दृष्टि अभिसार

वह दिवस अद्भुत रहा, वह धूलि धूसर साँझ
दिन-भर बेंत वन के मध्य, क्षीण कटि,
वैतसी तनु-भार चंदन-खौरी
साजती,अनिमेष लोचन ताकती
कोमल नरम बपु श्यामली,
एक वह कोई नदी।
और, मैं मानस-मुकुल को भूनता
सृष्टि को निष्कर्म सिद्धि बाँटता
काष्ठमौनी सिद्धियों का पीता रहा काषाय।
(कटु काषाय पर ही स्वाद जल का मिष्ट होता है।)
पर वह दिवस अद्भुत रहा, वह धूलि-धूसर साँझ
हृदय में कंठ में, देह में, मन में
सर्वभक्षी तृषा ले जब एक संध्या
बेंतवन के मध्य क्षीण कटि चंचल
बैंतसी तनुभार, सांध्य चंदन खौरी
आँकती, अनिमेष लोचन ताकता
एक वह कोई नदी तनुश्यामली।
मैंने उसे देखा,
मैने नदी की दृष्टि को देखा,
क्षण दृष्टि वह, पर बन गई अभिसार
पीने लगी मेरे सहज अस्तित्व को
नदी की अंबुश्यामल दृष्टि वह!
मुझको लगा, तब, यह नदी है
प्रेयसी का भाल, अथवा दिशा-निर्देश
प्रभु की तजनी का, लक्ष्य है यह,
चरम परिणति है हमारी, मुक्ति है, गति है।
नयन पल्लव मुँद गए मेरे विकल विह्वल।
तो यह नदी देगी मुझे
अविराम गति की वेदना
औ’ मुक्ति का सुख स्वाद!
नयन पल्लव मुँद गए मेरे
निःशब्द मैंने प्रार्थना की-
ओ नदी, तू जाग; तू प्रवाहित हो
कंठ में, मन में, देह में सर्वत्र
अनवरत, कर मुझे तू पान, छककर,
जिससे पा सकूँ मैं
अविराम गति की वेदना औ’ मुक्ति का सुख-स्वाद।

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