पूना का रिसर्च स्टेशन, जहाँ डगमारा के बनने वाले बराज का मॉडल टेस्ट हो रहा था, वही संस्था थी जहाँ से कुछ साल पहले कोसी तटबन्धों के बीच कुछ भी गैर-मुनासिब न होने का प्रमाण पत्र जारी किया गया था। बहुत से लोगों का मानना था कि डगमारा की टेकनिकल फीजिबिलिटी को लेकर जनता को समय-समय पर अलग-अलग कारणों से जान-बूझ कर गुमराह किया गया लेकिन, और उसकी सब से ताजातरीन वजह थी कि, नेपाल से पश्चिमी कोसी नहर की मंजूरी मिलने के आसार नजर आने लगे थे।
जनवरी 1971 में बिहार सरकार ने इस समस्या पर विस्तार से विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया जिसने अप्रैल 1971 में डगमारा प्रस्ताव का समर्थन किया मगर डॉ. के.एल. राव अभी भी डगमारा बराज के प्रति आश्वस्त नहीं थे। उन्होंने केन्द्रीय जल और विद्युत आयोग के अध्यक्ष का हवाला देते हुये कहा कि डगमारा बराज उस इलाके की सिंचाई समस्या का कम खर्चे वाला समाधान नहीं है और इस पर कोई फैसला करने के पहले इसके आर्थिक पक्ष का खुलासा हो जाना चाहिये।अनिर्णय की इस स्थिति का कोई हल न होता देख हरिनाथ मिश्र के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से 3 अगस्त 1971 को मिला और उनसे प्रार्थना की कि वे स्वयं रुचि लेकर दरभंगा की जनता को संशय की इस स्थिति से उबारें। इन्दिरा गांधी को दिये गये एक स्मार-पत्र में कोसी तकनीकी समिति की रिपोर्ट से उ(रण देकर कहा गया कि ‘‘केवल श्री एस.के.जैन, अध्यक्ष, केन्द्रीय जल तथा विद्युत आयोग, ने आर्थिक अध्ययन की बात की थी जो कि पूरा कर लिया गया है और (डगमारा) प्रस्ताव को उचित पाया गया है।
... समिति यद्यपि इस बात पर जोर देकर कहती है कि कोसी ने जो चिन्ताजनक परिस्थिति पचास के दशक में पैदा कर दी थी उसे भूल जाना भयंकर भूल होगी। बिहार तथा केन्द्र सरकार को उन लोगों के बहकावे में आकर निश्चिन्त हो कर नहीं बैठ जाना चाहिये जो कोसी के व्यवहार के बारे में कुछ भी नहीं जानते। यह निष्क्रियता उत्तर बिहार के निवासियों के लिए जबर्दस्त तबाही का कारण बन सकती है और तब कोई भी उपाय करने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। समिति इन विचारों को लिख करके रखना चाहती है जिससे भविष्य में यदि कुछ गड़बड़ हो तो उसका दायित्व उन्हीं लोगों के कंधे पर रखा जा सके जो सचमुच इसके लिए जिम्मेवार हैं।”
पुनर्मूषको भव! अब नहर भारदह से ही निकलेगी
यह बहुत मुमकिन है कि बिहार राज्य सरकार द्वारा गठित कोसी तकनीकी समिति की सिफारिशों और डगमारा बराज के निर्माण की दिशा में होने वाली प्रगति से नेपाल पर कुछ दबाव पड़ा हो क्यों कि डगमारा में नहर निकालने पर नेपाल को कोई फायदा नहीं होने वाला था। भारत को इतना नुकसान जरूर था कि भारदह में पश्चिमी कोसी नहर निकालने के लिए बनाये गये हेड-वर्क्स पर किया गया पूंजी निवेश व्यर्थ चला जाता। यदि सब कुछ ठीक रहा होता तो अब तक पश्चिमी कोसी नहर से सिंचाई भी मिलने लगी होती।
इधर भारत में डगमारा बराज को लेकर इंजीनियरों में मतभेद कितना तकनीकी और कितना राजनैतिक था, यह कह पाना भी मुश्किल है। पूना का रिसर्च स्टेशन, जहाँ डगमारा के बनने वाले बराज का मॉडल टेस्ट हो रहा था, वही संस्था थी जहाँ से कुछ साल पहले कोसी तटबन्धों के बीच कुछ भी गैर-मुनासिब न होने का प्रमाण पत्र जारी किया गया था। बहुत से लोगों का मानना था कि डगमारा की टेकनिकल फीजिबिलिटी को लेकर जनता को समय-समय पर अलग-अलग कारणों से जान-बूझ कर गुमराह किया गया लेकिन, और उसकी सब से ताजातरीन वजह थी कि, नेपाल से पश्चिमी कोसी नहर की मंजूरी मिलने के आसार नजर आने लगे थे।
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