-देश की 24 थालों में लगभग 1929-87 घन किलोमीटर जल संसाधन हैं। जिनमें से लगभग 690 घन कि.मी. सतही जल का ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
-पुनः आपूर्ति किये जाने योग्य भूमिगत जल स्रोतों की क्षमता 432 घन किलोमीटर है।
-वर्तमान में प्रयुक्त किये जाने योग्य जलस्रोत 112 घन किलोमीटर हैं। जिसमें से सिंचाई के लिये 322 घन किलोमीटर तथा घरेलू, औद्योगिक एवं अन्य कार्यों हेतु 71 घन किलोमीटर हैं।
-भारत में जल की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 1947 में 6000 घन मीटर थी। जो 2001 में 1829 घन मीटर रह गई। 2017 में यह घटकर 1600 घन मीटर रह जायेगी।
-सिंचाई में स्रोतों का 45 प्रतिशत जल रिस जाता है, शेष 55 प्रतिशत ही सिंचाई के लिए बचता है।
- 2010 में 694-710 घन किलोमीटर
- 2025 में 784-850 घन किलोमीटर
- 2050 में 973-1180 घन किलोमीटर
- - 2050 में ग्रामीण क्षेत्रों में 111 घन किलोमीटर एवं शहरी क्षेत्रों में 90 घन किलोमीटर जल की अतिरिक्त आवश्यकता होगी।
- औद्योगिक क्षेत्र 81 घन किलोमीटर, ऊर्जा/विद्युत उत्पादन हेतु 63-70 घन किलोमीटर जल की आवश्यकता होगी।
- केवल सिंचाई हेतु 2050 में कम से कम 628 घन किलोमीटर तथा अधिक से अधिक 807 घन किलोमीटर पानी की जरूरत होगी।
मेनग्रोव विकास पर विशेष रूप से बल दिये जाने के उद्देश्य से ‘ग्लोबल एनवायरमेंटल प्रोग्राम’ के अन्तर्गत देश के विभिन्न बायोज्योग्राफिक क्षेत्रों से सघन संरक्षण हेतु चार सिंचित क्षेत्रों की देश में पहचान कर ली गई है।
देश में 90 प्रतिशत जल कुल उत्पादन का कृषि कार्य के उपयोग में लाया जाता है। जिसमें खाद्य उत्पादन का प्रतिशत 35 है। चाण्क्य की प्रसिद्ध कृति ‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र’ में वर्षा के जल से सिंचाई की विधियों का उल्लेख मिलता है। 12 वीं शताब्दी में कश्मीर के कवि कल्हरण की कृति राजतरंगिणी में डल झील के आस-पास एक सुविकसित सिंचाई प्रणाली का जिक्र किया गया है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में इलाहाबाद के निकट श्रृंगवेरपुर नगरी में गंगा के पानी से जल ग्रहण प्रणाली पर प्रकाश डाला गया है। मौर्यकालिन इतिहास में भी सिंचाई प्रणाली के बारे में बताया गया है।
छोटी नदियों या नालों से इसके समीप के खेतों में बिना विद्युत अथवा ईंधन के सिंचाई के लिए हाइड्रोजन जल पम्प सुविधा में लाये जाते हैं। छोटी नदी या नाले पर छोटे बाँध से पानी के दबाव में इस पम्प का उपयोग किया जाता है। मध्यप्रदेश में 28 से अधिक हाइड्रोजन पम्प स्थापित हो चुके हैं जो भोपाल, खरगौन और खण्डवा क्षेत्रों में लगाये गये हैं।
तीसरी दुनिया के लोग जल प्रदूषण और जल चक्र के बिगड़ने के कारण ज्यादा परेशान हैं। जिसका कारण आर्थिक विकास, जनसंख्या वृद्धि और औद्योगीकरण है।
प्रदूषित जल में उपस्थित आर्सेनिकयुक्त जल का पान करने से चर्मरोग, पेट का रोग, फेफड़े, आँत, अमाशय के कैंसर आदि रोग उत्पन्न होते हैं। देश में कई खतरनाक बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल का सेवन ही है।
