अपनी परम्परागत फसलों की तो खूब समझ किसानों को थी किन्तु इन नई किस्मों को जो नए तरह के रोग लग रहे थे, उसके उपचार के लिये वे क्या करें उन्हें पता नहीं था। कभी कोई महंगी रासायनिक दवा का नाम उन्हें बता दिया जाता था तो कभी किसी दूसरी का। इस चक्कर में तो वे ऐसे फँसे कि अन्धाधुन्ध पैसा खर्च डाला पर फिर भी बीमारियों व कीड़ों के प्रकोप को सन्तोषजनक ढंग से कम नहीं कर पाये। जहाँ एक ओर जमीनी स्तर पर किसान इन अनुभवों से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के स्तर पर ऐसे प्रयास चल रहे थे कि किसानों पर अपना नियंत्रण और बढ़ा लिया जाये।वर्ष 2016 का बजट प्रस्तुत करते समय वित्त मंत्री ने और बाद में प्रधानमंत्री ने भी दावा किया था कि सन 2022 तक देश में किसानों की आय दुगुनी कर दी जाएगी। निस्सन्देह कृषि उत्पादों की कीमत बाजार में दोगुनी होने से तो ऐसा नहीं होगा। दालों, सब्जियों के बाजार दाम दुगने होने पर भी किसान को नगण्य सा अतिरिक्त लाभ पहुँचता है।
दोगुनी आय उत्पादन बढ़ने से भी नहीं होगी। इसी बजट के बाद कतिपय कृषि उत्पादों की ज्यादा आवक होने पर मण्डी माफियाओं ने खरीदी कीमत इतनी गिरा दी थी कि बढ़े उत्पादन को मण्डियों तक ले जाने का भी खर्चा न मिलने से अवसादग्रस्त किसानों द्वारा अपने फसलों को जलाने व आत्महत्याओं तक की खबरें आने लगीं। यही नहीं सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि जैसे मौसम की मार से पीडि़त किसान का मुआवजा कई बार कुछ सौ रुपयों का ही बनता है, जो खेती में बीज खाद मेहनत की भी कीमत नहीं होती है।
मानकों के चलते ऐसा भी होता है कि नंगी आँखों जो नुकसान साफ दिखता है, उसे नुकसान या आपदा माना ही नहीं जाता है। ऐसे में रणनीति और संकल्प तो ऐसा होना चाहिए कि भले ही सन 2022 तक किसानों की आय दोगुनी न हो किन्तु उनकी आत्महत्याएँ तो शून्य हो जाएँ। दुःखद है कि कुछ किसानों को आत्महत्या ही ऐसा रास्ता लगने लगता है, जिससे परिवार के हाथों कुछ पैसा पहुँचा सकता है।
किसानों पर मार कई तरह से पड़ रही है। कई राज्यों में जिनमें उत्तराखण्ड और हिमाचल तो इसके अग्रणी उदाहरण हैं कि जंगलों से लगे क्षेत्रों में किसानों ने बन्दर, सुअर, नीलगाय, साही, भालू, हाथियों आदि द्वारा की जाने वाली तबाहियों के कारण उपजाऊ खेतों में भी खेती बन्द कर दी है। आतंकवाद और युद्ध आशंकाओं के बीच जब बारूदी सुरंगें बिछानी होती हैं या बिछी रहती हैं तब भी किसानों को उपजाऊ खेतों को खाली रखना पड़ा है। नेताओं के भाषणों के लिये मैदान बनाने के लिये या हेलीकॉप्टरों को उतारने के लिये भी खेतों व खेती को बर्बाद किया जाने की खबरें अब आने लगी हैं।
किसान के नुकसान के कुछ नए-नए कारण भी सामने आ रहे हैं। बाँधों की ही बात लें। यों तो आम धारणा यही है कि बाँधों से किसानों को फायदा ही होता है। किन्तु यथार्थ में सभी जगहों पर ऐसा नहीं होता है। टिहरी बाँध विशाल जलाशय के आसपास के क्षेत्रों में वायुमण्डल में निरन्तर बनी रहने वाली नमी व मृदा में भूजल-भराव के कारण पड़ोस के बागवानी व बेमौसमी सब्जी उगाने वाले किसानों का नुकसान भी बढ़ा है।
अतः समाधान फसल बीमा योजना से फसल नुकसान के भरपाई में ही निहित नहीं है, बल्कि किसान को ऐसे पर्यावरणीय व प्रशासनिक परिवेश की सुरक्षा देने का भी है, जिससे किसान जिस तरह की खेती करना चाहता है वह कर सके।
आप यदि किसान के आस-पास भूस्खलन के क्षेत्र, वायुमण्डलीय प्रदूषण के क्षेत्र, खनन-स्टोनक्रशरों के क्षेत्र, आतंकवाद या भूभक्षक माफियाओं के क्षेत्र बढ़ा देंगे अथवा नहर तालाबों को पटने देंगे या अनियंत्रित वनाग्नि को रोकने के लिये कुछ नहीं करेंगे, तो क्या होगा। दूसरी हरित क्रान्ति के लिये प्रस्तावित पूर्वोतर भारत के क्षेत्रों में ऐसी प्रतिगामी स्थितियों की आशंका कुछ ज्यादा ही है।
बीमा योजनाओं या रेडियो पर मन की बातों को करने में तो इसका हल नहीं पाया जाएगा। अन्यथा ऐसी भरपाई तो अन्धी दौड़ हो जाएगी। किसान बार-बार अपने नुकसान के मूल्यांकन के लिये गुहार लगाने कार्यालयों के चक्कर लगाने से भी तो टूट जाएगा। गाँवों से पलायन की जैसी स्थिति है उसमें तो कई गाँवों में, परिवारों में कार्यालयों के चक्कर लगाने वाले ही नहीं रह गए बल्कि शवों को कंधा देने के लिये भी लोगों को गुहार लगानी पड़ती है। खेती के लिये मजदूर नहीं हैं। स्थिति यह हो गई है कि मनरेगा से काम कराने के लिये भी बाहर से मजदूरों को ढूँढना पड़ता है।
सूखे आदि के देर में घोषणा होने से अगली फसल के लिये ही पैसा हाथ में नहीं होता है, ऐसे में अचानक ब्याह, शादी, बीमारी, मरण, जीवन के खर्चे भी यदि बढ़ जाएँ तो फिर उसे साहूकारों के चंगुल से भी कोई नहीं बचा सकता है। सेमिनारों में, माइक्रो क्रेडिट संस्थानों व संस्थाओं से मदद पाने की सम्भावनाओं की बड़ी-बड़ी बात की जाती हैं, परन्तु ऐसी संस्थाओं द्वारा भयावह ढंग से वसूली किये जाने की खबरें भी अब आने लगी हैं। अवसाद व चिन्ता से ग्रस्त किसान आत्महत्या न भी करे किन्तु उसके परिवार के लिये अस्मिता व गुणवत्ता वाला जीवन जीना मुश्किल हो गया है।
किसानों की आय बढ़े या न बढ़े, आत्महत्याएँ कम हों या नहीं किन्तु आजादी के बाद से ही किसानों के नाम पर होने वाली राजनीति में कोई कमी नहीं हुई है। इस प्रवृत्ति को रोकना ही होगा।
श्री वीरेन्द्र पैन्यूली स्वतंत्र लेखक हैं।
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Post By: RuralWater