गोरखपुर से उपजे सवाल - क्या 70 की उम्र में भारत के लिये अपनी खुद की इंसानियत बहाल करने में काफी देर हो चुकी है।
बच्चों की नियति ही मर जाने की है, क्योंकि दुखद घटना में भी हम एक बार फिर से नकली लड़ाइयाँ लड़ने का बहाना ढूंढ लेते हैं। भारत में शोक प्रकट करने की कोई प्रथा नहीं है, केवल इल्जाम लगाने का दस्तूर है। क्षण भर रुक कर इसका मूल्यांकन का समय नहीं है कि हमने क्या खो दिया है, और जो खालीपन, ये मौतें अपने पीछे छोड़ गई हैं, हम उन्हें भरने के लिये कैसे संघर्ष करें?
राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की अमर पंक्तियां हैं- ‘हम कौन थे/ क्या हो गए हैं/ और क्या होंगे अभी/आओ विचारें आज मिल कर ये समस्याएँ सभी’। यह बिल्कुल ठीक संबोधन प्रतीत होता है। यह आवश्यक प्रतीत होता है क्योंकि गुप्त जी ने अपनी कविता के काल्पनिक ब्रह्मांड में जिन गुणों-ज्ञान, आत्म ज्ञान, स्वतंत्रता, अनासक्ति, धर्मपरायणता, मुक्त साहस और सबसे बढ़ कर करुणा-की प्रशंसा की थी, ऐसा लगता है कि वे मूल्यों के हमारे पैमाने से कहीं विलुप्त हो गए हैं। लेकिन इससे भी अधिक निर्मम घटना गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 60 से अधिक बच्चों की अकल्पनीय भयावह मौतें हैं, जो इसका सटीक दर्पण बन गई हैं कि वास्तव में आज हम क्या बन चुके हैं : एक ऐसा देश, जहाँ सामान्य शिष्टाचार, सामान्य व्यावहारिकता और मूलभूत करुणा का अभाव है।ऐसा अनुमान है कि राजनीतिक एवं प्रशासनिक विफलता की वजह से बच्चों को ऑक्सीजन नहीं मिल पाया। इसके लिये व्यक्तिगत जिम्मेदारियाँ निर्धारित की जानी चाहिए। लेकिन यह भयावह घटना हमारी आजादी पर भी एक लानत है कि हमने इसके साथ क्या कर दिया है, आज हमारा समुदाय क्या बन गया है, और हम खुद को मूल्यों के किन पैमाने पर मापते हैं? इस घटना ने हमारी जिस संवेदनशून्यता को प्रकट किया है, वह आंशिक रूप से है क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि हमारे लोकतंत्र में निर्धन बच्चों की नियति में ही मौत लिखी है और आंशिक रूप से इसलिये क्योंकि हमने यही बनना पसंद किया था। बच्चों के प्रारब्ध में ही मौत है क्योंकि इस लोकतंत्र में हमारी प्राथमिकताएं उलटी-पुलटी हो गई हैं। भारत की स्वास्थ्य प्रणाली का संकट दुनिया के लिये कोई गोपनीय नहीं रह गया है। फिर भी, इस संकट को लेकर मामूली रूप से भी जन आक्रोश नहीं है, यह हमारी सामूहिक समझ को प्रभावित नहीं करता और यह हमारी अंतरात्मा को उद्वेलित नहीं करता।
इसलिये मरना है नौनिहालों को
बच्चों की नियति ही मर जाने की है, क्योंकि
दुखद घटना में भी हम एक बार फिर से नकली लड़ाइयाँ लड़ने का बहाना ढूँढ लेते हैं। भारत में शोक प्रकट करने की कोई प्रथा नहीं है, केवल इल्जाम लगाने का दस्तूर है। क्षण भर रुक कर इसका मूल्यांकन का समय नहीं है कि हमने क्या खो दिया है, और जो खालीपन, ये मौतें अपने पीछे छोड़ गई हैं, हम उन्हें भरने के लिये कैसे संघर्ष करें? इसकी जगह, इस खालीपन को बहुत जल्द एक दूसरे पर दोषारोपण करने, भेदभाव करने तथा अन्यमनस्कता की उसी राजनीति द्वारा भर दिया जाएगा जिसकी वजह से यह स्थिति उत्पन्न हुई है।
