देशी मछलियां बचाने की मुहिम

बारिश के मौसम में जब खेत-खलिहान डूब जाते हैं, तब धान के चीकट मिट्टी वाले खेतों में देशी मछलियां दिखती हैं- पूंटी, मौरला, टेंगरा, बेले, खोलसे, टैपा, मांगुर, कबई जैसी मछलियां जो शैवाल खाती हैं या छोटे कीड़े-मकोड़े। इन मछलियों के तैरने से धान के पौधों को ऑक्सीजन मिलता है। जब खेत में पानी घटने लगता है तो वे खेत के पास स्थित बिल, खाल-खड्ड में चली जाती हैं या फिर मरने लगती हैं। बची मछलियां लोग पकड़कर ले जाते हैं। ऐसे में प्रजनन काल के दौरान ये कम ही बची रह जाती हैं। अरसे से ऐसा होने के चलते अब देशी मछलियों की प्रजातियां नष्ट होने के कगार पर हैं।

देश भर में देशी बीजों के संरक्षण की मुहीम को बंगाल ने अनूठी धारा प्रदान की है। वहां देशी मछलियों के ‘बीज’ बचाए जा रहे हैं। मछलियों को देशी प्रजातियां बचाने के लिए लोग कहीं ‘अभय पुकुर’ खोद रहे हैं तो कहीं धनखेतों और जलभूमि में ‘खाल-बिल’ संरक्षण की मुहिम चल रही है। जागरूकता का आलम यह है कि आम आदमी ‘हिल्सा उत्सव’ और ज्यादा मुनाफा देने वाली प्रजातियों के लिए चलाए जा रहे सरकारी प्रोजेक्ट और रिसर्च पर सवाल खड़े कर रहा है। वे जानना चाहते हैं कि गांवों में पाई जाने वाली देशी मछलियों के कारोबार को बढ़ाने की कोशिश क्यों नहीं हो रही? लोग सवालों के ठोस जवाब नहीं मिलने पर चुपचाप नहीं बैठे हैं बल्कि हिल्सा उत्सव की तर्ज पर उन्होंने स्थानीय स्तर पर देशी मछलियों के नाम से उत्सव मनाना शुरू कर दिया है- कहीं ‘देशी चूना माछ उत्सव’ तो कहीं ‘टेंगरा उत्सव।’ इससे आर्थिक लाभ भी मिल रहा है और मछलियों की लुप्त प्राय कई प्रजातियों को संरक्षण भी मिला है। लोगों के इरादों का असर और देशी मछलियों की कई प्रजातियां बचाने में सफल हुए लोगों को देख सरकार भी इनमें रुचि लेने लगी है।

बर्द्धमान जिले की पूर्वस्थली से मछलियों की देशी प्रजातियों को बचाने की शुरू हुई 2001 की मुहिम अब रंग ला रही है। तब वहां पूर्वस्थली-1 ब्लॉक के बादशाह बिल और चांदेर बिल (चीकट मिट्टी के क्षेत्र) में ‘खाल-बिल उत्सव’ शुरू किया गया। तब से हर साल यह उत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव है, मछलियों की पैदावार बढ़ाने का और भिन्न प्रजातियों को खोज निकालने का। शुरू में छोटी ‘चूना माछ’ बचाने के अभियान के तहत यह उत्सव शुरू किया गया। नौकायान प्रतियोगिता, तैराकी, नदी में दीप तैराना और मछली पकड़ने की प्रतियोगिताओं के जरिए देशी मछलियों के प्रजनन-स्थलों को बचाने की मुहिम शुरू की गई। इस मुहिम के मूल में रहे नादनघाटा के स्वपन देवनाथ के अनुसार, ‘गांवों के लोग देशी मछलियों को धनखेतों और तालाबों से पकड़कर कुछ खुद खाते और कुछ लोकल मार्केट में बेचते। बाद के दिनों में जब मछलियों की मांग बढ़ी और हाइब्रिड मछलियों की ओर लोगों का रुझान हुआ तो तालाब खोदकर वैज्ञानिक तरीके से मछली की पैदावार में रुचि बढ़ी। ऐसे में प्राकृतिक रूप से खेतों में बने गड्ढे और छोटे तालाब सूखने लगे। इससे देशी मछलियों की प्रजातियां नष्ट होने लगीं।’

देशी मछलियों के लिए छोटे तालाब हैं जरूरीदेशी मछलियों के लिए छोटे तालाब हैं जरूरीबादशाह बिल और चांदेर बिल को केंद्रीय नरेगा कार्यक्रम द्वारा नया जीवन मिला। स्थानीय स्तर पर मछलियां बचाने के अभियान को भी बल मिला। स्वपन देवनाथ के अनुसार, दोनों क्षेत्रों के संयोगस्थल पर बनी छोटी झील में गाद जम गई थी। नतीजा यह होता कि आसपास का इलाका बरसात में डूब जाता और लगभग पूरे साल पानी भरा रहता। 100 दिन रोजगार कार्यक्रम के तहत छोटी झील से गाद निकाली गई और अब बादशाह बिल और चांदेर बिल की सेहत अच्छी है। इन जगहों के ‘बिल’ और पास की झील में देशी चूना मछली पाली जा रही है। इसी तरह पूर्वस्थली के श्रीरामपुर ग्राम पंचायत इलाके में छोटी देशी मछलियों की प्रजातियों के संरक्षण का काम चल रहा है। स्थानीय स्तर पर लोगों ने ऐसी मछलियों की एक तालिका तैयार की है। इस तालिका में कुछ नाम हैं- मौरला, पूंटी, खैरा, भेदा, बेले, चैला, फैसा, बाचा, दांड़के, ईचला, काजली, आमादी, केंकले, सोनाखोरके, चांदा, खोलसे, चैंग, टेंगरा, सिंघी और कबई आदि। ये स्वादिष्ट मछलियां ग्रामीण इलाकों में बेहद प्रिय हैं।

