हवा में जहरीले रसायनों और नुकसानदायक महीन कणों की तादाद इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि दिल्ली की तुलना ‘गैस चैम्बर’ से की जा रही थी। इस नाजुक मोड़ पर दिल्ली सरकार ने वायु प्रदूषण पर तुरन्त अंकुश लगाने के लिये राजधानी दिल्ली में प्राइवेट मोटर कारों को सड़क पर चलाने के लिये ‘ऑड-ईवन’ योजना लागू कर दी गई।
बात बीते दिसम्बर महीने की है। हमारे पड़ोस में शायराना मिजाज के एक बुजुर्ग रहते हैं। मैंने उन्हें कई दिनों बाद देखा तो पूछ लिया, ‘अंकल, कई दिनों से दिखे नहीं, ना पार्क में, ना मार्केट में।’ उन्होंने अपने अन्दाज में थोड़ी तल्खी से कहा, ‘दम घुटता है दिल्ली के दामन में!’ जब तक मैं कुछ समझता उन्होंने अगला जुमला भी दाग दिया, ‘अब तो हवा भी बेवफा है, इस गुलिस्तां के आंगन में।’ अब बात हमारी समझ में आ गई थी। वे राजधानी दिल्ली की बिगड़ी हवा से नाराज थे। इस हवा ने उन्हें घर में नजरबंद जो कर रखा था। साँस की परेशानी की वजह से डॉक्टरों ने उन्हें सुबह और शाम पार्क में घूमने से मना कर दिया था। हवा में ताजगी कम और खतरा ज्यादा मंडरा रहा था। केवल बड़े-बूढ़े ही नहीं, बल्कि सांस की तकलीफ झेल रहे बच्चों को भी ‘मास्क’ लगाकर स्कूल जाने की हिदायत दी गई थी। दिल्ली की हवा ने माहौल को दमघोंटू बना दिया था। हवा में जहरीले रसायनों और नुकसानदायक महीन कणों की तादाद इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि दिल्ली की तुलना ‘गैस चैम्बर’ से की जा रही थी। दिल्ली की हवा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सुर्खियों में थी।दिल्ली वाले परेशान और बेहाल थे, और दिल्ली सरकार लाचार-सी दिख रही थी। उच्चतम न्यायालय ने भी इस मसले पर अपनी चिन्ता जाहिर की और सरकार को कोई ठोस कदम उठाने का निर्देश दिया। दरअसल हवा में बढ़ते प्रदूषण के कारण लगभग दो करोड़ दिल्ली वासियों की सेहत जोखिम में पड़ गई थी। इस नाजुक मोड़ पर दिल्ली सरकार ने वायु प्रदूषण पर तुरन्त अंकुश लगाने के लिये राजधानी दिल्ली में प्राइवेट मोटर कारों को सड़क पर चलाने के लिये 1 से 15 जनवरी, 2016 के दौरान ‘ऑड-ईवन’ योजना लागू कर दी गई। यानी ऑड तारीख को केवल वही मोटर कारें सड़क पर निकल सकेंगी, जिनके रजिस्ट्रेशन नम्बर का अंतिम अंक ‘ऑड’ (1,3,5,7,9) होगा। यही नियम ‘ईवन’ तारीखों (2,4,6,8,0) के लिये भी लागू किया गया। परेशान हाल दिल्ली के लोगों ने इस योजना को खुले दिल से अपनाया। इसके लिये सराहना, प्रशंसा और शाबाशी भी मिली। बाद में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस प्रयोग के एक सप्ताह पहले और एक सप्ताह बाद के प्रदूषण स्तर की तुलना करके बताया कि आँकड़े किसी स्पष्ट रुझान की ओर संकेत नहीं करते हैं। साथ ही इस दौरान प्रदूषण स्तर में प्रत्येक दिन काफी उतार-चढ़ाव भी देखने को मिला, जिसकी स्पष्ट व्याख्या करना कठिन है।
दरअसल हवा में प्रदूषण का स्तर उस दिन हवा चलने की गति, तापमान और धूप की दशा जैसे मौसमी कारकों पर भी निर्भर करता है। इसलिये इतने कम दिनों के आँकड़ों के आधार पर यह कहना तर्कसंगत नहीं होगा। कि ‘ऑड-ईवन’ प्रयोग के दौरान प्रदूषण का स्तर सार्थक रूप से कम हो गया। परन्तु सैद्धांतिक रूप से इस प्रयोग में केवल उन दिनों प्रदूषण का स्तर कम करने की संभावना है। और इसी संभावना को देखते हुए दिल्ली सरकार ने एक बार फिर 15 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच इस प्रयोग को दोहराया। इस प्रयोग के दौरान एक अच्छे-इतर प्रभाव के रूप में सभी ने अनुभव किया और अध्ययनों से भी पता लगा कि दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक जाम की परेशानी सार्थक रूप से कम हो गई। विशेषज्ञ बताते हैं कि सड़कों पर ट्रैफिक की कमी प्रदूषण स्तर को घटाने में परोक्ष रूप से सहायता करती है और नागरिकों की कार्य क्षमता तथा उत्पादकता को भी बढ़ाती है। इन अनुकूल प्रभावों को देखते हुए देश के कुछ अन्य शहरों/राज्यों में भी इस प्रकार का प्रयोग करने पर विचार हो रहा है। इसी संदर्भ में ‘कार फ्री डे’ भी लोकप्रिय हो रहा है, जिसे पिछले अक्टूबर से प्रत्येक महीने की 22 तारीख को मनाया जाता है। इसके अन्तर्गत राजधानी दिल्ली के किसी एक क्षेत्र में उस दिन मोटर वाहन नहीं चलाये जाते। इससे उस क्षेत्र में प्रदूषण स्तर पर रोक लगने के साथ ही लोगों में प्रदूषण पर रोक लगाने की चेतना भी उत्पन्न होती है।
दिल्ली की हवा-आह या वाह!
