हमारे देश में पनबिजली परियोजनाओं के नाम पर हजारों बांध बनाए जा रहे हैं जिससे अब नदियां सूखती जा रही हैं। गंगा और यमुना जैसी नदियों की सफाई के नाम पर अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद हमारी नदियां गंदगी ढो रही हैं। खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का भरपूर उपयोग हो रहा है और भूजल के अत्यधिक दोहन से अब देश में जल संकट मडराने लगा है।
गौरतलब है कि पानी में सीसा की मौजूदगी बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास को बाधित करती, वयस्कों में गुर्दे और उच्च रक्तचाप की वजह बनती है, जबकि ऐसे ही दूसरे तत्त्वों से शरीर में कई खतरनाक रोग घर बना लेते हैं। विश्व बैंक अपनी एक रपट में बता चुका है कि भारत में करीब साठ फीसद बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जाहिर है, स्थिति खतरे के निशान के करीब पहुंच चुकी है। मगर सवाल है कि जिन वजहों से ऐसा हो रहा है, क्या सरकारें उनसे अनजान हैं? जल संसाधन मंत्रालय की यह रिपोर्ट समस्या के गहराते जाने की पुष्टि करती है। लेकिन विडंबना है कि ऐसी रपटों से हमारी सरकारों के माथे पर शायद ही कोई शिकन उभरती है। मुश्किल केवल घरेलू उपयोग के पानी या पेयजल तक सीमित नहीं है।
कीटनाशकों और रासायनिक खादों के अतार्किक इस्तेमाल की वजह से खेतों से होकर बहने वाला बरसात का पानी जहरीले रसायनों को नदियों में पहुंचा देता है। इसके अलावा, शहरों से गुजरने वाली नदियां मल-जल और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे के चलते बेहद प्रदूषित हो चुकी हैं। मगर इस दिशा में सरकार की चिंता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं से लेकर गंगा और यमुना जैसी नदियों की सफाई के नाम पर अरबों रुपए बहाने के बावजूद अब तक गंदे पानी के सिर्फ दस फीसद के प्रबंधन का इंतजाम हो सका है। यह उन स्थितियों के बरक्स एक कड़वी हकीकत है, जिनमें शहरों-महानगरों के सुव्यवस्थित होने का मतलब केवल फ्लाईओवरों का जाल बिछाना और मॉलों-सोसाइटियों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराना हो चुका है।
भूजल के बेलगाम दोहन से लेकर खेतों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बेहिसाब छिड़काव आखिरकार जमीन के भीतर पानी को या तो धीरे-धीरे खत्म कर रहा है या फिर उसमें जहर घोल रहा है। मगर सरकार की चिंता यहीं तक सीमित लगती है कि अगर पानी के लिए कीमत चुकाना अनिवार्य बना दिया जाए तो समस्या पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन इससे पानी का उपयोग कम होने के अलावा कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। जब तक नदियों और भूजल को प्रदूषित करने के लिए जिम्मेदार कारकों पर लगाम नहीं लगाई जाएगी, समस्या और गंभीर होती जाएगी।
जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं से लेकर गंगा और यमुना जैसी नदियों की सफाई के नाम पर अरबों रुपए बहाने के बावजूद अब तक गंदे पानी के सिर्फ दस फीसद के प्रबंधन का इंतजाम हो सका है। यह उन स्थितियों के बरक्स एक कड़वी हकीकत है, जिनमें शहरों-महानगरों के सुव्यवस्थित होने का मतलब केवल फ्लाईओवरों का जाल बिछाना और मॉलों-सोसाइटियों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराना हो चुका है।
भूजल के गिरते स्तर और उसके लगातार प्रदूषित होते जाने को लेकर काफी समय से चिंता जताई जाती रही है। करीब साढ़े चार महीने पहले संसद में पेश अपनी एक रपट में सीएजी ने जल प्रदूषण की भयावह स्थिति पर कहा था कि हमारे घरों में जिस पेयजल की आपूर्ति की जाती है, वह प्रदूषित और कई बीमारियों को पैदा करने वाले जीवाणुओं से भरा होता है। अब खुद जल संसाधन मंत्रालय की ओर से संसद में पेश आंकड़े बताते हैं कि देश के करीब साढ़े छह सौ जिलों के एक सौ अट्ठावन इलाकों में भूजल खारा हो चुका है, दो सौ सड़सठ जिलों के विभिन्न क्षेत्रों में फ्लोराइड की अधिकता है और तीन सौ पचासी जिलों में नाइट्रेट की मात्रा तय मानकों से काफी ज्यादा है। निश्चित रूप से यह परेशान करने वाला तथ्य है। इसी तरह, कई इलाकों के पानी में आर्सेनिक, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम और लौह तत्वों की भारी मात्रा मौजूद है, जो आदमी की सेहत को चौपट कर रही है।गौरतलब है कि पानी में सीसा की मौजूदगी बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास को बाधित करती, वयस्कों में गुर्दे और उच्च रक्तचाप की वजह बनती है, जबकि ऐसे ही दूसरे तत्त्वों से शरीर में कई खतरनाक रोग घर बना लेते हैं। विश्व बैंक अपनी एक रपट में बता चुका है कि भारत में करीब साठ फीसद बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जाहिर है, स्थिति खतरे के निशान के करीब पहुंच चुकी है। मगर सवाल है कि जिन वजहों से ऐसा हो रहा है, क्या सरकारें उनसे अनजान हैं? जल संसाधन मंत्रालय की यह रिपोर्ट समस्या के गहराते जाने की पुष्टि करती है। लेकिन विडंबना है कि ऐसी रपटों से हमारी सरकारों के माथे पर शायद ही कोई शिकन उभरती है। मुश्किल केवल घरेलू उपयोग के पानी या पेयजल तक सीमित नहीं है।
कीटनाशकों और रासायनिक खादों के अतार्किक इस्तेमाल की वजह से खेतों से होकर बहने वाला बरसात का पानी जहरीले रसायनों को नदियों में पहुंचा देता है। इसके अलावा, शहरों से गुजरने वाली नदियां मल-जल और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे के चलते बेहद प्रदूषित हो चुकी हैं। मगर इस दिशा में सरकार की चिंता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं से लेकर गंगा और यमुना जैसी नदियों की सफाई के नाम पर अरबों रुपए बहाने के बावजूद अब तक गंदे पानी के सिर्फ दस फीसद के प्रबंधन का इंतजाम हो सका है। यह उन स्थितियों के बरक्स एक कड़वी हकीकत है, जिनमें शहरों-महानगरों के सुव्यवस्थित होने का मतलब केवल फ्लाईओवरों का जाल बिछाना और मॉलों-सोसाइटियों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराना हो चुका है।
भूजल के बेलगाम दोहन से लेकर खेतों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बेहिसाब छिड़काव आखिरकार जमीन के भीतर पानी को या तो धीरे-धीरे खत्म कर रहा है या फिर उसमें जहर घोल रहा है। मगर सरकार की चिंता यहीं तक सीमित लगती है कि अगर पानी के लिए कीमत चुकाना अनिवार्य बना दिया जाए तो समस्या पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन इससे पानी का उपयोग कम होने के अलावा कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। जब तक नदियों और भूजल को प्रदूषित करने के लिए जिम्मेदार कारकों पर लगाम नहीं लगाई जाएगी, समस्या और गंभीर होती जाएगी।
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