देश के बच्चे मरने के लिये अभिशप्त हैं, क्योंकि मध्ययुगीन प्रतिशोध लेने की भावना, संचित नाराजगी को बाहर रखने से हमारे सामाजिक, राजनीतिक एवं भावनात्मक संसाधनों का ह्रास हो गया है। हमारे नागरिकों-भविष्य की ओर देख रहे बच्चों और उम्मीदों से भरे माँ-बाप की वास्तविक विशिष्टता जाति और समुदाय की अधिक अमूर्त और हत्याओं से भरी लड़ाइयों में कहीं विलुप्त हो जाती है। अतीत की बुराइयों में फँसी राजनीति का वजन वर्तमान की पीड़ाओं को अदृश्य बना देता है।
बच्चों की मौत तय है, क्योंकि वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करने वाली हमारी संरचनाएँ अब अपरिवर्तनीय रूप से टूट चुकी हैं। हमारी परिस्थितियों की समग्रता तक पहुँचने में हमें सक्षम बनाने की जगह, वे नियमित रूप से वास्तविकता के ऊपर एक आवरण डाले रखते हैं। वे शोरगुल और आवेश की छद्म लड़ाइयों की हमारी भूख को तृप्त करते हैं, जिसका एकमात्र परिणाम नागरिकों के एक दूसरे से अधिक अलगाव के रूप में सामने आता है।
बच्चे मरने के लिये अभिशप्त हैं, क्योंकि भारत में बुराई संरचनागत बनी हुई है। इसके आने में इसके इरादों की झलक नहीं मिलती। लेकिन यह विशेषाधिकार की संरचना पर बहुत गहरे अंकित हैं, इसलिये यह निर्धनों को हाशिये पर धकेल देती है और उन्हें इतना अदृश्य बना देती है कि हम आराम से बेगुनाही की अपनी भावना के साथ जीते रहते हैं। आर्थिक हिंसा की विनाशकारी भूमिका अभी भी स्वतंत्रता एवं समानता के हमारे संवैधानिक तानेबाने का मजाक उड़ाती रहती हैं।
बच्चों का मरना तय है, क्योंकि भारत विरोध और प्रासंगिक हस्तक्षेपों के व्याकरण में शानदार है। मिशन मोड में, एक विशिष्ट छूट के तहत, हम कुछ भी अर्जित कर सकते हैं। लेकिन भारत राज्य में रोजमर्रा के कार्यों को संस्थागत बनाने के मामले में बेकार है। यह सहयोग के छोटे रूपों में खराब है। भारत में बुराइयाँ एक अलग भावना से तुच्छ हैं। भारत में बुराइयाँ इसलिये कष्टदायी हैं कि ये छोटी-छोटी निष्क्रियताओं के संचित परिणाम हैं।
बच्चे मरने के लिये अभिशप्त हैं क्योंकि प्रतीकवाद एवं प्रतिष्ठा की राजनीति तथ्यात्मकता एवं विज्ञान की किसी भी भावना पर हावी है। इस सवाल का कि गोरखपुर को इन्सेफलाइटिस-मुक्त बनाने के लिये क्या करना होगा, का जवाब एक अन्य निर्थक अनुसंधान संस्थान का निर्माण करना होगा, न कि किसी उपलब्ध ज्ञान का उपयोग। हमारे बच्चों की नियति तो मौत को गले लगाने की ही है, क्योंकि हमारा कोई समुदाय नहीं है। केवल ठेकेदारों, नौकरशाहों एवं तकनीशियनों की एक अंतहीन श्रृंखला है, जो ऐसे परिप्रेक्ष्यों में हस्तक्षेप की कोशिश कर रहे हैं, जहाँ कोई भी स्थानीय समुदाय नहीं है; एक साझा स्थान के रूप में गोरखपुर की कोई पहचान नहीं है, बल्कि नियति के ऊपर मामूली सामूहिक स्व-नियंत्रण वाले एक समुदाय की है। एक प्रकार से स्वतंत्रता ने हमें न केवल आजादी दी है, बल्कि एक अधिक तीव्र विपत्ति की ओर धकेल दिया है, जो और ज्यादा घातक है, क्योंकि इस पर लोकतांत्रिक वैधता का एक मुलम्मा भी चढ़ा हुआ है।