दरअसल, दिल्ली की हवा भले ही राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय सुर्खियों और चर्चा में हो, परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि देश में दिल्ली की हवा सबसे ज्यादा खराब है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी एक ताजा रिपोर्ट में देश के 24 छोटे-बड़े शहरों में सितम्बर 2015 से जनवरी 2016 के बीच ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ की तुलना की गई। इस इंडेक्स की गणना हवा में सात प्रमुख प्रदूषकों की मात्रा के आधार पर की जाती है, जिसमें पीएम - 2.5, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड शामिल हैं। प्रदूषकों की वास्तविक मात्राओं का पता लगाने के लिये दिल्ली समेत अनेक शहरों में ‘मॉनीटरिंग स्टेशन’ बनाये गये हैं। एयर क्वालिटी इंडेक्स के मान के अनुसार बोर्ड ने हवा की क्वालिटी को छह वर्गों में बाँटा है- अच्छा (0-50), संतोषजनक (51-100), साधारण (101-200), खराब (201-300), बहुत खराब (301-400) और भीषण (401 से ज्यादा)। रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सितम्बर से इस जनवरी तक के पाँच महीनों में दिल्ली में ‘भीषण’ एयर क्वालिटी वाले दिनों की संख्या केवल 13 थी, मुजफ्फरपुर में 37, वाराणसी में 24, आगरा और फरीदाबाद में 22-22 और लखनऊ में 18 दिन ‘भीषण’ एयर क्वालिटी दायरे में थे। ‘भीषण’ एयर क्वालिटी की गम्भीरता इस तथ्य से आंकी जा सकती है कि अधिकतर देशों में ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर ‘एयर क्वालिटी इमरजेन्सी’ घोषित कर दी जाती है। लोगों को घर में रहने की सलाह दी जाती है, जिससे उनकी सेहत खतरे में न पड़े।
लेकिन दिल्ली की हवा को ‘बहुत खराब’ वाले स्तर पर सबसे ज्यादा दिनों तक पाया गया दिल्ली में ‘बहुत खराब’, दिनों की संख्या 69 थी, जबकि कानपुर में 65 और वाराणसी में 43 दिन ‘बहुत खराब’ रहे। इन आँकड़ों के विश्लेषण से एक रोचक तथ्य सामने आया- ‘खराब’ से ‘भीषण’ एयर क्वालिटी वाले अधिकांश शहर सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में हैं। इससे संकेत मिलता है कि वायु प्रदूषण को गम्भीर बनाने में मौसम और भौगोलिक स्थिति का भी दखल होता है। इस क्षेत्र में देश के उत्तर और दक्षिण के मैदानी भागों से आने वाली हवाएं एकत्र होती हैं, जिससे इनके साथ आने वाला प्रदूषण भी अधिक तीव्र होकर गम्भीर रूप धारण कर लेता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में प्रदूषण के अन्य स्रोतों जैसे कारखाने, मोटर वाहन, ईंट के भट्ठे और कोयले से चलने वाले बिजली घरों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक है इसलिये विशेषज्ञ कहते हैं कि केवल एक सीमित क्षेत्र में सीमित उपाय अपनाकर हवा की दशा को नहीं सुधारा जा सकता। इसके लिये व्यापक क्षेत्र में और निरन्तरता के साथ समग्र उपाय अपनाने होंगे।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति, नई दिल्ली | |||||||||
हवा की गुणवत्ता का आकलन (औसत प्रतिदिन, कारकों के मान माइक्रो ग्रा./घन मी. | |||||||||
मैन्युअल स्टेशन | मापदंड व आँकड़ा श्रेणी | ऑड-ईवन से पहले (25-31 दिसम्बर, 2015) | (ऑड-ईवन के दौरान (1-15 जनवरी, 2016) | ||||||
पीएम10 | पीएम 2.5 | नाइट्रोजन ऑक्साइड | सल्फर | पीएम10 | पीएम 2.5 | नाइट्रोजन ऑक्साइड | सल्फर | ||
पीतमपुरा | अधिकतम | 420 | अपर्याप्त | 44 | 9 | 541 | 429 | 98 | 17 |
न्यूनतम | 142 | अपर्याप्त | 43 | 5 | 207 | 116 | 15 | 4 | |
सीरी फोर्ट | अधिकतम |
| 548 | 286 | 98 | 39 | |||
न्यूनतम | 301 | 168 | 33 | 4 | |||||
जनकपुरी | अधिकतम | अपर्याप्त आँकड़े | 614 | 259 | 97 | 34 | |||
न्यूनतम | 367 | 102 | 24 | 4 | |||||
निजामुद्दीन | अधिकतम | 270 | अपर्याप्त | 71 | 13 | 294 | 185 | 81 | 11 |
न्यूनतम | 253 | अपर्याप्त | 51 | 13 | 161 | 84 | 31 | 4 | |
शहजादबाग | अधिकतम | 309 | 233 | 93 | 17 | 607 | 166 | 93 | 15 |
न्यूनतम | 301 | 193 | 52 | 5 | 172 | 81 | 50 | 4 | |
शाहदरा | अधिकतम | अपर्याप्त आँकड़े | 629 | 231 | 106 | 42 | |||
न्यूनतम | 217 | 82 | 26 | 4 | |||||
बहादुरशाह जफर मार्ग | अधिकतम | 454 |
| 166 | 4 | 516 |
| 159 | 17 |
न्यूनतम | 254 |
| 77 | 4 | 169 | 64 | 4 |
