दिल्ली जलबोर्ड के सप्लाई पानी में प्रदूषण

दिल्ली जलबोर्ड के पानी की जांच दिल्ली नगर नीगम के लोगों ने की है। इनका कहना है कि दिल्ली जलबोर्ड का पानी प्रदूषित है। दिल्ली नगर निगम और दिल्ली जल बोर्ड के बीच इस रस्सा कस्सी के बावजूद भी लोगों को साफ पानी उपलब्ध नहीं है।

कई बेहद चिंताजनक रिपोर्टों के बावजूद स्थिति में सुधार की कोई ठोस पहल नहीं की गई, और हालत बद से बदतर होती जा रही है। यों कुछ सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने का दम भरा जा रहा है, पर पानी के मामले में गुणवत्ता की कोई फिक्र नहीं की जा रही है।

पिछले कुछ सालों से हर दूसरे-तीसरे महीने किसी सरकारी या गैरसरकारी अध्ययन में ऐसे तथ्य सामने आते रहे हैं कि दिल्ली जल बोर्ड का पानी खतरनाक हद तक प्रदूषित है और यह कई बीमारियों की वजह बन रहा है। अब खुद दिल्ली नगर निगम की ओर से कराई गई जांच में यह तथ्य उजागर हुआ है कि यहां घरों में पहुंचाया जा रहा दिल्ली जल बोर्ड का सत्तर फीसद पानी प्रदूषित है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि दिल्ली में जल बोर्ड का पानी इस्तेमाल करने वाली लगभग साठ फीसद आबादी किस जोखिम में जी रही है। पहाड़गंज, करोलबाग से लेकर नरेला जैसे इलाकों में स्थिति ज्यादा बदतर है जहां के नमूनों में सत्तर से सौ फीसद तक प्रदूषण पाया गया। आमतौर पर माना जाता है कि प्रशासन संभ्रांत इलाकों में बुनियादी सेवाओं में कोई कसर नहीं रखता। लेकिन जल बोर्ड के पानी के मामले में दिल्ली के ग्रीन पार्क, हौजखास, साउथ एक्सटेंशन, ग्रेटर कैलाश जैसे पॉश इलाकों की तस्वीर कोई बहुत अलग नहीं है। फर्क सिर्फ यह है कि इन इलाकों में पैसे वाले ज्यादातर लोग जल बोर्ड पर भरोसा न करके पीने का पानी बाजार से खरीदते हैं या फिर घर में ‘आरओ’ जैसे पानी साफ करने वाले छोटे संयंत्र लगा लेते हैं। करीब तीन महीने पहले जनगणना के आंकड़ों में यह हकीकत सामने आई थी कि दिल्ली में एक चौथाई आबादी को पीने का साफ पानी नहीं मिल पाता। इस हालत की एक वजह यह है कि यमुना की जो दशा हो चुकी है उसमें जलशोधक संयंत्रों की उपयोगिता भी बेमानी साबित हो रही है। लेकिन आखिरकार इसकी जवाबदेही किसकी है। यमुना की सफाई के नाम पर हजारों करोड़ रुपए बहाने के बावजूद इसकी गिनती उन नदियों में होने लगी है जो मृत होने के कगार पर पहुंच गई हैं।

पेयजल के मामले में समूचे देश में हालत कमोबेश यही है। लेकिन देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में यह उम्मीद की जाती है कि यहां व्यवस्थागत समस्याएं कम होंगी और अगर कभी सामने आएं भी तो उनसे तुरंत निजात पाने के उपाए किए जाएंगे। लेकिन पानी के बाजारीकरण ने जीवन के सबसे बुनियादी संसाधन के मामले में भी शासन की नीति में एक बड़ा वर्ग-भेद पैदा कर दिया है। पैसे वाले लोग बोतलबंद पानी खरीद कर अपना काम चला लेते हैं इसलिए सरकारें इस बात की बहुत फिक्र नहीं करतीं कि जल बोर्ड या जल निगम जो पानी लोगों को मुहैया कराते हैं वह पीने लायक है या नहीं। पर यह अनदेखी चरम संवेदनहीनता का ही उदाहरण है। संयुक्त राष्ट्र पीने के पानी को नागरिक अधिकारों में शामिल कर चुका है। देश का सर्वोच्च न्यायालय भी अपने एक फैसले में कह चुका है कि पीने का साफ पानी नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है। लेकिन ऐसा लगता है कि या तो सरकारों ने यह मान लिया है कि पीने के साफ पानी का इंतजाम करना उनकी बाध्यता नहीं है, या प्रदूषित पेयजल से परेशान लोग खुद-ब-खुद कोई वैकल्पिक उपाय कर लेंगे। अमेरिका में हर महीने पानी की गुणवत्ता की जांच की जाती है और उसके नतीजे नागरिकों को बताए जाते हैं। लेकिन हमारे यहां पेयजल को लेकर ऐसी संवेदनशीलता नहीं दिखाई देती। कई बेहद चिंताजनक रिपोर्टों के बावजूद स्थिति में सुधार की कोई ठोस पहल नहीं की गई, और हालत बद से बदतर होती जा रही है। यों कुछ सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने का दम भरा जा रहा है, पर पानी के मामले में गुणवत्ता की कोई फिक्र नहीं की जा रही है।

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