-पुनः आपूर्ति किये जाने योग्य भूमिगत जल स्रोतों की क्षमता 432 घन किलोमीटर है।
-वर्तमान में प्रयुक्त किये जाने योग्य जलस्रोत 112 घन किलोमीटर हैं। जिसमें से सिंचाई के लिये 322 घन किलोमीटर तथा घरेलू, औद्योगिक एवं अन्य कार्यों हेतु 71 घन किलोमीटर हैं।
-भारत में जल की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 1947 में 6000 घन मीटर थी। जो 2001 में 1829 घन मीटर रह गई। 2017 में यह घटकर 1600 घन मीटर रह जायेगी।
-सिंचाई में स्रोतों का 45 प्रतिशत जल रिस जाता है, शेष 55 प्रतिशत ही सिंचाई के लिए बचता है।
देश में जल की वर्षवार आवश्यकता
- 2010 में 694-710 घन किलोमीटर
- 2025 में 784-850 घन किलोमीटर
- 2050 में 973-1180 घन किलोमीटर
- - 2050 में ग्रामीण क्षेत्रों में 111 घन किलोमीटर एवं शहरी क्षेत्रों में 90 घन किलोमीटर जल की अतिरिक्त आवश्यकता होगी।
- औद्योगिक क्षेत्र 81 घन किलोमीटर, ऊर्जा/विद्युत उत्पादन हेतु 63-70 घन किलोमीटर जल की आवश्यकता होगी।
- केवल सिंचाई हेतु 2050 में कम से कम 628 घन किलोमीटर तथा अधिक से अधिक 807 घन किलोमीटर पानी की जरूरत होगी।
सिंचाई
मेनग्रोव विकास पर विशेष रूप से बल दिये जाने के उद्देश्य से ‘ग्लोबल एनवायरमेंटल प्रोग्राम’ के अन्तर्गत देश के विभिन्न बायोज्योग्राफिक क्षेत्रों से सघन संरक्षण हेतु चार सिंचित क्षेत्रों की देश में पहचान कर ली गई है।
देश में 90 प्रतिशत जल कुल उत्पादन का कृषि कार्य के उपयोग में लाया जाता है। जिसमें खाद्य उत्पादन का प्रतिशत 35 है। चाण्क्य की प्रसिद्ध कृति ‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र’ में वर्षा के जल से सिंचाई की विधियों का उल्लेख मिलता है। 12 वीं शताब्दी में कश्मीर के कवि कल्हरण की कृति राजतरंगिणी में डल झील के आस-पास एक सुविकसित सिंचाई प्रणाली का जिक्र किया गया है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में इलाहाबाद के निकट श्रृंगवेरपुर नगरी में गंगा के पानी से जल ग्रहण प्रणाली पर प्रकाश डाला गया है। मौर्यकालिन इतिहास में भी सिंचाई प्रणाली के बारे में बताया गया है।
छोटी नदियों या नालों से इसके समीप के खेतों में बिना विद्युत अथवा ईंधन के सिंचाई के लिए हाइड्रोजन जल पम्प सुविधा में लाये जाते हैं। छोटी नदी या नाले पर छोटे बाँध से पानी के दबाव में इस पम्प का उपयोग किया जाता है। मध्यप्रदेश में 28 से अधिक हाइड्रोजन पम्प स्थापित हो चुके हैं जो भोपाल, खरगौन और खण्डवा क्षेत्रों में लगाये गये हैं।
तीसरी दुनिया के लोग जल प्रदूषण और जल चक्र के बिगड़ने के कारण ज्यादा परेशान हैं। जिसका कारण आर्थिक विकास, जनसंख्या वृद्धि और औद्योगीकरण है।
प्रदूषित जल में उपस्थित आर्सेनिकयुक्त जल का पान करने से चर्मरोग, पेट का रोग, फेफड़े, आँत, अमाशय के कैंसर आदि रोग उत्पन्न होते हैं। देश में कई खतरनाक बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल का सेवन ही है।
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