हाल ही में केन्द्रीय प्रदूषण निंयत्रण बोर्ड ने दिल्ली की हवा पर एक ताजा रिपोर्ट जारी की है, जिसमें पिछले पाँच वर्षों में (2011-2015) राजधानी के तीन प्रमुख स्थानों पर प्रदूषकों के मात्रा की जाँच से प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण किया गया है। इससे पता चला है कि दिल्ली की हवा में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और बेंजीन जैसे प्रमुख प्रदूषकों के स्तर में गिरावट आ रही है, जबकि सूक्ष्म कण पीएम-10 की मात्रा बढ़ रही है। इसकी वजह यह कि प्रदूषण रोकने के उपाय तो जोर-शोर से से लागू किये जा रहे हैं, लेकिन उड़ती धूल पर रोक लगाने के लिये अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है। तमाम तरह के निर्माण कार्यों, सड़कों पर झाडू लगाने और कच्चे मैदानों से लगातार उड़ती धूल दिल्ली वासियों की सेहत के लिये एक बड़ा खतरा है। दरअसल हवा में उड़ती धूल में हमारी सेहत को नुकसान पहुँचाने वाले सूक्ष्मकण मौजूद होते हैं, जिन्हें ‘पर्टिकुलेट मैटर’ या ‘पीएम’ कहा जाता है। इनमें सल्फेट, नाइट्रेट, अमोनिया, सोडियम क्लोराइड और कार्बन के कण मौजूद हो सकते हैं। धूल के महीन कणों और किसी द्रव की सूक्ष्म बूँदों को भी पीएम में शामिल किया जाता है। धूल, गंदगी, कालिख, धुआँ और उद्योगों तथा मोटर वाहनों का उत्सर्जन पीएम के प्रमुख स्रोत हैं। अपने आकार के हिसाब से उन्हें दो वर्गों में बाँटा गया हैः पीएम-10 और पीएम-2.5।
खेत-खेत धुआँ, शहर-शहर आफत राजधानी दिल्ली और उत्तर भारत के कई शहरों में सर्दी के मौसम की शुरुआत हवा में गहराती एक आफत के साथ होती है। कम तापमान के कारण कुदरती तौर पर हवा में कोहरा छाने लगता है, जिसके साथ धुआँ भी घूल-मिल जाता है। हवा खतरनाक ‘स्मॉग’ धुएँ (धुएँ और कोहरे के अंग्रेजी शब्दों क्रमशः ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ के मेल से बना अंग्रेजी शब्द) में बदलकर परेशानी की बड़ी वजह बन जाती है। खासतौर से सांस के रोगियों, वृद्धों और बच्चों को सांस लेने में परेशानी और सीने तथा आँखों में जलन जैसी तकलीफों की शिकायत होने लगती है। सामान्य रूप से स्वस्थ व्यक्ति भी ‘स्मॉग’ की चपेट में आकर सांस की तकलीफों का शिकार हो जाता है। सवाल उठता है कि इस दौरान अचानक इतना धुआँ कहाँ से आ जाता है। शहरों की हवा को सेहत की दुश्मन बनाने वाला यह धुआँ दरअसल पड़ोसी राज्यों में खेतों में लगायी गई आग से आता है। राजधानी दिल्ली के लिये पड़ोसी राज्यों का मतलब है हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश। खेतों में यह आग किसान खुद लगाते हैं। इस आग का राज जानने के लिये इन राज्यों में खेती के तौर-तरीकों पर एक नजर डालनी होगी। खेती के नजरिये से हमारे देश में दो मौसम हैं - रबी और खरीफ। नवम्बर से अप्रैल तक के फसल मौसम को रबी कहते हैं और इस मौसम की सबसे प्रमुख अनाज फसल गेहूँ है। मई से अक्तूबर के कृषि मौसम को खरीफ कहा जाता है और इस मौसम की प्रमुख अनाज फसल धान या चावल है। इस तरह उत्तर भारत के मैदानी भागों में धान-गेहूँ फसल चक्र लगातार चलता रहता है। अक्तूबर में धान की फसल की कटाई के बाद फसल के ठूंठ खेतों में खड़े रहते हैं, जिन्हें जल्दी हटाकर, खेत को साफ करके गेहूँ की बुवाई के लिये तैयार करना होता है। इस काम के लिये आमतौर पर किसान के पास 20 से 25 दिन होते हैं। किसान इस काम को कम से कम मेहनत और खर्च में करना चाहता है। किसान के लिये इसका सबसे सस्ता और सरल उपाय होता है खेतों में खड़े धान की फसल ठूंठों को आग लगा देना। बस माचिस की एक तीली और सब कुछ स्वाहा। लेकिन आनन-फानन में खेत की सफाई का यह तरीका पर्यावरण और स्वास्थ्य के नजरिये से खतरनाक और नुकसानदायी है। हवा में जहर घोलने के साथ इस प्रक्रिया में अन्यथा मिट्टी में घुल-मिल जाने वाले पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं। खेत में लगी आग के धुएँ में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर डाईऑक्साइड जैसे गम्भीर प्रदूषकों के अलावा भारी मात्रा में सूक्ष्मकण भी मौजूद होते हैं, जो सेहत को नुकसान पहुँचाते हैं। उत्तर भारत के राज्यों के अलावा कई अन्य राज्यों में भी फसल अवशेषों को ठिकाने लगाने के लिये यही खतरनाक तरीका अपनाया जाता है। परन्तु पंजाब और हरियाणा इस मामले में सबसे आगे हैं। देश भर की हवा में इस तरह घुलने वाले धुएँ में इन दोनों राज्यों की हिस्सेदारी लगभग 48 प्रतिशत है। |
