पिछले एक-डेढ़ साल में लेह में बादल का फटना, राजस्थान, बिहार और कर्नाटक और बुंदेलखंड के कुछ हिस्सों में और अब दिल्ली और उत्तराखंड में आई बाढ़ ने कागजों पर चलते बाढ़ नियंत्रण आयोगों और योजनाओं को डुबो दिया है। आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि बारिश की मात्र कम हुई है और वर्षा-काल भी कम हुआ है, लेकिन बाढ़ से तबाही के इलाकों में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। जिन जगहों का नाम लेने पर ही सूखे की तस्वीर आखों के सामने तैर जाती है, अब वहां भी बाढ़ का मंजर दिखाई दे रहा है।
कुछ समय पहले तक जो इलाके सुखाड़ से सूखे जा रहे थे, अब बाढ़ में डूबे जा रहे हैं। कई सालों से सूखे बुंदेलखंड की केन नदी में जब बाढ़ की खबर देखी तो चौंक गया। पिछले वर्ष दस से ज्यादा राज्यों में सूखे का असर था। इन राज्यों ने अपने विभिन्न जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर केन्द्र सरकार से 72 हजार करोड़ रुपए के राहत पैकेज मांगे थे। इस लिस्ट में कर्नाटक भी था।
कर्नाटक के उत्तरी हिस्से के कुछ जिलों के लिए भी केन्द्र सरकार से सूखा पैकेज मांगे गये थे, केन्द्र ने सुना या नहीं, पता नहीं, पर भगवान ने सुन लिया, बारिश शुरू हुई तो वे बाढ़ की चपेट में आ गए। कर्नाटक सरकार ने जिन जिलों को सूखा प्रभावित घोषित किया था, उन्हीं को बाढ़ प्रभावित घोषित कर केन्द्र सरकार से सूखे के बाद फिर बाढ़ राहत कार्य के लिए पैकेज मांगना पड़ा। मांगने वाले सूखे में भी पैकेज मांगते हैं और बाढ़ में भी।
एक अखबार ने बाढ़ की एक खबर लगाई कि दिल्ली को यमुना से बचाओ, पर मुझे लगता है कि यमुना को दिल्ली से बचाने की जरूरत है। दिल्ली अब यमुना में बस जाना चाहती है। लोगों के तरह-तरह के अधिकार हैं, पर यमुना का क्या अधिकार है, बहना उसका नैसर्गिक अधिकार है। पर गंगा-यमुना की लाई गयी मिट्टी में जन्मे लोग इनको पाटकर उस पर रिहायशी कालोनी, मॉल्स या कमर्शियल कॉम्प्लेक्स खड़े करना चाहते हैं।
शहरों में स्थित तालाब, झील जल-संचयन के सशक्त स्रोत और बाढ़ से बचाव के जरिए हुआ करते थे। पर योजनाकारों का अब जलागम क्षेत्रों को नंगा करके, ङीलों-तालाबों को पाटकर बांध बनाने की योजनाओं पर ज्यादा जोर है। नदियों के जलागम क्षेत्रों के जंगलों को काटकर नदियों में बाढ़ की भयावहता को बढ़ाया गया है।
मिट्टी और गाद की मात्रा लगातार नदियों में बढ़ी है और उससे भी खतरनाक लगभग देश की नदियों को बड़े शहरों की, बड़े उद्योगों की गंदगी और कचरा ढोने के काम में लगाया जाना। पन्द्रह सालों से चल रहा 1300 करोड़ रुपये का ‘यमुना एक्शन प्लान’, जो असफल रहा, उसका काम बिना पैसे के मात्र दो-तीन हफ्तों में यमुना ने कर दिखाया।
लेह में बादल फटने की जो घटना हुई, वह कहीं भी हो सकती है, बादल फटना, बादल बरसने की ही एक प्रक्रिया है। कोई बादल जिस तेजी से संघनित होता है, बारिश उतनी ही तेज होती है। बड़ी मात्रा की बारिश की बूदों को लिए हुए कोई बादल किसी भी कारण से एक बार में ही संघनित हो जाए तो बादल का सारा पानी एक साथ, एक जगह ही बरस जाता है, पर हम यदि पानी के रास्ते को साफ रखें तो तबाही को कम किया जा सकता है। पानी के रास्तों की तबाही के बाद ही जन-धन की तबाही होती है।
लोग बाढ़ के लिए दोषी अधिक वर्षा और नदी को बता रहे हैं। धरती के सभी चक्कर नियमों से आबद्ध हैं, पर जब हम इन चक्करों की इज्जत करना छोड़ देते हैं, तो हम पाते हैं कि कुछ घंटों की थोड़ी-सी भी ज्यादा बारिश हमारे ‘विज्ञान और तकनीकी’ अत्याधुनिक मॉडल शहरों में बाढ़ ला देती है। नदी-नालों, झील-तालाबों, गाड़-गधेरों, कुओं-बावड़ियों के बारे में हमारी योजनाकारों की समझ डूब चुकी है। बाढ़ से राहत, राहत-पैकेजों की बाढ़ से नहीं, समझ की बाड़ को ठीक करने से होगी।
(लेखक इंडिया वाटर पोर्टल के संपादक और समाजसेवी हैं)
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