मटमैली दिखती तस्वीर
मैथिली शरण गुप्त का प्राचीन भारत उनकी मनगढ़ंत कल्पना हो सकती है। लेकिन उन्होंने जिन पौराणिक कथाओं का निर्माण किया, कम से कम उन्होंने कुछ सही गुणों का प्रसार तो किया। लेकिन मूल्यों के हमारे पैमाने में ज्ञान इनकार को, स्व-ज्ञान स्वयं को भूलने वाली धर्मनिष्ठता एवं अहंकार, अलगाव व विषमता को, मुक्त भावना समानुरूपता को और सबसे बढ़ कर करुणा तिरस्कार को जन्म देती है। अगर हम गोरखपुर के आईने में देखें और खुद से पूछें कि हम क्या बन गए हैं तो यह तस्वीर बहुत साफ-सुथरी नहीं दिखेगी।
लेकिन अगर हम अतीत को अतीत ही बने रहने दें और यह पूछें कि भविष्य में हम क्या बनेंगे, इसका जवाब भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं होगा। इसके आसार बहुत ज्यादा हैं कि अगले कुछ महीनों के भीतर राममंदिर निर्माण के लिये जमीनी स्तर पर राजनीतिक और न्यायिक कार्यों में तेजी आ जाएगी। इसकी उम्मीद बहुत कम है कि यह किसी करुणा का प्रतीक होगा, बल्कि यह हमारे सामूहिक अहंकार, लड़ाई और विभाजन का एक स्मारक होगा। इसकी कोई उम्मीद नहीं है पर यह एक असाधारण बात होगी अगर गोरखपुर की इस घटना के बाद अयोध्या में अस्पताल का निर्माण किया जाए न कि किसी मंदिर का। इसकी कोई उम्मीद नहीं है कि यह आने वाले दिनों में यह ऐसी चीज का प्रतीक बन जाए जो हमें पीछे रखती है : अर्थात अन्यमनस्कता, भेदभाव एवं छल की राजनीति जो गरिमा की राजनीति की राह में आती है।
भारत की आजादी को 70 वर्ष हो चुके हैं और यह कई देशों की तुलना में अभी युवा राष्ट्र है। लेकिन वक्त मूल तत्व का है, इसके पहले कि समय तेजी से बीत जाए। इस बात का वास्तविक खतरा है कि भारत के लिये बहुत जल्द ही ‘काफी देर’ हो जाए। मार्टिन लूथर किंग ने एक बार लिखा था, हमारे सामने अब यह तथ्य आ चुका है कि कल आज बन चुका है। हमारा सामना अब भयंकर तात्कालिकता से हो रहा है। जीवन एवं इतिहास के इस विकसित होते गोरखधंधे में ऐसी चीज है, जिसमें अब बहुत देर हो रही है। अनगिनत सभ्यताओं की फीकी हड्डियों और अव्यवस्थित अवशेषों के बारे में ‘बहुत देर हो चुकने’ के कारुणिक शब्द लिखे जा चुके हैं। गोरखपुर हादसे के बाद सवाल यह है : क्या आजादी के 70 वर्ष की उम्र में भारत के लिये बहुत देर हो चुकी है। बहुत देर झूठी महिमा के लिये नहीं बल्कि अपनी खुद की मानवता को फिर से पाने के लिहाज से।
प्रताप भानू मेहता, वाइस चांसलर, अशोका यूनिवर्सिटी
(साभार : इंडियन एक्सप्रेस)
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