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर
अपने बेहद छोटे आकार के कारण ये कण हमारी सांस लेने की प्रणाली में बहुत गहराई तक पहुँचकर नुकसान पहुँचाते हैं। इनके प्रभाव से सांस लेने में तकलीफ शुरू हो जाती है, फेफड़े के ऊतकों को नुकसान पहुँचता है, कैंसर होने की सम्भावना बन जाती है, और अंततः ये मृत्यु का कारण भी बन सकते हैं। बूढ़े व्यक्ति, बच्चे और फेफड़ों की बीमारियों, इन्फ्लूएंजा या दमा से ग्रस्त व्यक्ति सूक्ष्मकणों के प्रकोप से अधिक प्रभावित होते हैं। इसी वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हवा में पीएम-10 की स्वीकार्य सीमा 20 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर (वार्षिक औसत) निर्धारित की है। लेकिन दिल्ली की हवा में पीएम-10 की मात्रा लगभग हमेशा इस सीमा से ऊपर होती है और कई बार दस से 15 गुना तक ज्यादा हो जाती है। अनुमान लगा सकते हैं कि दिल्ली के निवासी कितनी खतरनाक हवा में साँस ले रहे हैं। पीएम 2.5 की बात करें तो जैसा नाम से जाहिर है इनका आकार 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है।
समझने के लिये इन सूक्ष्मकणों की मोटाई हमारे बाल के तीसवें हिस्से से भी कम होती है। यदि एक बार ये फेफड़ों में पहुँच गये तो रक्त वाहिकाओं और हृदय की कार्य प्रणाली को भी प्रभावित कर सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पीएम-2.5 के लिये कोई स्वीकार्य या सुरक्षित सीमा निर्धारित नहीं की है, परन्तु सिफारिश की है कि सभी देशों को इसका वार्षिक औसत मान 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम रखने का प्रयास करना चाहिए। दिल्ली समेत देश के कई शहरों में पीएम-2.5 का मान निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक पाया जाता है। उपग्रह आधारित दूर-संवेदी तकनीकों से प्राप्त आँकड़ों और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के जमीनी आँकड़ों का विश्लेषण करके डॉ. माइकेल ग्रीनस्टोन ने सन 2015 में एक चौंकाने और डराने वाला तथ्य पेश किया। उन्होंने बताया कि भारत की आधी से अधिक आबादी (66 करोड़ से अधिक) ऐसे क्षेत्रों में सांस ले रही है, जहाँ सूक्ष्मकणों का प्रदूषण भारतीय मानकों से अधिक है। इसमें सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों के ज्यादा इलाके शामिल हैं।
सूक्ष्मकणों की गंभीरता का पता लगने पर सन 2008 में दिल्ली में पहली बार इनका प्रमुख स्रोत पता लगाने के लिये एक व्यापक अध्ययन किया गया। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (नीरी) ने संयुक्त रूप से अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट में बताया कि राजधानी में सड़कों पर उड़ती धूल दिल्ली की हवा में सबसे ज्यादा, लगभग 53 प्रतिशत ‘पर्टिकुलेट मैटर’ घोलती है। इसके बाद उद्योगों (22 प्रतिशत) और मोटर वाहनों (लगभग 7.0 प्रतिशत) का स्थान है। इसी कड़ी में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के ‘सल्फर’ (सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी फॉरकास्टिंग एंड रिसर्च) कार्यक्रम के अन्तर्गत सन 2010 में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान नई दिल्ली की हवा में सूक्ष्मकणों की मौजूदगी पर अध्ययन किया गया। ‘सल्फर’ की रिपोर्ट ‘एटमॉस्फीरिक एन्वायरनमेंट’ नामक जर्नल में प्रकाशित हुई, जिसमें पर्टिकुलेट मैटर (पीएम-10) के लिये पक्की-कच्ची सड़कों और फुटपाथों से उड़ती धूल को सबसे मुख्य दोषी पाया गया। दूसरे स्थान पर मोटर वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन इसके लिये जिम्मेदार था, परन्तु यह सड़कों की धूल के मुकाबले चार गुना कम था। कुछ समय पूर्व आईआईटी-कानपुर ने दिल्ली की हवा से जुड़े दो वर्ष के आँकड़ों का विश्लेषण करके इसकी रिपोर्ट दिल्ली सरकार को सौंपी है।
