आइए, हम आपको एक ‘इंजीनियर साहब’ से मिलवाते हैं। यह कोई टी-शर्ट और जीन्स नहीं पहने हैं। साधारण कुर्ते-पायजामे का लिबास ज्यादा उलझिये मत, इन्होंने किसी विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की शिक्षा भी हासिल नहीं की है। जनाब ये हैं केवल दसवीं पास, नाम है लक्ष्मणसिंह मूणिया और अभी तक लगभग 15 तालाब बना चुके हैं। इनके साथ एक जुमला भी चलता है – शुरू में जब इन्होंने गांव में तालाब बनाने की बात कही तो गांव वालों ने इनका मजाक कुछ यूं उड़ाया ‘पढ़े-लिखे इंजीनियरों के बनाए तालाब जब बह जाते हैं तो फिर तुम किस खेत की मूली हो।’ और हमारे साथ अपने बनाए तालाबों की पाल पर जब लक्ष्मण चल रहे थे तो पानी की बूंदों को रोकने की कोशिश में उनका झलकता आत्मविश्वास, आंखों का संकल्प और सधे हुए कदमों की अदाएं किसी खेत की मूली से कम नहीं लग रही थीं।
झाबुआ जिले की पेटलावद तहसील के रायपुरिया, जूनाखेड़ा, जामली, हीरानिमामा पाड़ा, देवली, झरनिया, रूपापाड़ा, कुंवार रंझर, गोठानिया, बरवेट, बावड़ी, हमीरगढ़, कालीघाटी, काचरोटिया, गामड़ी में हरिशंकर पंवार, लक्ष्मणसिंह मूणिया और ‘सम्पर्क’ के साथियों के साथ गांव से रूबरू होना, जीवन की कभी न भूल सकने वाली यादों में शामिल हो गया।
‘संपर्क’ के माध्यम से तालाब निर्माण और वाटरशेड कार्यक्रमों में जुटे लक्ष्मण इस बात की जीती-जागती मिसाल हैं कि स्थानीय ज्ञान के सहारे हम कितना बड़े से बड़ा काम कर सकते हैं? यहां का आदिवासी समाज अपने परम्परागत ज्ञान का इस्तेमाल बेहतर तरीके से आज भी कर सकता है। कई बार थोपा गया ज्ञान यहां की परिस्थितियों के संदर्भ में अनुकूल नहीं होता है और फिर बाद में परिणाम के तौर पर वही ढाक के तीन पात नजर आते हैं।
पेटलावद के झिरनिया में एक स्टापडेम के किनारे खड़े लक्ष्मणसिंह अपने द्वारा बनाए गए लगभग 15 छोटे-बड़े तालाबों की विस्तृत कहानियां सुनाते हैं। बातचीत में लगता है कि मानो लक्ष्मण के माथे पर गांवों में पानी रोकने का जुनून सा सवार है। लक्ष्मण कह रहे थे- झिरनिया के लोगों ने हम लोगों के सामने समस्या रखी कि बरसात का पानी तो बहकर हमारे गांव से चला जाता है, बाद में हमारे आंगन में सूखे के अलावा और कुछ नहीं रह पाता। तब हमने गांव वालों के साथ मिलकर तय किया कि गांव का पानी गांव में ही रोका जाए। एक स्टापडेम बनाने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया। स्थल चयन भी हम लोगों ने ही किया। स्टापडेम बनने के बाद गांव में तब्दीली आई यहां लगभग सूख चुके 5 कुएं फिर से रिचार्ज हो गए। इधर, कुओं में पानी आया, उधर गांव वालों के चेहरे भी पानीदार हो गए। इस गांव के लोगों की एक या दो पानी के अभाव में फसलें सूख जाती थीं। वे अब बचने लगी हैं। फिलहाल यह पानी गांव के 20 एकड़ के क्षेत्रों में प्रदाय किया जा रहा है। लोगों के रहन-सहन में दोनों मौसम की फसलें लेने के कारण बदलाव आ रहा है। पलायन पूरी तरह से तो नहीं रूका है, अलबत्ता उसकी मियाद जरूर कम हुई है।
लक्ष्मण हमें कुछ रोचक संस्मरण सुनाता है – आज से 12 साल पहले पन्नास गांव में टेक्नोलॉजी मिशन के तहत चल रहे कार्यों के दौरान वह एक स्टापडेम बनाने की सोच रहा था। गांव वालों ने उसकी हंसी कुछ यूं उड़ाई कि – जब सरकारी महकमों के बनाए बांध यहां बह जाते हैं तो तुम किस खेत की मूली हो। 