आजादी के सत्तर सालों बाद भी अब तक गाँव में दलितों को पीने के पानी के लिये अपने अलग जलस्रोतों का सहारा लेना पड़ता है। उनके जलस्रोत में पानी खत्म हो जाने या दूषित हो जाने पर भी उन्हें गाँव की बड़ी जातियों के कुओं से पानी लेने का अधिकार नहीं है। पीने के पानी के लिये भी उन्हें अब तक दो से तीन किमी तक भटकना पड़ता है। यह बहस तब उठी है, जब मध्यप्रदेश के एक गाँव में कुछ लोगों ने महज इसलिये दलितों के कुएँ में घासलेट डालकर उसे दूषित करने की कोशिश की कि पहली बार किसी दलित परिवार ने अपनी बेटी की शादी में हथियारबंद पुलिस के साए में बारात बैंड–बाजे से निकालने की हिम्मत की।
मध्यप्रदेश के इंदौर से करीब 170 किमी दूर आगर जिले के गाँव माणा में बीते दिनों अलसुबह जब दलित परिवार के लोग अपने कुएँ पर पीने का पानी भरने पहुँचे तो पूरे कुएँ में घासलेट तैर रहा था। एक बाल्टी पानी खींचकर उलीचा तो पानी में घासलेट की बदबू आ रही थी। यह देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने आनन–फानन में इसकी शिकायत पुलिस और प्रशासन को की। उधर प्रशासन ने बात बढ़ती देखकर तत्काल इस कुएँ का पानी उलीचा और सैम्पल भी लिया। फिलहाल सैम्पल जाँच के लिये भेजा गया है।
उधर गाँव के पाँच सौ से ज़्यादा दलितों को पीने के पानी के लिये अब गाँव से करीब ढाई किमी दूर सूखी कालीसिंध नदी में एक गड्ढा खोदकर पानी भरना पड़ रहा है। 45 डिग्री तापमान में तेज धूप और भीषण गर्मी के बावजूद दलित परिवारों के लोग दूर से पानी लाने को मजबूर हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि आखिर गाँव में यह सब हुआ कैसे और किसने कुएँ में घासलेट डालने का अपराध किया। यह कहानी भी कम त्रासद नहीं है और हमारे सत्तर साला विकास और सामजिक सम्बंधों की पड़ताल भी करती है। संविधान प्रदत्त अधिकार होने के बाद भी गाँवों में आज दलितों की स्थिति क्या है और जीने के लिये सबसे ज़रूरी पीने के पानी की उनके लिये क्या व्यवस्था है, इसकी बानगी भी मिलती है।
हुआ यूँ था कि माणा गाँव में रहने वाले दलित समाज के चंदर मेघवाल की बेटी ममता की अप्रैल महीने में शादी थी। यहाँ दलितों के करीब सौ घर हैं और ये सब गाँव से बाहर अपनी एक बस्ती बनाकर रहते हैं। गाँव में इनके साथ छुआछूत इतना ज़्यादा है कि इनके पीने के पानी के लिये इन्हें गाँव की बड़ी जातियों के कुएँ से पानी नहीं लेने दिया जाता। इनसे ज्यादातर मजदूरी का काम कराया जाता है। गाँव में गुर्जर तथा पाटीदार समाज का दबदबा है।
सवर्ण समाज का अलिखित निर्णय है कि गाँव में कभी किसी दलित की बारात में बाजे नहीं बजाने दिए जाते हैं। कई पीढ़ियों से यह अघोषित नियम चला आ रहा है। यहाँ तक कि आजादी मिलने के बाद भी यहाँ कभी किसी की ऐसी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन चंदर ने इस बार तय कर लिया था कि वह इसे नहीं मानेगा और सदियों से चली आ रही इस रीति को बदलेगा। उसने अपने घर आने वाली बारात को बैंड–बाजे से बुलवाने के लिये गाजे–बाजे का इंतजाम किया तो यह बात दबंग समाज के कुछ लोगों को नागवार लगी। उन्होंने चंदर को धमकाया कि आज तक गाँव में दलितों के घर बाजे नहीं बजे हैं, तुमने बजवाए तो ठीक नहीं होगा। धमकी दी कि अगर बैंड बाजा और जश्न हुआ तो गाँव में आम रास्ते से निकलना, कुएँ का पानी और मवेशियों को चराने की सुविधा छीन ली जाएगी और हुक्का पानी भी बंद कर देंगे। इस पर चंदर ने सुसनेर अनुविभागीय अधिकारी और पुलिस को शिकायत की। पुलिस और प्रशासन ने इस शिकायत को गंभीरता से लिया। सुसनेर, सोयत और नलखेडा की संयुक्त भारी-भरकम पुलिस टीम ने बंदूकों और लाठियों से लैस होकर गाँव में बैंड–बाजे से बारात निकलवाई और बिना किसी घटना के ममता की बारात ख़ुशी–ख़ुशी बिदा हो गई।
