पूर्वोल्लिखित सिद्धान्तों के आधार पर दिल्ली के पर्यावरण में सुधार करने और पर्याप्त जल संरक्षण के लिए कुछ सुधार इस प्रकार हैः-
यमुना में शुष्क मौसम में भी पर्याप्त जल स्तर रहेः-
बताया जा चुका है कि ताजेवाला बैराज से दिल्ली के उत्तरी सीमांत तक यमुना में पानी नहीं रहता जबकि इस राज्य को यमुना पानी का हिस्सा और भाखड़ातंत्र से मिला 0.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) पानी नहरों के जरिए पहुंचाया जाता है। यदि इन उपरोक्त तंत्रों से दिल्ली के हिस्से का पानी यमुना में आने दिया जाय तो 25 प्रतिशत कम जलक्षरण होगा, नदी अपने मार्ग में पड़ने वाले भूमिगत स्रोतों को नवजीवन देगी और पर्याप्त प्रवाह होने पर स्वयं स्वच्छ रहेगी। देखें कैसेः-
ए) दिल्ली के भाखड़ा वाले हिस्से और हरियाणा के यमुना वाले हिस्से के बराबर पानी का आपस में फेरबदल कर लिया जाए तो इसके परिणामस्वरूप ताजेवाला जलबांध से 371 क्यूबिक फीट प्रति सैकेंड पानी छोड़ा जाएगा।
बी) दिल्ली के अपने हिस्से का यमुना का पानी भी यमुना में रहे न कि नहर के माध्यम से आए इससे नदी में 242 क्यूसैक अतिरिक्त प्रवाह रहेगा।
सी) पर्यावरणीय कारणों से अन्तर्राज्यीय अनुबंध का शुष्क मौसम में हमें और 570 क्यूसैक अतिरिक्त प्रवाह उपलब्ध कराना है।
डी) उपरोक्त अनुबंध में उत्तर प्रदेश की आगरा नहर और हरियाणा की गुड़गांव, राजस्थान नहरों का हिस्सा लगभग 800 क्यूसैक है।
इस प्रकार ये सारे प्रवाह मिलकर शुष्क मौसम में 1983 क्यूसैक अर्थात लगभग दो हजार क्यूसैक होता है। इससे न केवल नदी का पुनरूत्थान होगा बल्कि दिल्ली सहित इस पूरे बेसिन के भूमिगत जलाशयों को नवजीवन और शुद्ध जल का वरदान मिलेगा। शुष्क मौसम के आठ मासों के दौरान ताजेवाला और दिल्ली (सहित) के बीच भूमिगत जल का पुनर्भरण करने वाले पानी की प्रमात्रा लगभग 85 एमसीएम होगी और क्षरण उससे 30 प्रतिशत कम होगा, जो अभी नहरों के माध्यम से पानी लाने में होता है।
यमुना का आठ माह तक निरंतर घात (सूखा) करते रहने का दुष्परिणाम यह है कि हमारा भूमिगत जल जहरीला हो रहा है। यह हमारा आत्मघाती पाप है, अब समय आ गया है कि हम यह समझें- हमारी परम्परा में नदियों की पवित्रता को बनाए रखने और उनके प्रति श्रद्धा रखने का जो चलन है, वह मिथ्या कर्मकाण्ड मात्र नहीं है। वास्तव में यह इस बात का निदर्शन है कि हम अपनी धरती की इन माताओं की चिन्ता करते हैं, जिससे वे इस देश के लोगों को अपना अमृत जल का वरदान निरंतर देती रहें। यह बड़ी लज्जा की बात है कि अपने राष्ट्रीय गान में हम जिन नदियों का गुणगान करते हैं, उन्हें ही हम अवरूद्ध करके और जहरीला बना कर दिन-ब-दिन नष्ट कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस प्रक्रिया में हम स्वयं शिकार हो रहे हैं और बच्चे मर रहे हैं। एक ओर वृहत नदी घाटी परियोजनाएं चलाने से शासन तंत्र में बैठे कर्णधारों की जेबें भर रही हैं, तो दूसरी ओर जनता इसमें अंशदान करती; 'ऋणग्रस्त’ हो रही है। ऐसे में हमारे कम खर्चीले साधारण प्रस्ताव स्वीकृत होंगे यह आशा दुराशा मात्र लगती है।
