इस बार के लोकसभा चुनाव में तमाम मुद्दे उछल रहे हैं लेकिन पानी का मुद्दा किसी कोने से उठता नहीं नजर आ रहा। जबकि पानी को लेकर पिछले दिनों काफी विवाद खड़ा हो चुका है। चाहे वह आसाराम द्वारा अपने भक्तों से होली खेलने में लाखों लीटर पानी की बर्बादी हो या सूखे से ग्रस्त मराठावाड़ा और विदर्भ में लोगों द्वारा ट्रेनों से पानी चोरी चुपके निकालना, हर बार यह देश में चर्चा का विषय बना है। इसका मुख्य कारण जमीन के अंदर पानी की कमी है। पिछले कुछ दशकों में देश में भूजल के स्तर में चिंताजनक गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरावट गंभीर संकेत देती है। मद्रास विश्वविद्यालय में एप्लायड जियोलॉजी के पूर्व प्रोफेसर और वर्तमान में सेंटर फॉर एनवायरमेंटल साइंसेज के निदेशक डॉ. एन.आर. बल्लुकराया दक्षिण भारत के भूजल पर गहराई से अध्ययन करते रहते हैं। प्रस्तुत है यहां उनसे इस मुद्दे पर अतुल कुमार सिंह की बातचीत :
भूगर्भ के जलस्तर में भारी गिरावट पर चिंता जताई जा रही है। लेकिन क्या यह समस्या देश भर एक जैसी है।
पूरे देश में भूजल स्तर में कमी आ रही है, यह तो सच है लेकिन इसके चरित्र अलग-अलग तरह के हैं। उत्तर भारत के दिल्ली, पंजाब, हरियाणा राज्यों के भू-स्तर में गिरावट का आलम यह है कि कई जगहों पर नीचे जल है ही नहीं तो कई स्थानों पर यह 1000 फीट से भी नीचे चला गया है। पूर्वी क्षेत्र में भी भूजल स्तर पर गिरावट आई है। वहीं दक्षिण भारत में स्थिति थोड़ी भिन्न है। यहां की जमीन चट्टानी है तथा कई तरह की बनावट है। मसलन, तमिलनाडु और दक्षिण केरल में तलछट से बनी चट्टानी जमीन है। इस जमीन में भूजल अधिक जमा होता है। लेकिन यह क्षेत्र मुश्किल से पूरे दक्षिण का 20 फीसदी ही है। बाकी के 80 फीसदी इलाके में कठोर चट्टान हैं। इसमें अधिक पानी जमा नहीं हो पाता है।
किस तरह की चट्टानें दक्षिण में हैं और इसका भूजल संचयन पर असर क्या होता है
यहां जमीन के नीचे ग्रेनाइट, नाइस यानी स्फटिक, शिस्ट यानी परतदार चट्टान जैसी कठोर चट्टानें हैं। इस पर निर्भर करता है कि किसी इलाके में किस तरह की चट्टान हैं। जैसे स्फटिक चट्टान में ज्यादा गहराई तक और ज्यादा समय तक पानी जमा रहता है। स्फटिक चट्टान वाली जमीन अधिकतर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में है। उत्तरी कर्नाटक का भूगर्भ लावा से बनी चट्टानों का है। वहां पानी कम मिलता है। ऊंचाई वाले इलाके में पानी ज्यादा है जबकि निचले इलाके में पानी वर्षा पर ही निर्भर है। चट्टानों में दरार पर भी निर्भर करता है कि कहां पानी होगा।
दक्षिण में भूजल स्तर में गिरावट के कारण क्या रहे हैं और कब से गिरावट में तेजी आई है।
दक्षिण भारत में जहां भूजल स्तर में काफी गिरावट है, वहां इसके कई कारण हैं। 1970-75 तक तो भूजल का स्तर सही था। इसका कारण था कि तब इलाके में केवल कुएं हुआ करते थे। 50 से 60 फीट नीचे ही पानी मिल जाता था। इनमें से जितना पानी निकाला जाता था, वह बरसात में फिर से भर जाता था। लेकिन 70 के दशक के आखिर में बोरवेल लगने लगा। यह 150 से 200 फीट तक नीचे से पानी निकालता था। इसके बाद पानी का स्तर गिरने लगा। फिर भी 85 तक 200 फीट के बोरवेल चलते रहे। लेकिन 90 के दशक में बोरवेल के क्षेत्र में क्रांति आ गई। बड़ी संख्या में बोरवेल लगने शुरू हुए। सन 2000 तक आते-आते भूजल का स्तर 800 फीट तक नीचे चला गया। अब तो कई जगह 1500 फीट तक चला गया है।
