 304 गाँवों की सूची सदन में रखी गई थी (तारांकित प्रश्न संख्या 98 का उत्तर) वह भी अपूर्ण और भ्रामक है। इस सूची में ऐसे गाँव भी शामिल हैं जो पूरी तरह तटबन्धों से बाहर हैं। एक बार 1992 में बिहार सरकार द्वारा सहरसा/मधुबनी और दरभंगा के जिलाधीशों से कोसी तटबन्धों के बीच बसे गाँवों की सूची मांगी गई थी, उसमें भी अशुद्धियाँ हैं। सुपौल के पुनर्वास कार्यालय से जो तटबन्धों के बीच फंसे गाँवों की सूची हमें उपलब्ध हो सकी उसमें ऐसे गाँवों की संख्या केवल 285 बताई गई है। इस तरह से इन गाँवों सम्बन्धी जितने स्रोत हैं, उतनी ही जैसी-तैसी सूचनाएँ भी उपलब्ध हैं। इस अध्याय में हम अन्यत्र इन गाँवों की सूची और जनसंख्या देने का प्रयास कर रहे हैं जो कि प्रभावित प्रखण्डों द्वारा उपलब्ध कराये गये नक्शों, चुनाव कार्यालयों के नक्शों, 2001 की जन-गणना रिपोर्ट तथा उपर्युक्त दस्तावेजों की सूचनाओं पर आधारित हैं। हम ने जहाँ तक संभव हो सका है इस सूची का क्षेत्र के स्तर पर सत्यापन किया है और यह उम्मीद करते हैं कि इसमें कोई त्रुटि नहीं रहनी चाहिये।

अनौपचारिक रूप से कहा जाता है कि तटबन्धों के बीच कोई आठ लाख लोग रहते होंगे। इन गाँवों से होकर कोसी का सारा पानी आजकल बहता है। जिन लोगों ने कोसी के तटबन्धों के निर्माण और समाज के व्यापक हितों के लिए अपने हितों की कुर्बानी दे दी, उनका हाल-चाल पूछने की भी फुर्सत अब किसी के पास नहीं है।

यद्यपि कोसी पर बराहक्षेत्र बांध बनाने का पहला प्रस्ताव 1937 में पटना बाढ़ सम्मेलन में किया गया था पर वास्तव में कोसी पर हाई डैम बनाने की नीयत से हुकूमत की नजर पहली बार 1946 में पड़ी थी जब तत्कालीन वाइसराय लॉड वैवेल दरभंगा महाराजा की दावत पर कोसी के इलाके में आये थे। उन्हीं की पहल पर कोसी को नियंत्रित करने के लिए सेन्ट्रल वाटर, इरिगेशन और नेविगेशन कमीशन (CWINC) को इस काम के लिए एक योजना बनाने का दायित्व दिया गया। सी0 एच0 भाभा के निर्मली के भाषण (1947) की यही पृष्ठ भूमि थी। कोसी नदी पर किसी प्रस्तावित बांध से होने वाले विस्थापन और पुनर्वास के संदर्भ में संभवतः पहला बयान राय बहादुर अयोध्या नाथ खोसला, अध्यक्ष, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ इरिगेशन ऐण्ड पॉवर ने दिल्ली में दिया था (1947) कि, “...यह बेहतरहोगा कि फायदे और कुर्बानियों को बराबर-बराबर बांटा जाय। ऐसे इलाके जहाँ पुनर्वास के लिए जमीन उपलब्ध नहीं है, वहाँ इसे उन लोगों से हासिल किया जाय जिनको योजना से सिंचाई का फायदा होने वाला है। ऐसे लोगों से यह कहा जाय कि वह डूब क्षेत्र और कुल सिंचित और कुल सुरक्षित होने वाली जमीन के अनुपात में अपनी जमीन का हिस्सा विस्थापितों को दें। बस इतना ध्यान जरूर रखना चाहिये कि ऐसा करने से कोई भी जोत इतनी छोटी न हो जाये कि उससे कोई फायदा ही न हो। पुनर्वास और क्षतिपूर्ति का मसला दूरदृष्टि और सहानुभूति के आधार पर तय होना चाहिये। जहाँ तक मुमकिन हो सके पुनर्वास में जमीन के बदले जमीन दी जाये। पूरी तरह डूब जाने वाले इलाकों के स्थान पर नई जगहों पर बसने वाले लोगों के लिए आदर्श सुविधाओं सहित आदर्श गाँव बसाये जायें।”

यह अयोध्या नाथ खोसला की ओर से एक इंजीनियर की हैसियत से दिया हुआ उस समय का बयान था जब बातचीत बराहक्षेत्र बांध के बारे में चल रही थी और कोसी तटबन्ध किसी गिनती में ही नहीं थे। यह आजाद भारत की उस समय की सभी नदी घाटी योजनाओं के सन्दर्भ में दिया गया बयान था। जहाँ तक बराहक्षेत्र बांध का सवाल है उसका तो सारा विस्थापन और पुनर्वास नेपाल में होने वाला था अतः वह स्थानीय चिन्ता का विषय नहीं था।कोसी तटबन्धों के बीच फंसने वालों के पुनर्वास का जहाँ तक सवाल था, उसके लिए कंवर सेन और डॉ. के0 एल0 राव (1954) ने चीन की ह्नांग हो नदी घाटी परियोजना में मिलने वाली पुनर्वास योजनाओं का हवाला देते हुये कहा था कि, “...वहाँ 2,40,000 लोग ऐसे थे जो उस इलाके में फंसने वाले थे जो कि भविष्य में डूब जाता। इनमें से 80,000 लोगों को घाटी के बाहर पुनर्वासित कर दिया गया। बाकी बचे 1,60,000 लोग घाटी में ही रहेंगे और वहीं रह कर खेती-बाड़ी करेंगे और क्योंकि नदी घाटी वाले क्षेत्र के डूबने की सम्भावना 10 से 15 वर्ष के अन्तर पर ही बनती है, इसलिए इन लोगों को जो भी नुकसान या परेशानी होगी वह इतने लम्बे समय के बाद ही होगी। जब भी उनकी फसलों को वास्तव में कोई नुकसान होगा तब उनकी लगान माफ कर दी जायेगी और क्षतिपूर्ति कर दी जायेगी।”

डॉ. के. एल. राव और कंवर सेन के इस सुझाव ने आने वाले समय में तटबन्धों के निर्माण के कारण होने वाली समस्याओं के समाधान के रास्ते खोल दिये। वह लोग जोकि कोसी तटबन्धों के बीच फंसने वाले थे वह तो वैसे भी परेशान थे क्योंकि उनका तो भविष्य ही दांव पर लग गया था। इसके बाद जो खिचड़ी ललित नारायण मिश्र के 2 दिसम्बर 1954 वाले बयान और सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ इरिगेशन ऐण्ड पॉवर की प्रयोगशाला की रिपोर्ट के जरिये पकी वह हम अध्याय-2 खण्ड 2-30 में देख आये हैं।

Path Alias

/articles/daui-paatana-kae-baica-maen

Post By: tridmin
×