शौचालय के दो गड्ढे एक सिरे पर जंक्शन चैम्बर से जुड़े रहते हैं। गड्ढों के तले पर सीमेंट नहीं किया जाता और यह मिट्टी का ही बना होता है। गड्ढों की दीवारों की चिनाई हनीकॉम्ब यानी मधुमक्खी के छत्ते के आकार में की जाती हैं। शौचालय का उपयोग करने वालों की संख्या को ध्यान में रखते हुए गड्ढे का आकार घटता-बढ़ता रह सकता है। गड्ढे की क्षमता आमतौर पर तीन साल तक काम करने की होती है। करीब तीन साल में पहले गड्ढे के भर जाने पर इसे जंक्शन चैम्बर से बन्द कर दिया जाता है और दूसरे गड्ढे को चालू कर दिया जाता है।
मानव मल के निपटारे की आत्मनिर्भर और समग्र प्रणाली के रूप में पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय द्वारा सुझाए गए दो गड्ढों वाले शौचालय हाल में समाचारों में चर्चा का विषय बने हुए थे। पहले अक्षय कुमार ने दर्शकों में जबर्दस्त लोकप्रियता हासिल करने वाली अपनी फिल्म ‘टॉयलेट : एक प्रेमकथा’ में इनका प्रचार किया। इस फिल्म का एक मुख्य पात्र घर में शौचालय न होने की वजह से रूठकर मायके गई अपनी पत्नी को वापस लाने के लिये दो गड्ढों वाला ट्विन पिट टॉयलेट बनवाता है।इसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी के आर जी लाइन ब्लॉक में एक गरीब परिवार के लिये शौचालय बनवाने में श्रमदान में सहायता की। समूचे देश ने प्रधानमंत्री को हनीकॉम्ब यानी मधुमक्खी के छत्ते के ढाँचे के आकार वाले गड्ढों की आधारशिला रखते देखा।
इस तरह के शौचालयों के मुख्य घटकों को तकनीकी शब्दावली में ट्विन पिट पोर फ्लश वॉटर सील टॉयलेट यानी दो गड्ढों और पानी उड़ेलकर मल निस्तारण वाली जल अवरोध प्रणाली पर आधारित शौचालय (टीपीपीएफडब्ल्यूएसटी) कहा जाता है। इन्हें दो गड्ढों वाला इसलिये कहा जाता है क्योंकि इनमें जलमल को इकट्ठा करने के लिये दो गड्ढों की व्यवस्था की जाती है जिनका उपयोग बारी-बारी से किया जाता है। इसके अलावा ऐसे शौचालय में एक पैन, वॉटर सील/ट्रैप, बैठने का प्लेटफार्म, जंक्शन चेम्बर और बाहरी ढाँचा भी होता है।
इसमें दो गड्ढे होते हैं जिनका बारी-बारी से इस्तेमाल किया जाता है। दोनों गड्ढों को एक ओर जंक्शन चैम्बर से जोड़ा जाता है। गड्ढे की दीवारों में हनीकॉम्ब यानी मधुमक्खी के छत्ते के आकार में ईंटों से चिनाई की जाती है। गड्ढे के तले पर पलस्तर नहीं किया जाता और तला मिट्टी का बना होता है। शौचालय का इस्तेमाल करने वालों की संख्या को ध्यान में रखते हुए गड्ढे का आकार तय घटता-बढ़ता है। हर गड्ढे की क्षमता आमतौर पर तीन साल रखी जाती है। करीब तीन साल में जब पहला गड्ढा भर जाता है तो जंक्शन चैम्बर से उसे बन्द कर दिया जाता है और दूसरे गड्ढे को चालू कर दिया जाता है।
मानव मल का जलीय अंश हनीकॉम्ब ढाँचे से होकर जमीन में अवशोषित कर लिया जाता है। दो साल तक बन्द रहने के बाद पहले गड्ढे में जमा पदार्थ पूरी तरह सड़कर ठोस, गन्धहीन और बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं से मुक्त खाद में परिवर्तित हो जाता है। इसे खोदकर बाहर निकाल लिया जाता है और कृषि तथा बागवानी में इसका उपयोग किया जाता है। जब दूसरा गड्ढा भी भर जाता है तो उसे भी जंक्शन चैम्बर से बन्द कर दिया जाता है और पहले गड्ढे को चालू कर दिया जाता है। इस तरह दोनों गड्ढों का बारी-बारी से उपयोग किया जाता है।