इससे पता लगा कि सर्दी और गर्मी के मौसम में बदली मौसमी दशाओं जैसे हवा की गति, नमी, तापमान आदि के साथ पर्टिकुलेट मैटर के मुख्य स्रोत भी बदल जाते हैं। सर्दी में ट्रकों और दुपहिया मोटर वाहनों से सबसे ज्यादा सूक्ष्मकण उत्सर्जित होते हैं, क्रमशः 46 और 33 प्रतिशत। जबकि गर्मी में पीएम-10 के सबसे प्रमुख स्रोत क्रमशः सड़क की धूल, कंक्रीट बनाने की मशीनें, कल-कारखाने और मोटर वाहन हैं। अगर मौसमी आँकड़ों पर नजर डाली जाए तो राजधानी में गर्मी के मौसम की अवधि सर्दी की अपेक्षा अधिक होती है। इसलिये सड़कों-फुटपाथों और निर्माण कार्यों से उड़ने वाली धूल पर अंकुश लगाना आवश्यक है। हाल ही में दिल्ली सरकार ने एक निर्देश जारी कर सड़कों की सफाई के लिये ‘वैक्यूम क्लीनर’ के इस्तेमाल पर जोर दिया है। इसी तरह ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ ने निर्माण कार्यों के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं और उल्लंघन पर जुर्माने/कार्रवाई का प्रावधान भी किया है।
डीजल और सीएनजी बसों द्वारा प्रदूषण उत्सर्जन की तुलना | |||
प्रदूषक पदार्थ | डीजल | सीएनजी | प्रतिशत कमी |
कार्बनमोनोऑक्साइड | 2.4 ग्रा./कि.मी. | 0.4 ग्रा./कि.मी. | 83 |
नाइट्रोजनऑक्साइड | 21 ग्रा./कि.मी. | 8.9 ग्रा./कि.मी. | 58 |
सूक्ष्म कण (पीएम) | 380 मि.ग्रा./कि.मी. | 12 मि.ग्रा./कि.मी. | 97 |
जहर का कॉकटेल
सूक्ष्म कणों के अलावा हवा में अनेक स्रोतों से सेहत को नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थ घुलते रहते हैं, जो जीवनदायी हवा को ‘जहरीली कॉकटेल’ में बदल देते हैं। इनमें नाइट्रोजन डाइऑक्साइड एक प्रमुख गैस है, जो मुख्य रूप से मोटर वाहनों के उत्सर्जन और बिजली घर की चिमनियों से निकलने वाले यूनीवर्सिटी धुएँ में मौजूद होती है। इसके अलावा आग तापने के लिये ईंधन जलाने या सूखी पत्तियों को जलाने से भी यह गैस हवा में घुलकर हमारी सांसों तक पहुँचती है। हमारी श्वसन प्रणाली पर इससे अनेक दुष्प्रभाव देखे गये हैं, जो बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की सेहत को प्रभावित करते हैं। हवा में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की मौजूदगी से एक अन्य खतरनाक प्रदूषक गैस उत्पन्न होती है, जो आजकल गम्भीर चिन्ता का विषय भी है।
यह है ऑक्सीजन के तीन अणुओं से मिलकर बनने वाली ओजोन गैस। आमतौर पर हम इस ऊपरी वायुमंडल में तनी ओजोन की मोटी सुरक्षात्मक चादर के रूप में जानते-पहचानते हैं। परन्तु जमीनी स्तर पर इसकी मौजूदगी हमारी सेहत के लिये खतरा है। धूप होने पर हवा में मौजूद नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और अन्य ज्वलनशील जैविक यौगिक कई रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप ओजोन गैस बनाते हैं। यही कारण है कि खिली धूप वाले दिनों में ओजोन का स्तर अधिक रहता है। राजधानी दिल्ली में मोटर वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण भी हवा में ओजोन की बढ़ती मात्रा सेहत के लिये खतरनाक बनती जा रही है।
ओजोन घुली हवा में सांस लेने से कफ की शिकायत पनपती है, गले में खराश होने लगती है और दमा का प्रकोप बढ़ जाता है। ऐसे संकेत भी मिले हैं कि ओजोन की वजह से फेफड़ों की भीतरी इपीथियल कोशिकाओं की परत नष्ट होने लगती है। ओजोन वाली हवा में लगातार सांस लेने से छाती दर्द की तकलीफ शुरू हो जाती है। कुल मिलाकर बड़े हों या बच्चे, उनकी सांस लेने की क्षमता प्रभावित होती है, जिसे तकनीकी रूप से ‘लंग फंक्शन’ कहा जाता है। अनेक वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि राजधानी दिल्ली में बड़ों और बच्चों, दोनों का ही ‘लंग फंक्शन’ अन्य शहरों की तुलना में कम है। ‘लंग फंक्शन’ बताता है कि हमारे फेफड़े एक बार में हवा की कितनी मात्रा अपने अंदर समा सकते हैं और कितनी बाहर निकाल सकते हैं।
‘ऑड-ईवन’ योजना के दौरान हुए एक अध्ययन से पता लगा कि दिल्ली के लगभग 35 प्रतिशत निवासी ‘लंग फंक्शन’ में कमी की समस्या से पीड़ित हैं। वर्ष 2010 में कोलकाता के राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान संस्थान ने दिल्ली के 11,000 स्कूली बच्चों में सांस की तकलीफ के संदर्भ में एक व्यापक अध्ययन किया था। इससे पता लगा कि दिल्ली के लगभग 44 प्रतिशत बच्चे ‘लंग-फंक्शन’ में कमजोरी की समस्या से जूझ रहे थे और इनमें लड़कियों का प्रतिशत लड़कों की तुलना में अधिक था। अनेक अध्ययनों से यह बात सामने आयी है कि राजधानी दिल्ली देश में सांस के रोगियों की भी राजधानी है। कुछ ऐसे संकेत भी मिले हैं कि जहरीली हवा माँ की कोख में पनप रहे शिशु की सेहत को भी प्रभावित करते हैं।