यमुना में शुष्क मौसम में भी पर्याप्त जल स्तर रहेः-
बताया जा चुका है कि ताजेवाला बैराज से दिल्ली के उत्तरी सीमांत तक यमुना में पानी नहीं रहता जबकि इस राज्य को यमुना पानी का हिस्सा और भाखड़ातंत्र से मिला 0.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) पानी नहरों के जरिए पहुंचाया जाता है। यदि इन उपरोक्त तंत्रों से दिल्ली के हिस्से का पानी यमुना में आने दिया जाय तो 25 प्रतिशत कम जलक्षरण होगा, नदी अपने मार्ग में पड़ने वाले भूमिगत स्रोतों को नवजीवन देगी और पर्याप्त प्रवाह होने पर स्वयं स्वच्छ रहेगी। देखें कैसेः-
ए) दिल्ली के भाखड़ा वाले हिस्से और हरियाणा के यमुना वाले हिस्से के बराबर पानी का आपस में फेरबदल कर लिया जाए तो इसके परिणामस्वरूप ताजेवाला जलबांध से 371 क्यूबिक फीट प्रति सैकेंड पानी छोड़ा जाएगा।
बी) दिल्ली के अपने हिस्से का यमुना का पानी भी यमुना में रहे न कि नहर के माध्यम से आए इससे नदी में 242 क्यूसैक अतिरिक्त प्रवाह रहेगा।
सी) पर्यावरणीय कारणों से अन्तर्राज्यीय अनुबंध का शुष्क मौसम में हमें और 570 क्यूसैक अतिरिक्त प्रवाह उपलब्ध कराना है।
डी) उपरोक्त अनुबंध में उत्तर प्रदेश की आगरा नहर और हरियाणा की गुड़गांव, राजस्थान नहरों का हिस्सा लगभग 800 क्यूसैक है।
इस प्रकार ये सारे प्रवाह मिलकर शुष्क मौसम में 1983 क्यूसैक अर्थात लगभग दो हजार क्यूसैक होता है। इससे न केवल नदी का पुनरूत्थान होगा बल्कि दिल्ली सहित इस पूरे बेसिन के भूमिगत जलाशयों को नवजीवन और शुद्ध जल का वरदान मिलेगा। शुष्क मौसम के आठ मासों के दौरान ताजेवाला और दिल्ली (सहित) के बीच भूमिगत जल का पुनर्भरण करने वाले पानी की प्रमात्रा लगभग 85 एमसीएम होगी और क्षरण उससे 30 प्रतिशत कम होगा, जो अभी नहरों के माध्यम से पानी लाने में होता है।
यमुना का आठ माह तक निरंतर घात (सूखा) करते रहने का दुष्परिणाम यह है कि हमारा भूमिगत जल जहरीला हो रहा है। यह हमारा आत्मघाती पाप है, अब समय आ गया है कि हम यह समझें- हमारी परम्परा में नदियों की पवित्रता को बनाए रखने और उनके प्रति श्रद्धा रखने का जो चलन है, वह मिथ्या कर्मकाण्ड मात्र नहीं है। वास्तव में यह इस बात का निदर्शन है कि हम अपनी धरती की इन माताओं की चिन्ता करते हैं, जिससे वे इस देश के लोगों को अपना अमृत जल का वरदान निरंतर देती रहें। यह बड़ी लज्जा की बात है कि अपने राष्ट्रीय गान में हम जिन नदियों का गुणगान करते हैं, उन्हें ही हम अवरूद्ध करके और जहरीला बना कर दिन-ब-दिन नष्ट कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इस प्रक्रिया में हम स्वयं शिकार हो रहे हैं और बच्चे मर रहे हैं। एक ओर वृहत नदी घाटी परियोजनाएं चलाने से शासन तंत्र में बैठे कर्णधारों की जेबें भर रही हैं, तो दूसरी ओर जनता इसमें अंशदान करती; 'ऋणग्रस्त’ हो रही है। ऐसे में हमारे कम खर्चीले साधारण प्रस्ताव स्वीकृत होंगे यह आशा दुराशा मात्र लगती है।
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