गड्ढे वाले शौचालय उन जगहों के लिये उपयुक्त नहीं हैं जहाँ भूजल स्तर ऊँचा है और जमीन पथरीली है। समुद्र तटवर्ती इलाकों में भी इस तरह के शौचालय कतई उपयुक्त नहीं हैं। भूजल का स्तर ऊँचा होने से गड्ढे के आस-पास की जमीन पानी से संतृप्त हो जाती है और गड्ढे की जल अवशोषण क्षमता काफी कम हो जाती है। नतीजा यह होता है कि गड्ढे जल्दी-जल्दी भरने लगते हैं। पथरीले इलाकों में गड्ढे में जमा पानी रिसकर जमीन के अन्दर अवशोषित नहीं हो पाता। इसलिये इन पर बने गड्ढे जल्द भरने लगते हैं। इन्हें खाली करके इनकी सफाई करने के लिये कोई यांत्रिक प्रणाली न होने से लोग ऐसे शौचालय बनाने से कतराते हैं।
समुद्र तटवर्ती इलाकों, भूजल के उच्च-स्तर वाले क्षेत्रों और पथरीले इलाकों में दूसरी तरह की टेक्नोलॉजी जैसे (क) इकोसैन टॉयलेट, (ख) बायो-टॉयलेट और (ग) सेप्टिक टैंक टॉयलेट का उपयोग किया जा रहा है। इस तरह के शौचालयों का डिजाइन मंत्रालय की हैंडबुक ऑफ टेक्नोलॉजी ऑप्शंस फॉर ऑन-साइट सेनीटेशन नाम की पुस्तिका में उपलब्ध हैं जो पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय की वेबसाइट पर भी उपलब्ध हैं।
दो पिट वाले वॉटर सील शौचालय
दो गड्ढे वाले और पानी उड़ेलकर मल बहाने की वॉटर सील प्रणाली वाले घरों के शौचालय का वह प्रकार हैं जो उन स्थानों के लिये उपयुक्त है जहाँ भूजल स्तर काफी नीचा होता है क्योंकि ऐसी जगहों में भूजल को प्रदूषण से बचाना जरूरी होता है। एक ओर तो ऐसे शौचालय स्वच्छता सम्बन्धी सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, दूसरी ओर न्यूनतम रख-रखाव के साथ लगातार इस्तेमाल की सुविधा भी प्रदान करते हैं। इस तरह के शौचालयों के मुख्य घटक हैं बारी-बारी से इस्तेमाल किये जाने वाले दो गड्ढे, एक पैन, वॉटर सील/ट्रैप, शौच के समय बैठने वाला पायदान, जंक्शन चैम्बर और शौचालय का बाहरी ढाँचा।
शौचालय के दो गड्ढे एक सिरे पर जंक्शन चैम्बर से जुड़े रहते हैं। गड्ढों के तले पर सीमेंट नहीं किया जाता और यह मिट्टी का ही बना होता है। गड्ढों की दीवारों की चिनाई हनीकॉम्ब यानी मधुमक्खी के छत्ते के आकार में की जाती हैं। शौचालय का उपयोग करने वालों की संख्या को ध्यान में रखते हुए गड्ढे का आकार घटता-बढ़ता रह सकता है। गड्ढे की क्षमता आमतौर पर तीन साल तक काम करने की होती है। करीब तीन साल में पहले गड्ढे के भर जाने पर इसे जंक्शन चैम्बर से बन्द कर दिया जाता है और दूसरे गड्ढे को चालू कर दिया जाता है। हनीकॉम्ब संरचना होने के कारण मानव मल का तरल हिस्सा जमीन में सोख लिया जाता है। दो साल तक बन्द रहने के बाद इसके अन्दर की चीजें पूरी तरह सड़कर ठोस में परिवर्तित होकर गन्धहीन और बीमारी फैलाने वाले जीवाणुओं से मुक्त खाद में बदल जाता है। तरल हिस्सा रिसकर जमीन में अवशोषित कर लिया जाता है। गड्ढे में जमा खाद को खोदकर कृषि और बागवानी में इस्तेमाल किया जाता है। दूसरा गड्ढा भर जाने पर उसे भी जंक्शन बॉक्स से बन्द कर दिया जाता है और पहले गड्ढे को चालू कर दिया जाता है। इस तरह दोनों गड्ढों का बारी-बारी से इस्तेमाल किया जाता है।
पैन एंड ट्रैप/वॉटर सील
गड्ढे वाले शौचालय में इस्तेमाल किये जाने वाला पैन का ढलान 25 से 29 डिग्री के बीच होता है। ये चीनी मिट्टी, मोजैक या फाइबर का बना हो सकता है। आमतौर पर मोजैक पैन को साफ करने में मुश्किलें आती हैं इसलिये इन्हें कम पसन्द किया जाता है। फाइबर के बने पैन अपेक्षाकृत कुछ सस्ते होते हैं और इन्हें साफ करना भी आसान है, लेकिन इनका रंग कुछ समय इस्तेमाल के बाद पीला पड़ जाता है जिससे ये देखने में अच्छे नहीं लगते। आमतौर पर चीनी मिट्टी के पैन इस्तेमाल किये जाते हैं जो बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं। ये दिखने में तो अच्छे लगते ही हैं, इन्हें साफ करने में 1.5 से 2 लीटर तक पानी लगता है।