इधर बारात बिदा हो रही थी, इसी दरम्यान अज्ञात लोगों ने मेघवाल समाज के पीने के पानी वाले कुएँ में रात के अँधेरे में घासलेट का तेल डाल दिया। अलसुबह जब दलित परिवार के लोग कुएँ पर पीने का पानी भरने पहुँचे तो घटना का पता लगा। फिलहाल इससे उन्हें अब पीने का पानी ढाई किमी दूर कालीसिंध नदी में खोदे गए एक गड्ढे से लाना पड़ रहा है। यहाँ महिलाओं ने बताया कि वे अब भी डरी हुई हैं। गाँव में बाजे बजाने के बाद उनके परिवारों के साथ कुछ भी हो सकता है।
इसकी खबर लगने पर वरिष्ठ अधिकारी मौके पर पहुँचे और पानी का सैम्पल लिया। इसके बाद शुक्रवार को जिला कलेक्टर डीवी सिंह और एसपी आरएस मीणा भी गाँव पहुँचे। उन्होंने दोनों पक्षों से चौपाल पर बात की तथा बताया कि यहाँ फिलहाल स्थिति सामान्य है। मेघवाल समाज के लोगों ने किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई नामजद शिकायत नहीं की है। फिर भी गाँव में एहतियातन पुलिस बल तैनात किया गया है। पीने के पानी की समस्या होने पर दलित बस्ती में दो ट्यूबवेल खनन के आदेश दिए हैं। सरकारी आदेश से ट्यूबवेल खनन और उस पर जल मोटर लगाने में अभी काफी समय है। तब तक तो नदी के गड्ढे तक ही जाना पड़ेगा।
यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि ऐसे कौन से हालात हैं कि अब भी गाँव–गाँव दलितों के अपने पीने के पानी का इंतजाम अलग से अपने खुद के बूते ही करना पड़ता है और विपरीत परिस्थितियों में भी उन्हें बड़ी जातियों के कुओं से पानी नहीं लेने दिया जाता। हिन्दी के सुपरिचित कथाकार प्रेमचंद ने अपनी चर्चित कहानी 'ठाकुर का कुआँ' में जिक्र किया था कि दलित जोखू के गंभीर बीमार होने पर भी उसे गंदा पानी ही पीने को मजबूर होना पड़ता है। गाँव में ठाकुर के कुएँ में साफ़ पानी होता है लेकिन जोखू की पत्नी गंगी को वह पानी नहीं लेने दिया जाता। यह कहानी सौ साल पुरानी है। लेकिन हालात अब भी वहीं के वहीं है।
गाँव में ममता के परिवार में पहली बार बाजे बजाने की ख़ुशी तो है पर आशंकाओं के भाव भी साफ़ नजर आते हैं इस गाँव में दलित वर्ग के लोग अब भी चिंता में हैं। हालाँकि गाँव में पुलिस बल तैनात है लेकिन लोग सहमे हुए हैं। उनकी आँखों में अब भी अप्रत्याशित डर और खौफ साफ़ नजर आता है। खासकर दलित बस्ती में लोग अपने ओटलों पर बैठे टोह लेते हैं लेकिन घटनाक्रम के बारे में कुछ भी बताने से कतराते हैं।
विडंबना ही है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी दलित परिवार की शादी में बाजे बजाने पर दबंगों की आपत्ति और उसके विवाद में उनके कुएँ में घासलेट डालकर उसे दूषित करने जैसी घटनाएँ हमारे सामने आ रही है। यहाँ यह सवाल उठाना भी लाजमी है कि दलित अधिकारों का ढिंढोरा पीटने के बाद भी आज हम कहाँ खड़े हैं और समतामूलक संविधान लागू होने के इतने बरसों बाद भी हम उनके लिये अदद पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं।
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