(ज्वार + मूंग + अरहर + रोसा + कचरिया)
दलहनी फसलें जहां मानव जीवन के लिए प्रोटीन का काम करती है, वहीं उनकी जड़ों में फ़िक्स नाइट्रोजन मृदा उर्वरता को बढ़ाता है व सुखाड़ की स्थिति में भी ये फसलें कुछ बेहतर उपज दे जाती हैं।
दलहनी फसलें एक तरफ जहां मानव स्वास्थ्य के लिए प्रोटीन का काम करती हैं, वहीं उनकी जड़ों में बने राइजोबियम गांठ में नाइट्रोजन फिक्स रहता है, जिस कारण भूमि की उर्वरता भी बढ़ती है, खाद की आवश्यकता कम होती है और इस प्रकार खेती की लागत कम होती है। बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले सभी जनपदों में ज्यादातर जमीनें ऊंची-नीची, असमतल होने की वजह से यहां पर खरीफ की फसल को ही प्रमुखता दी जाती है। इसलिए यह क्षेत्र दलहनी फसलों के लिए मशहूर है। दलहनी फसलों में अरहर, उड़द, मूंग, चना, मटर, मसूर इत्यादि की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
मिश्रित खेती यहां परंपरा से रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य यही रहा है कि – एक परिवार के जरूरत की सभी फसलों का उत्पादन एक ही खेत से हो जाए। इसके अंतर्गत मुख्य मिश्रित फसल में ज्वार, अरहर, मूंग, रोसा, कचरिया की खेती की जाती थी। लेकिन विगत 20-25 वर्षों में आई हरित क्रांति के साथ लोगों ने नई-नई नगदी फसलों को लेना शुरू किया और परंपरागत खेती को छोड़कर नई तकनीक से खेती करके अपनी उपज बढ़ाने लगे। इसमें लोगों को सफलता भी मिली, लेकिन कुछ समय बाद प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन एवं बदलते मौसम के कारण क्षेत्र में सुखाड़ की थिति बनने लगी। तब लोगों को पुनः सूखा सहने वाली परंपरागत मिश्रित खेती की याद आई और इन्होंने इसे पुनः अपना कर अच्छा उत्पादन प्राप्त किया।
खेत की तैयारी
मिश्रित खेती करने हेतु सर्वप्रथम जून में पहली जुताई देशी हल एवं बैल से करते हैं। पुनः बक्खर से खेत की जुताई कर खेत तैयार किया जाता है। ताकि खेत में खर-पतवार कम मात्रा में निकले। बक्खर से जुताई करने के दौरान गोबर की खाद को खेत में बिखेर दिया जाता है, जिससे खेत में नमी बनी रहे।
मिश्रित खेती में फसलों का चयन करते समय कई सावधानियां बरतते हैं-
विभिन्न लम्बाई की जड़ वाली फसलें हों।
अनाज, दलहन, तिलहन सभी का प्रतिनिधित्व करती हों।
घर पर संरक्षित व सुरक्षित देशी बीजों का प्रयोग करते हैं। देशी बीजों को कीड़ों से बचाने के लिए राख में मिलाकर रखने से बीज सुरक्षित बने रहते हैं और बुवाई के समय सभी बीज अंकुरित हो जाते हैं।
नोटः ज्वार के बीज अधिक इसलिए रखते हैं, क्योंकि बहुत से पौधों में भुट्टे नहीं आते हैं और वे पौधे जानवरों के लिए चारा के रूप में काम आते हैं।
15 जून से 15 जुलाई के मध्य सभी बीजों को मिलाकर छिटकवां विधि से बुवाई करते हैं।
ज्वार में कुण्डवा नामक रोग होता है, जिससे भुट्टा खराब हो जाता है। यह खराब फसल जानवरों के खाने योग्य भी नहीं रहती, क्योंकि उनको भी नुकसान पहुँचता है। अरहर में कभी-कभी उकठा रोग लग जाता है। इन रोगों से बचाव के लिए नीम की पत्ती को सड़ाकर गाय के मूत्र के साथ मिलाकर छिड़कने से रोग नहीं लगता है।
सूखा के समय काफी जानवर खुले घूमते हैं। ऐसे में फसल की रखवाली करना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति को हमेशा ही खेतों पर रहना पड़ता है अथवा खेत के चारों तरफ बाड़ बनानी पड़ती है।
मिश्रित फसल की कटाई अलग-अलग समय पर की जाती है, जिसे निम्नानुसार देख सकते हैं-
मूंग व रोसा की कटाई 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर (आधे भादों से आधे क्वार) के बीच हो जाती है।
अरहर की कटाई चैत्र एवं बैशाख के मध्य होती है।
कचरिया एवं रोसा के बेलों में 45 दिनों बाद फल लगना शुरू हो जाता है। उनकी समय-समय पर तुड़ाई कर घर पर सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है।
ज्वार : 1.5-2 कुन्तल
अरहर : 1.5 – 2 कुन्तल
मूंग : 50-70 कुन्तल
रोसा एवं कचरिया : घरेलू उपयोग के लिए पर्याप्त मात्रा में निकल आता है।