ट्रैप/वॉटर सील
शौचालय के पैन में वॉटर सील 20 मिमी आकार की होनी चाहिए क्योंकि इस आकार की वॉटर सील पानी की किल्लत वाले इलाकों के लिये उपयुक्त होती है। निर्धारित माप से अधिक की वॉटर सील में ज्यादा पानी की आवश्यकता पड़ती है जिससे लीच पिट की आयु कम हो जाती है। ट्रैप भी करीब 7 सेमी व्यास का होना चाहिए। इस तरह के ट्रैप और अधिक ढलान वाले पैन में मल को बहाने के लिये सिर्फ 1.5-2 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस तरह की वॉटर सील चीनीमिट्टी, मोजैक या फाइबर की बनाई जा सकती है।
पायदान
शौचालय के पायदान चीनीमिट्टी, सीमेंट कंक्रीट, सीमेंट मोजैक या प्लास्टर की गई ईंट के हो सकते हैं। पायदान का सबसे ऊपरी हिस्सा जमीन के स्तर से 20 मिमी ऊँचा होना चाहिए और आगे की ओर को ढलान वाला होना चाहिए।
गड्ढे की भीतरी दीवारें
गड्ढा ढहे नहीं, इसके लिये उसकी अन्दरूनी दीवारों को ईंटों से बनाया जाना चाहिए। ईंटों को 1:6 के अनुपात से बने सीमेंट के गारे से जोड़ा जाना चाहिए। जहाँ कहीं उपलब्ध हो वहाँ स्थानीय रूप से उपलब्ध ईंटों का ही उपयोग किया जाना चाहिए। उपलब्धता और लागत को ध्यान में रखते हुए पत्थर या लैटेराइट की ईंटों और सीमेंट व कंक्रीट के छल्लों का भी उपयोग किया जा सकता है। लेकिन निर्माण की आसानी के लिये जिन स्थानों पर भूमि के नीचे पानी का स्तर गड्ढे के तल से ऊँचा है वहाँ कंक्रीट रिंग्ज का इस्तेमाल किया जा सकता है।
ईंट की दीवार 115 मिमी (आधी ईंट के बराबर) होनी चाहिए। ईंटें मधुमक्खी के छत्ते के आकार में (हनीकॉम्बिंग) अन्दर की ओर आने वाले पाइप या ड्रेन की ऊँचाई तक लगाई जानी चाहिए। छिद्रों का आकार करीब 50 मिमी होना चाहिए। निर्माण में सुविधा के लिये एक-एक ईंट के अन्तर से गड्ढे की अन्दरूनी दीवारों में छेद या खाली जगह रखी जानी चाहिए। अगर जमीन बालू वाली है और रेत को ढँकने का इन्तजाम किया गया है तो खाली जगह की चौड़ाई 12-15 मिमी तक होनी चाहिए। अगर इमारत की नींव गड्ढे के पास है तो गड्ढे के सामने वाली नींव की तरफ की दीवार में छेद नहीं छोड़े जाने चाहिए। बाकी दीवारों में 12-15 मिमी चौड़े छेद रखे जाने चाहिए। पाइप या ड्रेन के व्यतिक्रम स्तर से गड्ढे के ढक्कन तक दीवारें ठोस ईंट से बनाया जाना चाहिए यानी उसमें कोई खुला स्थान नहीं होना चाहिए।
गड्ढे का तला
जहाँ जल संसाधनों के प्रदूषण की रोकथाम के लिये एहतियात बरती जानी है। उन मामलों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में गड्ढे का तला प्राकृतिक स्थिति में ही रखा जाना चाहिए।
गड्डे का ढक्कन
गड्ढों को ढँकने के लिये आमतौर पर आरसीसी के स्लैब्स का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन उपलब्धता और महंगाई को ध्यान में रखते हुए आरसीसी स्लैब केन्द्रीयकृत तरीके से कई टुकड़ों में बनाए जाने चाहिए ताकि उन्हें सुविधापूर्वक लाया-ले जाया और इस्तेमाल किया जा सके।
गड्ढों की जगह
