![fertility inspection of land](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/fertility%20inspection%20of%20land_3.jpg?itok=m91ajskP)
fertility inspection of land
![जल के कारण मिट्टी के कटाव से बना बंजर क्षेत्र](https://farm2.staticflickr.com/1838/43165632814_8807f3cc34.jpg)
इस अध्ययन में पाया गया है कि वर्ष 2011 से 2013 के बीच आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में इन राज्यों के कुल भौगोलिक क्षेत्र का क्रमशः 14.35, 36.24 और 31.40 प्रतिशत भू-भाग धरती को बंजर बनाने वाली प्रक्रियाओं से प्रभावित हुआ है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, आंध्र प्रदेश में भूमि को बंजर बनाने में सबसे बड़ा योगदान पेड़-पौधों तथा अन्य वनस्पतियों में गिरावट होना है। इसके अलावा, जमीन के बंजर होने में जल के कारण मिट्टी का कटाव और जल भराव जैसी प्रक्रियाएँ भी उल्लेखनीय रूप से जिम्मेदार पायी गई हैं। कर्नाटक में भूमि को बंजर बनाने में पानी से मिट्टी का कटाव सबसे अधिक जिम्मेदार पाया गया है। इसके अलावा वनस्पतियों में कमी और लवणीकरण भी इस राज्य में भूमि के बंजर होने के लिये जिम्मेदार पाया गया है।
इस अध्ययन के दौरान रिमोट सेंसिंग से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में बंजर हो रही भूमि की वर्तमान स्थिति दर्शाने वाले मानचित्र तैयार किये गए हैं और इन भूमियों में हुए परिवर्तनों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों में गिरावट, पानी एवं हवा से मिट्टी के कटाव, मिट्टी की लवणता में बढ़ोत्तरी, जल भराव, भूमि का अत्यधिक दोहन, पहले से बंजर चट्टानी मिट्टी युक्त भूमि और विभिन्न के समझौतों के तहत भूमि उपयोग जैसी परिस्थितियों को अध्ययन में आधार बनाया गया है। इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ राजेंद्र हेगड़े ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “प्राकृतिक संसाधनों के खराब प्रबंधन और प्रतिकूल जैव-भौतिक और आर्थिक कारकों के कारण दक्षिणी राज्यों की उपजाऊ भूमि का एक बड़ा हिस्सा पिछले कुछ वर्षों में बंजर हुआ है। भूमि विशेष का अत्यधिक दोहन, मिट्टी के गुण, कृषि प्रथाएँ, औद्योगीकरण, जलवायु और अन्य पर्यावरणीय कारक जमीन को बंजर बनाने के लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं।”
![लवणता में बढ़ोत्तरी के कारण बने बंजर क्षेत्र का परीक्षण करते एस. धर्मराजन और के.एल.एन. शास्त्री](https://farm2.staticflickr.com/1813/43165633034_45a17670af.jpg)
डॉ. हेगड़े के अनुसार, “भूमि के बंजर होने से उसका प्रतिकूल प्रभाव मिट्टी की उर्वरता, स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र और आजीविका पर पड़ता है। इसलिये उपजाऊ से अनुपजाऊ भूमि में बदल रहे भू-भागों का समय-समय पर मूल्यांकन करना जरूरी है। उचित कृषि और नियमित भूमि प्रबन्धन को अपनाकर धरती के बंजर होने की प्रक्रिया को कम किया जा सकता है।”
इस अध्ययन में शामिल एक अन्य शोधकर्ता एस. धर्मराजन के अनुसार, “आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में संवेदनशील बंजर क्षेत्रों की पहचान प्राकृतिक संसाधनों के विकास के लिये रणनीति निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण हो सकती है। तैयार किये गए मानचित्रों से भविष्य में इन बंजर क्षेत्रों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जा सकेगा। देश के दूसरे राज्यों में भी रिमोट सेंसिंग और जीआईएस तकनीक के साथ-साथ अन्य सहायक आँकड़ों द्वारा भूमि मानचित्र तैयार करके बंजर हो रहे भू-क्षेत्र की प्रभावी निगरानी की जा सकती है।”
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, शोध के नतीजे प्राकृतिक या मानवीय दखल से बंजर हो रही भूमि की बढ़ती प्रवृत्ति को नियंत्रित करने और भूमि-सुधार के उपायों को तैयार करने में सहायक हो सकते हैं।
शोधकर्ताओं में डॉ. हेगड़े और एस. धर्मराजन के अलावा एम. ललिता, एन. जननि, ए.एस. राजावत, के.एल.एन. शास्त्री और एस.के. सिंह शामिल थे।
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