बर्द्धमान की तरह ही कोलकाता के पास के जिले दक्षिण 24 परगना के लक्ष्मीकांतपुर में कुछ इसी तरह का अभियान चल रहा है। वहां के उल्लोन गांव में स्थानीय निवासी कपिलानंद मंडल ने गांव वालों की मदद से सात तालाब तैयार कराए हैं। ‘अभय पुकुर’ नाम के इन तालाबों में मछलियों की देशी प्रजातियां पाली जा रही हैं। रामकृष्ण मिशन से जुड़े एक स्वयंसेवी संगठन विवेकानंद सेवा केंद्र ओ शिशु उद्यान से अल्प ब्याज पर इस प्रोजेक्ट के लिए मदद मिल रही है। स्थानीय प्राइमरी स्कूल के टीचर कपिलानंद याद करते हैं कि उनके एक शिक्षक किस प्रकार जगह-जगह घूमकर देशी मछलियां खरीदते और बारिश के जमा पानी से तैयार छोटे तालाबों में उन्हें पालते। इस अभियान के साथ पर्यावरणविद् स्नेहांशुविकास मंडल भी जुड़े हैं। मंडल के अनुसार, ‘बारिश के मौसम में जब खेत-खलिहान डूब जाते हैं, तब धान के चीकट मिट्टी वाले खेतों में देशी मछलियां दिखती हैं- पूंटी, मौरला, टेंगरा, बेले, खोलसे, टैपा, मांगुर, कबई जैसी मछलियां जो शैवाल खाती हैं या छोटे कीड़े-मकोड़े। इन मछलियों के तैरने से धान के पौधों को ऑक्सीजन मिलता है।

जाल में फंसी मछलियांजाल में फंसी मछलियांजब खेत में पानी घटने लगता है तो वे खेत के पास स्थित बिल, खाल-खड्ड में चली जाती हैं या फिर मरने लगती हैं। बची मछलियां लोग पकड़कर ले जाते हैं। ऐसे में प्रजनन काल के दौरान ये कम ही बची रह जाती हैं। अरसे से ऐसा होने के चलते अब देशी मछलियों की प्रजातियां नष्ट होने के कगार पर हैं। इस इलाके में बने तालाबों को खेतों से जोड़ दिया गया है ताकि जब पानी कम होने लगे तब मछलियां ‘अभय पुकुर’ में चली आएं। स्नेहांशुविकास और कपिलानंद के अनुसार, ‘तालाबों में रखकर इन्हें अधिक दिनों तक संरक्षित नहीं किया जा सकता। क्योंकि लोग मछली पालन से आमदनी के लिए तालाब खुदवाते हैं। अगर आमदनी नहीं हुई तो लोग अधिक दिनों तक ऐसी परियोजनाओं में रुचि नहीं लेंगे।’ गांवों के अलावा पूर्व कोलकाता के जलभूमि वाले इलाकों (वेटलैंड्स) में भी साउथ एशियन फोरम फॉर एन्वायरनमेंट (सेफ) नाम की संस्था देशी मछलियों की प्रजातियों के संरक्षण से जुड़ी है।

इन इलाकों की भेड़ी (छोटी झील) में 15 से अधिक प्रजातियां पाली जा रही हैं। मशहूर मुदियाली समेत कई छोटी झीलों में खलसे, बेले, गुले, सरपूंटी, टेंगरा, मौरला और मृगेल की प्रजातियों का प्रजनन कराया जा रहा है। सेफ के दीपायन डे के अनुसार ‘केंद्रीय मत्स्य अनुसंधान केंद्र’ की मदद से कई बड़े तालाबों में हम जल्द ही मछलियां छोड़ेंगे ताकि वे अंडे दे सकें। पूर्व कोलकाता के वेटलैंड्स में स्थानीय स्तर पर कुछ शोध कार्य भी चल रहे हैं। मसलन, पाया गया है कि तेलापिया, नाईलोटिका, ग्रास कार्प जैसी लोकप्रिय और अधिक मुनाफा पहुंचाने वाली मछलियां छोटी देशी मछलियां खा जाती हैं। अब किसानों को समझाया जा रहा है कि किस प्रकार वे देशी मछलियों का अलग से पालन कर मुनाफा कमा सकते हैं।

देशी मछलियों को बचाना जरूरी हैदेशी मछलियों को बचाना जरूरी है
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