कार्बन मोनोऑक्साइड एक अन्य रंगहीन और गंधहीन गैस है, जो दिल्ली की हवा को प्रदूषित कर रही है। यह गैस मोटर वाहनों के उत्सर्जन और बिजलीघर और व्यर्थ पदार्थ जलाने वाले संयंत्रों की चिमनियों के धुएँ में मौजूद होती है। ईंधन जलाने, अंगीठी तापने जैसे कार्यों से भी कार्बन मोनोऑक्साइड उत्पन्न होती है। सर्दियों में बंद कमरे में अंगीठी जलाकर सोने से होने वाली मौतों की मुख्य वजह यही जहरीली गैस होती है। दरअसल कार्बन मोनोऑक्साइड गैस दिल और दिमाग को जाने वाली ऑक्सीजन की मात्रा में इतनी कटौती कर देती है कि जीवन के लिये अनिवार्य ये दोनों मुख्य अंग काम करना बंद कर देते हैं। इसके अलावा इस गैस की मौजूदगी शरीर के अन्य अंगों को भी ऑक्सीजन की आपूर्ति कम कर देती है। ऑक्सीजन की कमी से शरीर शिथिल पड़ने लगता है और मस्तिष्क की एकाग्रता तथा अन्य शक्तियाँ कमजोर पड़ जाती हैं।
सल्फर डाइऑक्साइड गैस भी एक मुख्य प्रदूषक है, जो रंगहीन होती है, परन्तु इसमें एक तीखी गंध भी मौजूद होती है। यह मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधनों जैसे कोयला और तेल के जलाने से उत्पन्न होती है। हवा में इसकी मौजूदगी हमारी श्वसन प्रणाली को अनेक प्रकार से प्रभावित कर सेहत को नुकसान पहुँचाती है। सल्फर डाइऑक्साइड का एक प्रमुख स्रोत डीजल है, जिसका उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। मोटर वाहनों में डीजल के इस्तेमाल से होने वाला उत्सर्जन सेहत सम्बन्धी अनेक समस्याओं को उत्पन्न करने के साथ कैंसरकारी भी होता है। इसलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे कैंसर उत्पन्न करने वाले पदार्थों की सूची में समूह-1 में स्थान दिया है, जिसका अर्थ है कि कैंसर और इस पदार्थ के बीच सीधा सम्बन्ध है।
उल्लेखनीय है कि इसी समूह में तम्बाकू भी मौजूद है, जिसके सेवन पर नियंत्रण के लिये सरकार द्वारा गंभीर व व्यापक प्रयास किये जा रहे हैं, परन्तु डीजल की ओर अभी इतनी गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया है। हालाँकि डीजल में सल्फर की मात्रा को कम करने के लिये लगातार कोशिश की जा रही है। वर्ष 1995 में डीजल में सल्फर की मात्रा 10,000 पीपीएम थी, जिसे क्रमशः घटाते हुए वर्ष 2010 में पूरे देश के लिये 350 पीपीएम कर दिया गया, जबकि चुने गये मेट्रो शहरों में 50 पीपीएम सल्फर वाले डीजल की बिक्री की जा रही है। इसी तरह पेट्रोल (गैसोलीन) में भी सल्फर की मात्रा कम की गई और वर्तमान में पूरे देश में 150 पीपीएम सल्फर वाले पेट्रोल की बिक्री की जा रही है, जबकि चुने गये मेट्रो शहरों में 50 पीपीएम सल्फर वाला पेट्रोल उपलब्ध कराया जा रहा है।
विशेषज्ञों की राय में दोनों ही ईंधनों में इसे जल्दी से जल्दी 10 पीपीएम करने की आवश्यकता है। राजधानी में डीजल के उपयोग को नियंत्रित करने के लिये उच्चतम न्यायालय ने बीती 16 दिसम्बर, 2015 को 31 मार्च, 2016 तक के लिये दिल्ली में 2000 सीसी से अधिक इंजन क्षमता वाले डीजल मोटर वाहनों की बिक्री पर रोक लगा दी थी। इस अन्तिम तारीख के बीत जाने के बाद भी इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह रोक कायम थी। उच्चतम न्यायालय इस रोक को हटाने से पूर्व डीजल वाहनों पर ‘ग्रीन सेस’ लगाने के प्रस्ताव पर विचार कर रहा है। इससे पूर्व इस वर्ष के केन्द्रीय बजट में 1500 सीसी से अधिक की इंजन क्षमता वाले डीजल मोटर वाहनों पर चार प्रतिशत इंफ्रास्ट्रक्चर टैक्स लगाया गया है।
मकसद यह है कि डीजल वाहनों की कीमत को बढ़ाकर इनकी लोकप्रियता को कम किया जाए क्योंकि अभी तक सामान्य मान्यता है (और उच्चतम न्यायालय भी यही मानता है) कि डीजल वाहनों का उत्सर्जन पेट्रोल वाहनों के मुकाबले पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुँचता है। वैसे विशेषज्ञों का एक वर्ग इस मान्यता को गलत और भ्रामक मानता है। दिल्ली की हवा को डीजल के उत्सर्जन से बचाने के लिये उच्चतम न्यायालय ने यह आदेश भी दिया कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आने वाले ऐसे भारी वाहनों को दिल्ली में न घुसने दिया जाए, जिनकी मंजिल दिल्ली नहीं है। यानी वे किसी बाहरी मार्ग को अपनाकर अपने गंतव्य की ओर जाएँ। और जिन वाहनों को दिल्ली आना है, वे पर्यावरण टैक्स चुकाएँ जिसका इस्तेमाल दिल्ली की हवा को सुधारने में किया जाए।
