दिवस के बरक्स

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रोज दस बार टीवी-रेडियो और अखबारों के जरिए लोगों को बताया जाए कि पानी बचाओ, लेकिन शहरों के सुंदर चौराहों और वीआईपी पार्कों में लगे फव्वारों या फूल और घास के लिए पानी अगर खरीद कर लाना पड़े, तो भी लाया जाएगा। भूजल का इस्तेमाल पेयजल के लिए करने की मनाही होगी, लेकिन जमीन से पानी निकाल कर पेप्सीकोला बनाने की छूट होगी, भले ही केरल में एक पूरे इलाके की जमीन बंजर हो जाए। जल दिवस की असली शोभा यह होनी चाहिए कि दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों या महानगरों ही नहीं, गांवों तक में बिसलेरी जैसे पीने के पानी की बोतलों से दुकानें सजी रहें। जब तक सड़क किनारे मुफ्त का पानी पीने के लिए लोग तरस न जाएं, पंद्रह-बीस या पच्चीस रुपए की बोतल खरीद कर अपनी प्यास बुझाने की हालत में नहीं आ जाए, जल दिवस की सार्थकता साबित नहीं होगी।

हर साल इक्कीस मार्च को विश्व वानिकी दिवस के रूप में मनाया जाता है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस मौके पर जंगल तो दूर, मैंने एक दरख्त भी नहीं लगाया। अगर लगाना चाहता तो भी इसलिए मुमकिन नहीं था, क्योंकि उस दिन नल से पानी नहीं आया। मैंने सोचा, शायद यह अगले दिन, यानी जल दिवस की तैयारी है, जिसमें सरकार एक दिन पहले से जल बचाने को मजबूर कर लोगों पर प्रेरणा लाद रही थी। यों भी, खास-खास दिवसों का जो हाल हो गया है, उससे यही लगने लगा है कि ऐसे दिन कुछ करने के लिए नहीं होते। न जाने कितने दिवस घोषित हो गए हैं, लेकिन कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता। बल्कि बहुत सारे लोग तो इन दिवसों को पिकनीक मनाने का दिन मानने लगे हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दिवसों को लेकर इस सामाजिक व्यवहार के दर्शन अब हमारी छोटी-सी दुनिया में आम हो गए हैं। कष्ट यह है कि कई दिवसों की तो कुछ लोगों ने वह दुर्गति की, कि वह भी तौबा कर ले। पिछले साल का महिला दिवस, यानी आठ मार्च मुझे याद है, जब शर्मसार हुई थी शर्म भी। इस महिला दिवस के साथ होली भी थी, लेकिन तस्वीर कुछ अलग नहीं रही। महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाने से लेकर सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाओं से महिला दिवस को मुंह चिढ़ाया जा रहा है। अठारह मार्च को विकलांग दिवस था। न जाने क्यों, मुझे अक्सर पूरा देश ही विकलांग लगता है, लेकिन उसे उठा कर चलना सिखाना मेरे बस की बात नहीं। यों, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुल नौ करोड़ लोग विकलांग हैं। लेकिन इसका दशमलव एक फीसद, यानी नौ हजार विकलांगों को भी सबल बनाने का ठेका हमारी सरकार ने उठा लिया होता तो मान लिया जाता कि कुछ बचा हुआ है। लेकिन अगर सरकार को भी सिर्फ औपचारिकता निभानी है, दिवसों के नाम पर सिर्फ विज्ञापन बांटने हैं, तो इस छीछालेदर से अच्छा है कि हम इन्हें कह दें कि यों न आया करें हर साल।

अब बाईस मार्च विश्व जल दिवस के रूप में घोषित है। जब से राष्ट्रीय होते ही गंगा नदी की बेकद्री बढ़ जाने का समाचार मिला है, मेरा तो इन राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय तमगों से विश्वास हट गया है। अगर नदियों को मां कहने वाले देश में गंगा जैसी महाधारा को कागज पर राष्ट्रीय नदी घोषित करना पड़े और व्यवहार में उसका राष्ट्रीय सम्मान वापस दिलाने के लिए अनशन करने, बलिदान देने की नौबत आ जाए तो फिर उसके राष्ट्रीय होने का झूठा ढोल पीटने का क्या मतलब। हॉकी, कमल, बाघ, मोर...जिसे भी राष्ट्रीय घोषित किया गया, उसकी दुर्गति और ज्यादा बढ़ गई। जल दिवस की महत्ता आम लोगों की नजर से बाद में देखेंगे। इस दिन को पानी का महत्व समझने वाला दिन घोषित करने वाली सरकारों की असलियत देखिए कि वह लोगों को पीने तक का साफ पानी मुहैया करा सकने में विफल है। लेकिन कौन जवाब मांगेगा?

योजना आयोग के उपाध्यक्ष अहलूवालिया साहब ने एक बार फिर गरीबी का नया पैमाना पेश करके बता दिया है कि हमारे देश में पानी की समस्या नहीं है। यहां पानी अब बिकता है। एक दिन में दो बोतल पानी और बिस्कुट खरीद सकने की क्षमता ज्यादातर लोगों के पास है। जो नहीं खरीद सकते, उनका काम फावड़ा-कुदाल चलाने से सिद्ध होता रहा है। उनके लिए साफ पानी की क्या जरूरत। यमुना जहर का नाला बन जाए, गंगा का ‘पवित्र’ जल नहाने लायक भी न रह जाए, इससे लोगों या सरकार को क्या फर्क पड़ता है। बस धनपतियों को अपने औद्योगिक इकाइयों का जहरीला कचरा नदियों में बहाने की इजाजत जरूर मिलनी चाहिए। आखिर सरकार किसकी है। रोज दस बार टीवी-रेडियो और अखबारों के जरिए लोगों को बताया जाए कि पानी बचाओ, लेकिन शहरों के सुंदर चौराहों और वीआईपी पार्कों में लगे फव्वारों या फूल और घास के लिए पानी अगर खरीद कर लाना पड़े, तो भी लाया जाएगा। भूजल का इस्तेमाल पेयजल के लिए करने की मनाही होगी, लेकिन जमीन से पानी निकाल कर पेप्सीकोला बनाने की छूट होगी, भले ही केरल में एक पूरे इलाके की जमीन बंजर हो जाए। जल दिवस की असली शोभा यह होनी चाहिए कि दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों या महानगरों ही नहीं, गांवों तक में बिसलेरी जैसे पीने के पानी की बोतलों से दुकानें सजी रहें। जब तक सड़क किनारे मुफ्त का पानी पीने के लिए लोग तरस न जाएं, पंद्रह-बीस या पच्चीस रुपए की बोतल खरीद कर अपनी प्यास बुझाने की हालत में नहीं आ जाए, जल दिवस की सार्थकता साबित नहीं होगी।

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