देश जब बदनाम होता है, डॉर्लिंग, हमारी गंदगी के कारण तो तकलीफ होती है, न? भारत सरे-बाजार-ए-आलम बदनाम है, इन दिनों राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर। बदनामी घपलों-देरियों की वजह से कम हुई, गंदगी से ज्यादा। दुनिया हैरान है कि हमने विदेशी खिलाड़ियों के कमरे बिना साफ किए उनके हवाले कैसे कर दिए। दाखिल होने के कुछ ही क्षणों के बाद वे बाहर भागे-भागे निकले। गंदगी की हद देखकर। उन्होंने देखा कि रसोई घरों में मल पड़ा हुआ था, आवारा कुत्ते सो रहे थे बिस्तरों पर, गलियों में कूड़ा पड़ा था। उपर से पाया कि दीवारें गंदी थीं और टॉयलेट काम नहीं कर रहे थे। जब शिकायतें की गईं, तो खेलों के उच्च अधिकारियों ने टीवी पर कहा कि उनकी तरफ से तो खिलाड़ियों की रिहायश का स्थान बिलकुल साफ था। ललित भनोट साहब ने तो यहां तक कहा दिया, ‘हो सकता है, उनके हिसाब से जो गंदा माना जाता है, वह हमारे हिसाब से गंदा नहीं माना जाता।’
कई भारतीयों को उनकी यह बात अच्छी नहीं लगी। ट्विटर के माध्यम से कड़े शब्दों में लानत भेजी गई ललित भनोट को। लेकिन भनोट साहब की बातों में जो कड़वा सच है, उसका सामना अगर हम अब भी करने को तैयार नहीं हैं, तो हमारे देश के बच्चों का भविष्य आइंदा भी उतना ही दुख भरा होगा, जैसा आज है। हमारे नवजात बच्चे मरते हैं बचपन से पहले और मौत का मुख्य कारण है गंदगी।
लीजिए सुनिए कुछ आंकड़े। भारत में हर वर्ष दो करोड़ 60 लाख बच्चे पैदा होते हैं, जिनमें से 20 लाख बच्चे पांच वर्ष तक पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं। वे मरते हैं, अकसर निमोनिया या दस्त होने की वजह से। दोनों बीमारियां फैलती हैं-गंदगी से। जितने बच्चे भारत में बेमौत मरते हैं, दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं मरते। जहां हमारे भारत महान में प्रति 1,000 में से 69 बच्चे मरते हैं, वहीं सिंगापुर में सिर्फ 4.1 है शिशु मृत्यु दर। आगे सुनिए। भारत देश के राज्यों में भी फासले हैं, बहुत बड़े। मध्य प्रदेश में प्रति 1,000 में से 91 बच्चे मरते हैं, पांच बरस की उम्र तक पहुंचने से पहले और केरल में सिर्फ 14। इतना फासला क्यों है? अगर केरल आप गए हों, तो देखा होगा कि उत्तर भारत के बड़े प्रदेशों के मुकाबले में दक्षिण का यह राज्य बहुत साफ है। केरल के देहातों में आपको नहीं दिखेंगे सड़ते हुए कूड़े के ढेर।
उत्तर भारत में आपको ऐसे ढेर हर गली में दिख जाएंगे। केरल शिक्षित राज्य है और वहां की माताएं अच्छी तरह जानती हैं कि बच्चों को जानलेवा दस्त लगता है गंदे पानी से। पानी अगर उबालने के बाद नवजात बच्चों को दिया जाए, तो उनकी जान बच सकती है। गंदगी का गरीबी से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन हमारे शासकों ने गरीबी को बहाना बनाकर अपनी नाकामियां छिपाई हैं, दशकों से। म्यांमार जो भारत से कहीं ज्यादा गरीब देश है, बिलकुल साफ है। श्रीलंका भी सफाई का वही स्तर रखता है, जो पश्चिम के विकसित देशों में दिखता है। भारत में भी जहां सफाई अभियान चलाए गए हैं, किसी पंचायत के द्वारा वहां आपको स्वच्छता देखने को मिलती हैं। महाराष्ट्र सरकार ने कुछ वर्ष पहले जब ‘स्वच्छ ग्राम’ अभियान शुरू किया था, तो मैं सांगली के पास एक छोटे गांव में उस अभियान का असर देखने गई थी।
गांव का नाम था, मालवड़ी और वहां की सरपंच जब छाया कांबले नाम की एक दलित महिला बनी, तो उसने हर घर में निजी शौचालय के निर्माण का जी-जान से अभियान चलाया। परिणाम यह हुआ कि गांवों में बीमारी का दौर आधे से कम गिर गया और गांवों की नालियों में साफ पानी बहने लगा। ऐसे अब कई गांव हैं भारत में, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अभी कोई ठोस कोशिश स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से नहीं हुई है। इस अस्वस्थ्य मंत्रालय ने इतनी भी कोशिश नहीं की कि टीवी जैसे अति असरदार माध्यम द्वारा लोगों तक सफाई का संदेश पहुंचाया जाए। यह काम आसान है, लेकिन हुआ नहीं। जहां-जहां अज्ञानता है इस देश में, वहां आपको मिलेगी गंदगी। जहां गंदगी है, वहां बीमारी का होना स्वाभाविक है।
दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में बरसात के हर मौसम के बाद डेंगू जैसी बीमारियां फैलती हैं, जो पैदा होती हैं गंदे पानी में और फैलती हैं मच्छरों के जरिये। हम भारतीयों को तो आदत है गंदगी और बीमारी की, लेकिन विदेशी खिलाड़ियों को नहीं। वे भारत की राजधानी का गंदा, बीमार हाल देखकर ऐसे घबरा गए हैं कि कइयों ने दिल्ली पहुंचने से पहले ही न आने के फैसले कर लिए। बहुत बदनाम हुआ भारत देश इन राष्ट्रमंडल खेलों की वजह से। लेकिन अगर इससे हमारे शासक इतना ही सीख जाएं कि 21 वीं सदी में 16वीं सदी की गंदगी नहीं हो सकती, तो बहुत बड़ी चीज होगी। हमारे खिलाड़ी स्वर्ण पदक जीतें या न जीतें, कोई परवाह नहीं। परवाह हमको होनी चाहिए चाहिए उस गंदगी को खत्म करने की, जिससे देश बदनाम हुआ।
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