हाल ही में उच्चतम-न्यायालय को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में ईपीसीए (पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण) ने बताया है कि इन आदेशों का पालन किया जा रहा है और इससे दिल्ली की हवा में सुधार भी आया है। इसी सिलसिले में यह निर्णय भी लिया गया कि दिल्ली में व्यावसायिक वाहनों का प्रवेश रात में 11:00 बजे के बाद हो, जबकि पहले यह समय 09:30 बजे था। इसी तरह उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली में चलने वाली पेट्रोल/डीजल से चलने वाली सभी टैक्सियों को सीएनजी वाहन में बदलने का आदेश दिया है। पहले इसकी अंतिम तारीख 31 मार्च थी, जिसे अब बढ़ाकर 30 अप्रैल कर दिया गया है।
मेट्रो स्वयं वायु प्रदूषण की चपेट में राजधानी दिल्ली में ट्रैफिक जाम की परेशानी और मोटर वाहनों के कारण बढ़ते वायु प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से 25 दिसम्बर, 2002 को दिल्ली मेट्रो की पहली लाइन का शुभारंभ हुआ, जिसकी लम्बाई मात्र आठ किलोमीटर थी। असाधारण कामयाबी और लोकप्रियता के कारण इसका लगातार विस्तार हुआ और आज दिल्ली मेट्रो 213 किलोमीटर के नेटवर्क के साथ राजधानी दिल्ली के अलावा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) को भी अपने 160 स्टेशनों के माध्यम से जोड़ती है। एक मोटे अनुमान के साथ दिल्ली मेट्रो ने पिछले 10 वर्षों में लगभग चार लाख मोटर वाहनों को सड़क पर उतरने से रोका, जिससे हर साल लगभग 2.76 लाख टन ईंधन की बचत हुई और 5.8 लाख टन प्रदूषक तत्व दिल्ली की हवा को नहीं बिगाड़ पाये। परन्तु हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि यह हरित मेट्रो स्वयं वायु प्रदूषण की चपेट में आ गई है, जिससे इसकी कार्य क्षमता प्रभावित हो रही है। दरअसल मेट्रो को निरन्तर बिजली की सप्लाई के लिये इसके ऊपर बिजली के उपकरण लगाये जाते हैं, जिन्हें प्रचलित भाषा में ओएचई यानी इलेक्ट्रिकल ओवरहेड इक्विपमेंट कहा जाता है। दिल्ली मेट्रो के अनुसार, बढ़ते प्रदूषण के कारण इस उपकरण में लगे इन्सुलेटर्स की सतह पर प्रदूषक पदार्थों की परत बन जाती है, जिससे करंट का रिसाव होता है, कई बार शॉर्ट सर्किट हो जाता है और पावर की सप्लाई भी बंद हो जाती है। इससे मेट्रो का आवागमन ठप पड़ जाता है। बार-बार ऐसा होने से यात्रियों को परेशानी झेलनी पड़ती है, मेट्रो को आर्थिक नुकसान पहुँचता है और इसकी प्रतिष्ठा को भी चोट पहुँचती है। इस समस्या की गम्भीरता को आंकने के लिये मेट्रो ने बेंगलुरु स्थित केन्द्रीय पावर अनुसंधान संस्थान के जरिये मेट्रो के रूट और प्रदूषण के स्तर के बीच के सम्बन्ध को जानने का प्रयास किया। पता लगा कि दिल्ली मेट्रो के 22 प्रतिशत क्षेत्र ‘बहुत अधिक प्रदूषण’ से त्रस्त हैं, जबकि 76 प्रतिशत क्षेत्र ‘अधिक प्रदूषण’ की गिरफ्त में है। ‘बहुत अधिक प्रदूषण’ वाले क्षेत्र यमुना के आस-पास हैं या औद्योगिक क्षेत्रों जैसे कीर्तिनगर और आजादपुर से लगे हुए हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए दिल्ली मेट्रो ने ओएचई में आवश्यक सुधार की योजना के साथ फेज-III में इसकी डिजाइन और सामग्री बदलने का फैसला लिया है। इस फेज में लगभग 150 किलोमीटर के रूट पर ओवरहेड इलेक्ट्रिफिकेशन किया जाना है। इसके लिये एक तो इन्सुलेटर्स में ‘क्रीपेज डिस्टेंस’ को बढ़ाया जा रहा है, जिससे शॉर्ट सर्किट और पावर सप्लाई बंद होने की समस्या पर रोक लगेगी। दूसरे गैल्वेनाइज्ड स्टील के कैंटीलीवर की जगह एल्युमिनियम के कैंटीलीवर लगाये जाएंगे, क्योंकि प्रदूषण के प्रति एल्युमिनियम की प्रतिरोधी क्षमता स्टील से बेहतर है। इसी तरह मेट्रो ट्रेन को बिजली सप्लाई करने वाले तारों की सामग्री को भी बदला जा रहा है। पहले की साधारण मिश्र धातु की जगह कॉपर-मैग्नीशियम और कॉपर-सिल्वर के तारों का उपयोग किया जाएगा। इसी तरह दिल्ली मेट्रो ने सुधरी ओएचई के जरिये वायु प्रदूषण का मुकाबला करने के लिये तैयारी कर ली है। |
विभिन्न यातायात साधनों द्वारा कार्बन उत्सर्जन की मात्रा | |
परिवहन | उत्सर्जन मात्रा |
सवारी गाड़ी | 67 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