आखिर 90 के दशक में बोरवेल में क्रांति के क्या कारण थे।
खेती के तौर- तरीकों में आया बदलाव इसका बड़ा कारण रहा। सब्जियों, धान और गन्ने की खेती में बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। इससे पहले दक्षिण में खासकर कर्नाटक में मोटे अनाज की खेती होती थी, जिसमें ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके अलावा व्यावसायिक फसलों जैसे मूंगफली की खेती में भी ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है। इसकी खेती भी यहां तेजी से फैली।
इसका फिलहाल क्या असर पड़ा है।
अब तो दो लाख रुपए तक खर्च करने पर बोरवेल हो पाता है। लेकिन यह भी दो साल से अधिक नहीं चलता। पानी इतने में ही काफी नीचे चला जाता है। मुश्किल से यहां दस साल और सिंचित फसलें हो पाएंगी। इसके बाद खत्म हो जाएंगी। इसका कारण है कि ज्यादा नीचे जाने पर चट्टानों में दरार पड़ने की प्रक्रिया खत्म हो जाती है, इसलिए वहां पानी भी नहीं मिलने वाला है। कई तरह की खेती तो अभी से खत्म हो गई है।
आपने इस पर अध्ययन किया है, समाधान आप क्या देखते हैं।
वर्षाजल का संचयन, कम पानी वाली सिंचाई के तरीके और नई तकनीक से इसमें सुधार लाया जा सकता है। लेकिन इसके आसार अभी नजर हीं आते। यही स्थिति रही तो समाधान प्रकृति ही निकालेगी। वैसे अगर कुछ साल के लिए किसानों को मुआवजा देकर खेती रोक दी जाए तो पानी फिर से वापस स्तर को पा सकता है। भूमि के उपयोग का प्रबंधन आदि कई तरीके हैं लेकिन अब तक इन पर अमल नहीं हुआ है। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की भी जरूरत है, जो दिखाई नहीं देती है।
कठोर चट्टानी जमीन में भूजल कैसे बचा रहता है।
ऐसे क्षेत्रों में वर्षाजल का चट्टानों से मिलकर रासायनिक प्रतिक्रिया होता है जिससे कठोर चट्टानें अंदर ही अंदर टूट जाती हैं। इससे दरारें और खाली जगह बन जाती हैं। इसी में जल एकत्र होता है। इस प्रक्रिया को अपक्षय कहा जाता है। जहां अपक्षय से पड़ी दरारें होती हैं वहां अधिक भूजल होता है और जहां यह रासायनिक प्रतिक्रिया नहीं हुई, वहां भूजल बिल्कुल नहीं है।
भूगर्भ के जलस्तर में भारी गिरावट पर चिंता जताई जा रही है। लेकिन क्या यह समस्या देश भर एक जैसी है।
पूरे देश में भूजल स्तर में कमी आ रही है, यह तो सच है लेकिन इसके चरित्र अलग-अलग तरह के हैं। उत्तर भारत के दिल्ली, पंजाब, हरियाणा राज्यों के भू-स्तर में गिरावट का आलम यह है कि कई जगहों पर नीचे जल है ही नहीं तो कई स्थानों पर यह 1000 फीट से भी नीचे चला गया है। पूर्वी क्षेत्र में भी भूजल स्तर पर गिरावट आई है। वहीं दक्षिण भारत में स्थिति थोड़ी भिन्न है। यहां की जमीन चट्टानी है तथा कई तरह की बनावट है। मसलन, तमिलनाडु और दक्षिण केरल में तलछट से बनी चट्टानी जमीन है। इस जमीन में भूजल अधिक जमा होता है। लेकिन यह क्षेत्र मुश्किल से पूरे दक्षिण का 20 फीसदी ही है। बाकी के 80 फीसदी इलाके में कठोर चट्टान हैं। इसमें अधिक पानी जमा नहीं हो पाता है।
किस तरह की चट्टानें दक्षिण में हैं और इसका भूजल संचयन पर असर क्या होता है