12 साल बाद हमारे साथ अपनी खुशी व्यक्त करते हुए वह कहता है कि मेरे द्वारा बनाया हुआ स्टापडेम आज भी मौजूद हैं। उससे करीब 15 एकड़ क्षेत्र में सिंचाई हो रही है। तब सरकार ने इस गांव को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। वहां के चार हैण्डपम्प इस डेम के बाद रिचार्ज हो गए। लक्ष्मण द्वारा बनाए गए तालाबों की लागत सरकारी विभागों द्वारा बनाए गए तालाबों की लागत से करीब 40 फीसदी कम है। वे कहते हैं- ये तालाब अकेले मैने नहीं, गांव के लगभग हर व्यक्ति ने बनाए हैं। 20 से 25 फीसदी का श्रम सहयोग ग्रामीणों की ओर से रहता है। हमारे यहां न तो कोई मेट रहता है, न कोई हाजिरी भरने वाला सरकारी विभागों में ये दोनो व्यक्ति तालाब निर्माण में सीधे मदद नहीं करते हैं। हमारी जल ग्रहण समितियां तालाब बनवाती हैं, हम 5 लोगों की निगरानी समिति बनाते हैं, लेकिन ये लोग भी मजदूरी अवश्य करते हैं। जबकि सरकारी विभाग में हाजिरी भरने वाला इस काम के बाद फालतू बैठा रहता है। इससे जहां लागत पर असर आता है, वहीं तालाब निर्माण के साथ सरकारी नहीं, अपनत्व का बोध होता है। समाज जब खुद पहल करता है तो लोग उसे अपना काम समझकर ही पूरा करते हैं। निर्माण के बाद भी उसका ध्यान इसी तरह रखा जाता है।
झिरनिया का बुजुर्ग आदिवासी जोगा कहता है- ‘इस स्टापडेम बनने के बाद गांव में पानी दिखने लगा है पहले एक फसल लेते थे, अब दूसरी फसल के साथ सब्जी भी बोते हैं। हमारी आमदनी बढ़ी है।’
झिरनिया से आगे हम चलते हैं रूपापाड़ा की ओर यहां की 19 एकड़ पहाड़ी पड़त भूमि पर गांव वालों ने वाटरशेड तैयार किया है। सम्पर्क द्वारा बनाई ग्राम विकास समिति की बैठक में गांव वालों ने इस पहा़ड़ी पर पानी रोकने की इबादत शुरू की। बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण भी किया। इस पहाड़ी पर पानी रोकने का समीपस्थ ग्राम कालीघाटी की जीवनरेखा पर असर पड़ा। सारे गांव के लोग आश्चर्यचकित थे! कालीघाटी के सरपंच हीरा का कहना है कि पहले हमारे गांव के 14 हैण्डपम्प जनवरी तक सूख जाया करते थे, लेकिन इस बार उनमें पानी आना सतत् जारी है।
बरसात की बूंदों को सलाम............!
रूपापाड़ा के बाशिन्दों ने इन बूंदों से यहां रूकने की मनुहार की। उनकी मेहमान नवाजी में कोई कसर नहीं रह जाए। इसके लिए पहाड़ी पर सोशल फेन्सिंग की। यानी हर परिवार से एक-एक व्यक्ति आकर अपने खेतों की भांति इस पहाड़ी पर पशु चराई रोकने की निगरानी करता रहा। पानी की बूंद यहां मेहमान बनी और तलहटी में होने के कारण 14 हैण्डपम्पों को रिचार्ज किया। इसके अलावा हर वक्त सूख जाने वाला नाला भी यहां जिन्दा रहा। गांव वाले उस नाले को ‘जिन्दा’ कहते हैं, जहां बरसात के बाद भी पानी बचा रहता है।
लक्ष्मण दावा कर रहा था कि व्यवस्था ऐसी रही थी कि पानी पहाड़ी से फालतू बिलकुल न बहे, इसके अंदर समाता रहे। इसके पास में ही अत्यंत कम लागत (केवल 10,000 रू.) वाला एक तालाब भी यहां बना दिया। पहाड़ी पर जलग्रहण उपचार से बचा हुआ हुआ पानी इस तालाब में एकत्रित हो रहा है। लक्ष्मण का कहना है कि सरकारी विभाग इस तालाब की लागत एक लाख रुपए के लगभग ले जाते। गांव वालों के श्रम सहयोग के कारण इसकी लागत काफी कम आई है। इस तालाब की वजह से रूपापाड़ा के भू-जल स्तर में वृद्धि हो रही है।
रूपापाड़ा के वाटरशेड का इस क्षेत्र में सूखे के दौरान क्या सहयोग रहा? हमारे इस सवाल पर हरिशंकर पंवार बोले- एक तो कालीघाटी के 14 हैण्डपम्प पानी देते रहे, दूसरा मई व जून के दरम्यान पानी की खेंच में जब इलाका चारा संकट के दौर से गुजर रहा था, मवेशियों को तिनके नहीं मिल रहे थे, तब रूपापाड़ा, कालीघाटी के आदिवासियों ने इस पहा़ड़ी से घास के कूंचे एकत्रित कर अपना काम चलाया। इन कूंचों ने मवेशियों को मौत के मुंह में जाने से रोका, इसे आप वाटरशेड का असर नहीं कहेंगे तो क्या?