टैक्सी (सीएनजी) | 72 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
दुपहिया वाहन (पेट्रोल) | 28 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
ऑटो-रिक्शा (सीएनजी) | 35 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
बस | 27 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
मेट्रो | 20 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड/किमी./यात्री |
स्रोतः यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कॉन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) |
दिल्ली मेट्रो फेज-1 एवं 2 से पर्यावरणीय लाभ | |||
आकलन | फेज-1, वर्ष 2007 | फेज-1 व 2, वर्ष 2011 | फेज-1 व 2, वर्ष 2014 |
सड़कों से मुक्त गाड़ियों की संख्या | 16895 | 117249 | 390971 |
पेट्रोलियम ईंधन की वार्षिक बचत | 24691 टन | 106493 टन | 276000 टन |
प्रदूषकों में वार्षिक कटौती | 31520 टन | 179613 टन | 577148 टन |
कोशिश की कभी हार नहीं होती
दिल्ली की हवा को सुधारने के प्रयासों पर यदि थोड़ा पीछे मुड़कर नजर डालें तो वर्ष 1998 से 2003 तक की अवधि को सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावी कहा जा सकता है। वर्ष 1998 में सीसा (लेड) मुक्त पेट्रोल को बाजार में उतारा गया, जिससे काफी राहत मिली। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर वर्ष 2001 में सभी सार्वजनिक बसों और ऑटो रिक्शा को सीएनजी से चलाने की एक बड़ी मुहिम शुरू की गई, जिसने दिल्ली की हवा को साफ करने में अहम भूमिका निभायी। इसके लिये दिल्ली परिवहन निगम को जल्दी ही विश्व की सबसे बड़ी सीएनजी-चालित बस सेवा होने का गौरव तथा सम्मान भी मिला। इसी क्रम में मोटर वाहनों के लिये प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र (पीयूसी) जारी करने की पहल भी की गई, जिसका प्रत्येक तीन महीने में नवीनीकरण करवाना अनिवार्य है। एक बड़ी पहल के रूप में सरकार ने वर्ष 2000 में मोटर वाहनों में भारत II उत्सर्जन मापदंडों को लागू किया, जो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यूरो II के समकक्ष है। वर्ष 2005 में भारत III और वर्ष 2010 में भारत IV उत्सर्जन मापदंडों को लागू कर दिया गया है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इन प्रयासों से वर्ष 2007 तक दिल्ली की हवा में लगातार सुधार हुआ, परन्तु मोटर वाहनों की संख्या में लगातार होने वाली बढ़ोत्तरी तथा कड़े उपायों के अभाव में दिल्ली की हवा फिर से बिगड़ी, जिससे गंभीर परिणाम आज देखने को मिल रहे हैं। उद्योगों से होने वाले प्रदूषण पर रोक लगाने के लिये दिल्ली सरकार ने एक औद्योगिक नीति (2010-2021) बनाई है, जिसमें औद्योगिक विकास के साथ प्रदूषण रोकने के उपायों पर भी स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किये गये हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के इन तमाम उपायों के साथ यह भी आवश्यक है कि जनमानस में दिल्ली की बिगड़ती हवा के प्रति चिन्ता और चेतना उत्पन्न हो। आम लोगों को यह बताना आवश्यक है कि जो हवा हमें जीवन देती है, उसमें जहर घोलने से हमारा जीवन संकट में फँस सकता है। जनमानस में चेतना उत्पन्न करने के लिये केन्द्र एवं दिल्ली सरकार द्वारा प्रचार एवं प्रसार माध्यमों के जरिये गहन प्रयास किये जा रहे हैं। इसी कड़ी में दिल्ली सरकार ने इस साल के बजट में दिल्ली के विभिन्न भागों में एलईडी स्क्रीन्स लगाने की योजना बनाई है, जिस पर वायु प्रदूषण के स्तर की जानकारी दी जायेगी तथा ट्रैफिक से सम्बन्धित सूचनाएं भी दी जाएंगी। आशा की जा रही है कि इस कदम से लोगों में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर के प्रति जागरूकता उत्पन्न होगी और वे बिना किसी बाध्यता के मोटर वाहनों के निजी उपयोग को कम से कम करके सार्वजनिक वाहनों के उपयोग की ओर कदम बढ़ाएंगे। राजधानी दिल्ली को जहरीली हवा से मुक्ति दिलाने के लिये कहीं न कहीं प्रत्येक दिल्लीवासी को यह लड़ाई अपने स्तर पर लड़नी होगी।
सम्पर्क
डॉ. जगदीप सक्सेना,98, वसुंधरा अपार्टमेंट्स प्लॉट न.- 44, सेक्टर- 9, रोहिणी, दिल्ली- 1100085, (ई-मेलः jgdsaxena@gmail.com)
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