यहां जमीन के नीचे ग्रेनाइट, नाइस यानी स्फटिक, शिस्ट यानी परतदार चट्टान जैसी कठोर चट्टानें हैं। इस पर निर्भर करता है कि किसी इलाके में किस तरह की चट्टान हैं। जैसे स्फटिक चट्टान में ज्यादा गहराई तक और ज्यादा समय तक पानी जमा रहता है। स्फटिक चट्टान वाली जमीन अधिकतर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में है। उत्तरी कर्नाटक का भूगर्भ लावा से बनी चट्टानों का है। वहां पानी कम मिलता है। ऊंचाई वाले इलाके में पानी ज्यादा है जबकि निचले इलाके में पानी वर्षा पर ही निर्भर है। चट्टानों में दरार पर भी निर्भर करता है कि कहां पानी होगा।
दक्षिण में भूजल स्तर में गिरावट के कारण क्या रहे हैं और कब से गिरावट में तेजी आई है।
दक्षिण भारत में जहां भूजल स्तर में काफी गिरावट है, वहां इसके कई कारण हैं। 1970-75 तक तो भूजल का स्तर सही था। इसका कारण था कि तब इलाके में केवल कुएं हुआ करते थे। 50 से 60 फीट नीचे ही पानी मिल जाता था। इनमें से जितना पानी निकाला जाता था, वह बरसात में फिर से भर जाता था। लेकिन 70 के दशक के आखिर में बोरवेल लगने लगा। यह 150 से 200 फीट तक नीचे से पानी निकालता था। इसके बाद पानी का स्तर गिरने लगा। फिर भी 85 तक 200 फीट के बोरवेल चलते रहे। लेकिन 90 के दशक में बोरवेल के क्षेत्र में क्रांति आ गई। बड़ी संख्या में बोरवेल लगने शुरू हुए। सन 2000 तक आते-आते भूजल का स्तर 800 फीट तक नीचे चला गया। अब तो कई जगह 1500 फीट तक चला गया है।
आखिर 90 के दशक में बोरवेल में क्रांति के क्या कारण थे।
खेती के तौर- तरीकों में आया बदलाव इसका बड़ा कारण रहा। सब्जियों, धान और गन्ने की खेती में बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। इससे पहले दक्षिण में खासकर कर्नाटक में मोटे अनाज की खेती होती थी, जिसमें ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके अलावा व्यावसायिक फसलों जैसे मूंगफली की खेती में भी ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है। इसकी खेती भी यहां तेजी से फैली।
इसका फिलहाल क्या असर पड़ा है।
अब तो दो लाख रुपए तक खर्च करने पर बोरवेल हो पाता है। लेकिन यह भी दो साल से अधिक नहीं चलता। पानी इतने में ही काफी नीचे चला जाता है। मुश्किल से यहां दस साल और सिंचित फसलें हो पाएंगी। इसके बाद खत्म हो जाएंगी। इसका कारण है कि ज्यादा नीचे जाने पर चट्टानों में दरार पड़ने की प्रक्रिया खत्म हो जाती है, इसलिए वहां पानी भी नहीं मिलने वाला है। कई तरह की खेती तो अभी से खत्म हो गई है।
आपने इस पर अध्ययन किया है, समाधान आप क्या देखते हैं।
वर्षाजल का संचयन, कम पानी वाली सिंचाई के तरीके और नई तकनीक से इसमें सुधार लाया जा सकता है। लेकिन इसके आसार अभी नजर हीं आते। यही स्थिति रही तो समाधान प्रकृति ही निकालेगी। वैसे अगर कुछ साल के लिए किसानों को मुआवजा देकर खेती रोक दी जाए तो पानी फिर से वापस स्तर को पा सकता है। भूमि के उपयोग का प्रबंधन आदि कई तरीके हैं लेकिन अब तक इन पर अमल नहीं हुआ है। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की भी जरूरत है, जो दिखाई नहीं देती है।
कठोर चट्टानी जमीन में भूजल कैसे बचा रहता है।
ऐसे क्षेत्रों में वर्षाजल का चट्टानों से मिलकर रासायनिक प्रतिक्रिया होता है जिससे कठोर चट्टानें अंदर ही अंदर टूट जाती हैं। इससे दरारें और खाली जगह बन जाती हैं। इसी में जल एकत्र होता है। इस प्रक्रिया को अपक्षय कहा जाता है। जहां अपक्षय से पड़ी दरारें होती हैं वहां अधिक भूजल होता है और जहां यह रासायनिक प्रतिक्रिया नहीं हुई, वहां भूजल बिल्कुल नहीं है।
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