गड्ढों के लिये सबसे उपयुक्त स्थान वह माना जाता है जहाँ दोनों गड्ढे समरूपता के साथ शौचालय के पीछे बनाए जा सकें। गड्ढे मकान परिसर के भीतर, घर की पगडंडी के नीचे, संकरी गली में या सड़क के नीचे बनाए जा सकते हैं। दोनों गड्ढों के बीच न्यूनतम दूरी गड्ढे के तल से पाइप या ड्रेन के उल्टी सतह के बीच की दूरी के बराबर होनी चाहिए। कट ऑफ स्क्रीन और पडल वॉल के बीच अभेद्य अवरोध बनाकर बीच की दूरी कम की जा सकती है। मौजूदा इमारत की नींव से लीच पिट्स की सुरक्षित दूरी मिट्टी के गुणों, नींव की गहराई और ढाँचे के प्रकार और लीचिंग पिट की गहराई आदि पर भी निर्भर करती है और यह 0.3 मीटर से 1.3 मीटर तक हो सकती है।
लेकिन अगर लीच पिट्स मौजूदा इमारत की नींव के बहुत पास हो तो लीच पिट की दीवार की ईंट से चिनाई को 12 से 17 मिमी तक कम किया जा सकता है।
निकास पाइप की आवश्यकता नहीं
गड्ढे वाले पिट शौचालय के लिये वेंट पाइप यानी निकास पाइप की आवश्यकता नहीं होती। गड्ढे में बनी गैसें मधुमक्खी के छत्ते की संरचना वाले ढाँचे के जरिए मिट्टी में जज्ब हो जाती हैं। इन गैसों में मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन होती हैं। यह प्रणाली ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करने वाली इन गैसों से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने में मदद करती है।
दो गड्ढे वाले पोर फ्लश शौचालयों के फायदे
1. यह घरेलू मानव मल का उसी स्थान पर स्थायी रूप से निपटारा करने वाला उपाय है।
2. इसमें एक बार इस्तेमाल करने पर सिर्फ 1.5 लीटर से 2 लीटर तक पानी की आवश्यकता होती है।
3. गड्ढे में जमा मानव मल को दो साल बाद बाहर निकालने पर वह अर्ध ठोस अवस्था में होता है, उसमें न तो किसी प्रकार की गन्ध होती है और न बीमारी फैलाने वाले जीवाणु। इसे आसानी से खोदकर बाहर निकाला जा सकता है।
4. गड्ढे में जमा अपशिष्ट में पेड़-पौधों के पोषक तत्वों का प्रतिशत काफी अधिक होता है और इसका उपयोग खेती व बागवानी में किया जा सकता है।
5. इस तरह के शौचालयों की हाथों से सफाई करने की आवश्यकता नहीं होती।
6. इस तरह के शौचालयों को आसानी से अपग्रेड किया जा सकता है और सीवर लाइनों के उपलब्ध होने पर इन्हें इन लाइनों से भी जोड़ा जा सकता है।
7. इनका रख-रखाव आसान है।
दो गड्ढों वाले पोर फ्लश टॉयलेट की सीमाएँ
(क) लीच पिट टॉयलेट उन इलाकों के लिये उपयुक्त नहीं हैं जहाँ जमीन पथरीली है और भूजल का स्तर ऊँचा है क्योंकि इस तरह के इलाकों में भूजल के प्रदूषित होने का खतरा बना रहता है। तटवर्ती इलाकों में भी इस तरह के शौचालय कतई उपयुक्त नहीं हैं। भूजल स्तर ऊँचा होने से गड्ढे के आस-पास की जमीन पानी से सन्तृप्त हो जाती है; गड्ढे से पानी का रिसाव बहुत कम हो जाता है जिससे गड्ढा जल्द बन्द हो जाता है और उसकी सफाई जरूरी हो जाती है।
(ख) पथरीले इलाकों में गड्ढे से रिसाव की कोई सम्भावना नहीं रहती। लिहाजा गड्ढा जल्द भर जाता है। गड्ढे की सफाई के लिये यांत्रिक उपकरण भी उपलब्ध नहीं रहते। लाभार्थी इसे स्वीकार नहीं करते। इतना ही नहीं गड्ढा भले ही खाली हो जाये मगर जलमल का सुरक्षित तरीके से निपटान काफी मुश्किल होता है।
उपयुक्तता : ट्विन पिट टॉयलेट ऐसे इलाकों के लिये उपयुक्त हैं जिनमें भूजल का स्तर ऊँचा है और जो पथरीले इलाके में हैं।
लेखक परिचय
युगल जोशी भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं।
ईमेल : hiyugal@gmail.com
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