दलहनी फसलें जहां मानव जीवन के लिए प्रोटीन का काम करती है, वहीं उनकी जड़ों में फ़िक्स नाइट्रोजन मृदा उर्वरता को बढ़ाता है व सुखाड़ की स्थिति में भी ये फसलें कुछ बेहतर उपज दे जाती हैं।
परिचय
दलहनी फसलें एक तरफ जहां मानव स्वास्थ्य के लिए प्रोटीन का काम करती हैं, वहीं उनकी जड़ों में बने राइजोबियम गांठ में नाइट्रोजन फिक्स रहता है, जिस कारण भूमि की उर्वरता भी बढ़ती है, खाद की आवश्यकता कम होती है और इस प्रकार खेती की लागत कम होती है। बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले सभी जनपदों में ज्यादातर जमीनें ऊंची-नीची, असमतल होने की वजह से यहां पर खरीफ की फसल को ही प्रमुखता दी जाती है। इसलिए यह क्षेत्र दलहनी फसलों के लिए मशहूर है। दलहनी फसलों में अरहर, उड़द, मूंग, चना, मटर, मसूर इत्यादि की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।
मिश्रित खेती यहां परंपरा से रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य यही रहा है कि – एक परिवार के जरूरत की सभी फसलों का उत्पादन एक ही खेत से हो जाए। इसके अंतर्गत मुख्य मिश्रित फसल में ज्वार, अरहर, मूंग, रोसा, कचरिया की खेती की जाती थी। लेकिन विगत 20-25 वर्षों में आई हरित क्रांति के साथ लोगों ने नई-नई नगदी फसलों को लेना शुरू किया और परंपरागत खेती को छोड़कर नई तकनीक से खेती करके अपनी उपज बढ़ाने लगे। इसमें लोगों को सफलता भी मिली, लेकिन कुछ समय बाद प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन एवं बदलते मौसम के कारण क्षेत्र में सुखाड़ की थिति बनने लगी। तब लोगों को पुनः सूखा सहने वाली परंपरागत मिश्रित खेती की याद आई और इन्होंने इसे पुनः अपना कर अच्छा उत्पादन प्राप्त किया।
प्रक्रिया
खेत की तैयारी
मिश्रित खेती करने हेतु सर्वप्रथम जून में पहली जुताई देशी हल एवं बैल से करते हैं। पुनः बक्खर से खेत की जुताई कर खेत तैयार किया जाता है। ताकि खेत में खर-पतवार कम मात्रा में निकले। बक्खर से जुताई करने के दौरान गोबर की खाद को खेत में बिखेर दिया जाता है, जिससे खेत में नमी बनी रहे।
फसल चयन
मिश्रित खेती में फसलों का चयन करते समय कई सावधानियां बरतते हैं-
विभिन्न लम्बाई की जड़ वाली फसलें हों।
अनाज, दलहन, तिलहन सभी का प्रतिनिधित्व करती हों।
बीज की प्रजाति
घर पर संरक्षित व सुरक्षित देशी बीजों का प्रयोग करते हैं। देशी बीजों को कीड़ों से बचाने के लिए राख में मिलाकर रखने से बीज सुरक्षित बने रहते हैं और बुवाई के समय सभी बीज अंकुरित हो जाते हैं।
नोटः ज्वार के बीज अधिक इसलिए रखते हैं, क्योंकि बहुत से पौधों में भुट्टे नहीं आते हैं और वे पौधे जानवरों के लिए चारा के रूप में काम आते हैं।
बुआई का समय
15 जून से 15 जुलाई के मध्य सभी बीजों को मिलाकर छिटकवां विधि से बुवाई करते हैं।
रोग व कीट नियंत्रण
ज्वार में कुण्डवा नामक रोग होता है, जिससे भुट्टा खराब हो जाता है। यह खराब फसल जानवरों के खाने योग्य भी नहीं रहती, क्योंकि उनको भी नुकसान पहुँचता है। अरहर में कभी-कभी उकठा रोग लग जाता है। इन रोगों से बचाव के लिए नीम की पत्ती को सड़ाकर गाय के मूत्र के साथ मिलाकर छिड़कने से रोग नहीं लगता है।
फसल की देखरेख
सूखा के समय काफी जानवर खुले घूमते हैं। ऐसे में फसल की रखवाली करना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति को हमेशा ही खेतों पर रहना पड़ता है अथवा खेत के चारों तरफ बाड़ बनानी पड़ती है।
कटाई का समय
मिश्रित फसल की कटाई अलग-अलग समय पर की जाती है, जिसे निम्नानुसार देख सकते हैं-
मूंग व रोसा की कटाई 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर (आधे भादों से आधे क्वार) के बीच हो जाती है।
अरहर की कटाई चैत्र एवं बैशाख के मध्य होती है।
कचरिया एवं रोसा के बेलों में 45 दिनों बाद फल लगना शुरू हो जाता है। उनकी समय-समय पर तुड़ाई कर घर पर सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है।
उपज
ज्वार : 1.5-2 कुन्तल
अरहर : 1.5 – 2 कुन्तल
मूंग : 50-70 कुन्तल
रोसा एवं कचरिया : घरेलू उपयोग के लिए पर्याप्त मात्रा में निकल आता है।
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