एक तीर से दो निशाने
झाबुआ के तहसील मुख्यालय पेटलावद होते हुए जब हम जूनाखेड़ा पहुंचे तो गांव के आदिवासी ‘जयरामजी!’ के साथ अभिवादन कर रहे थे। झाबुआ के किसी दूसरे गांव में इस तरह के अभिवादन के तरीके हमें नहीं दिखे थे। संभवतः इस जयघोष का ही कमाल कहिए कि यहां के आदिवासी समाज ने मिलकर एक बड़े काम को अंजाम दे दिया। इस गांव में करीब 20 साल पुराना सिंचाई विभाग द्वारा बनाया गया तालाब है। नाम है जूनाखेड़ा सिंचाई तालाब। इस तालाब में गाद भर गई थी, फलस्वरूप जलग्रहण क्षमता काफी कम हो गई थी। आसपास के खेतों में सिंचाई भी नहीं हो पा रही थी। ‘संपर्क’ की ओर से गांव मे दस्तक देने के बाद ग्रामीणों को तालाब की गाद निकालने के लिए प्रेरित किया गया। उन्हें समझाया गया कि इस गाद को यदि वे अपने खेतों में डालेंगे तो उन्हें महंगे उर्वरकों से निजात मिल सकेगी। आदिवासी समाज के 70 परिवार इस गांव में निवास करते हैं। सम्पर्क की ओर से टैक्टर उपलब्ध कराने की पहल के साथ गांव वालों ने खुद श्रमदान से तालाब की गाद निकाली और उसे अपने खेतों में डाला। हम लोग यहां महिला समिति की अध्यक्ष श्रीमती मीरा मांगू के आंगन में गांव वालों से तालब गहरीकरण के अनेक रोचक अनुभव सुन रहे थे। मीरा मांगू अपना थोड़ा-सा घूंघट हटाकर हमसे मुखातिब होती हैं- ‘हमारा तालाब अब ज्यादा गहरा हो गया है इसमें पानी की अधिक क्षमता की वजह से और ज्यादा क्षेत्र में सिंचाई हो सकेगी। तालाब की गाद जब हमने अपने खेतों में डाली तो वहां की तस्वीर ही बदल गई। उत्पादन बढ़ा, पहले पानी की थोड़ी खेंच के बाद ही फसल सूख जाया करती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है।’ जूनाखेड़ा में ‘सम्पर्क’ की पहल से ही करीब 40 एकड़ क्षेत्र में जलनिकासी मेड़बंदी का कार्य सम्पन्न कराया गया है। मेड़बंदी के मायने हैं- खेत की मिट्टी को पानी के बहाव के साथ बह जाने से रोकना। ‘सम्पर्क’ के कार्यकर्ता सुखदेव यादव कहते हैं - ‘बरसात में पानी के साथ जो मिट्टी बहती है, वह उर्वरा शक्ति से परिपूर्ण होती है।’
कुछ समय बाद हम मीरा के आंगन से चलते-चलते जूनाखेड़ा के खेतों में पहुंच गए। यहां आदिवासी समाज ने अपने परम्परागत ज्ञान के आधार पर पानी व मिट्टी का प्रबंध करके खेतों को सुरक्षित किया। यहां खेतों में कुछ स्थानों पर काली मिट्टी है, तो कहीं-कहीं पथरीली जमीन। जहां काली मिट्टी है, वहां पानी का ज्यादा रुकना फसलों के लिए घातक हो रहा था, इस मिट्टी से जल निकासी की व्यवस्था की गई। यह निकाला हुआ पानी आगे जाकर रोक दिया गया है। इससे पथरीली जमीन वाली खेती में यही पानी रिसता रहेगा। हरिशंकर पंवार कहते हैं - ‘यह सब पहले संभव नहीं था, क्योंकि यह काफी खर्चीला काम है। इनके पास इतना पैसा नहीं था कि मजदूरी से करवाया जाता।’ ‘सम्पर्क’ ने ग्राम संगठन के माध्यम से यह कार्य करवाया। इसमें अड़जी-पड़जी की मदद ली गई। यानी गांव के हर घर के एक-एक सदस्य ने मिलकर पूरे गांव के लोगों के खेतों में जलप्रबंध व मेड़बंदी का कार्य किया।
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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