दोपहरी में नौका विहार

कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
यों तो जाने कैसी-कैसी दोपहरी हैं बीतीं,
कमरे में प्यारे मित्रों में हँसते-गाते बीतीं,
कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
गंगा के मटमैले जल में छपछप डाँड़ चलाते,
सरसैया से परमठ होते, उलटी गति में जाते,
तन का सारा जोर जमाते-धारा को कतराते,
आसपास के जल-भ्रमरों से अपनी नाव बचाते,
धीरे-धीरे मजे-मजे से रुकते औ सुसताते,
चुल्लू दो चुल्लू पानी पी मुँह को तरल बनाते,
आरपार सब ओर ताकते आँखों को बहलाते,
पल-पल सूरज की गरमी में गोरे गाल तपाते,
हाथों को मल-मलकर, रह-रह दुःख संताप मिटाते,
फिर भी मौज मनाते गाते, गुन-गुन गीत सुनाते,
खेते रहने की धुन में ही बढ़े चले थे जाते!
मैं था और मित्र थे मेरे, दोनों थे सैलानी;
काले घुँघराले केशों की वे थे खुली जवानी!
मै थी लाल कपोलों वाली महिमामयी जवानी।
दो थे हम पर, दोनों की थी एक समान कहानी!
एक बजे से लेकर हमने साढ़े पाँच बजाए,
एक नहीं, छै-छै छालों से दोनों हाथ दुखाए!
किंतु नहीं हम इन छालों से किसी तरह घबराए,
चूम-चूम तो हमने इनको मीठे दाख बनाए।

सन् 1937

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