प्राकृतिक (क्लाइमेट) इमरजेंसी या आपातकाल की बात कोई कपोल कल्पना नहीं है। बल्कि नवंबर, 2019 में विज्ञान के एक अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-बायोसाइंस द्वारा भारत समेत दुनिया के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों के बीच एक शोध अध्ययन कराया, जिसका नतीजा यह है कि पिछले 40 वर्षों में ग्रीनहाउस गैसों के अबाध उत्सर्जन और आबादी बढ़ने के साथ-साथ पृथ्वी के संसाधनों के अतिशय दोहन, जंगलों के कटने की रफ्तार बढ़ने, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और मौसम के पैटर्न में बदलाव से हालात सच में क्लाइमेट इमरजेंसी वाले हो गए हैं। इन हजारों वैज्ञानिकों ने यह कहते हुए चिंता प्रकट की कि अगर जल्द ही जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोई ठोस कार्य योजना नहीं बनाई गई तो इंसान नामक प्रजाति के विलुप्त होने तक खतरा पैदा हो सकता है क्योंकि जलवायु आपातकाल (क्लाइमेट इमरजेंसी) का वक्त आ पहुंचा है। हालांकि ये हजारों वैज्ञानिक क्लाइमेट इमरजेंसी वाले नतीजे पर पहुंचते, उससे पहले ही ब्रिटेन और आयरलैंड ने एक-एक करके अपने यहां जलवायु आपातकाल घोषित कर दिया। ब्रिटेन दुनिया का ऐसा पहला मुल्क बना, जिसने अपने यहां जलवायु आपातकाल घोषित किया।
उसने 1 मई, 2019 को सांकेतिक तौर पर यह प्रस्ताव पारित किया। यह कदम लंदन में हुए एक आंदोलन के बाद उठाया गया था। यह आंदोलन एक्सटिंशन रिबेलियन इन्वायरॉन्मेंटल कैम्पेन समूह ने चलाया था। इस समूह का लक्ष्य 2025 तक हरित गैसों के उत्सर्जन की सीमा शून्य पर लाने और जैवविविधता के नुकसान को खत्म करना है। इस पहल को वैश्चिक स्तर पर वाम झुकाव वाले दलों का समर्थन हासिल था। ब्रिटेन की पहल कदमी के बाद पड़ोसी आयरलैंड में उसका अनुसरण किया। 10 मई, 2019 को आयरलैंड की संसद ने जलवायु आपातकाल घोषित कर दिया। वहां संसदीय रिपोर्ट में एक संशोधन करके "जलवायु आपातकाल घोषित किया गया और संसद से आह्वान किया गया कि किस तरह से जांच कर वह (आयरिश सरकार) जैवविविधता को नुकसान के मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया में सुधार कर सकती है। यह संशोधन बिना मतदान स्वीकार कर लिया गया। आयरिश ग्रीन पार्टी के नेता और संसद में यह संशोधन पेश करने वाले इमॉन रॉयन ने इस निर्णय को ऐतिहासिक करार दिया। सवाल है कि आखिर दुनिया में क्लाइमेट इमरजेंसी की नौबत क्यों आ गई है।
कितना बदल गया इंसान
इससे इनकार नहीं है कि जैसी धरती हमें सदियों पहले मिली थी, उसका चेहरा हमेशा ठीक वैसा ही तो नहीं रह सकता था क्योंकि विकास की कीमत हमारे इसी पर्यावरण को अदा करनी थी। लेकिन यह घरती और इसका पूरा माहौल औद्योगिक क्रांति के डेढ़ सौ बरस में ही इतना ज्यादा बदल गया है कि वैसा कुछ पृथ्वी पर जीवन के विकास के हजारों साल लंबे इतिहास में कभी नहीं हुआ। इसका अहसास यूं तो 40.50 पहले भी वैज्ञानिक बिरादरी को हो गया था। इसकी एक गवाही 40 साल पहले जेनेवा में आयोजित हुई पहले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस) से मिलती है, जिसमें जुटे विज्ञानियों ने जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन के संबंध में चिंता जताई थी। यूं तो इसके पीछे कुछ कारण तो बिल्कुल साफ हैं। जैसे हर किस्म का प्रदूषण फैलाना और दूसरे जीवों की फिक्र छोड़कर सिर्फ अपने विकास के लिए पृथ्वी के संसाधनों का बेतहाशा दोहन करना। प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जैसी चीजें एक समस्या हैं, पर ये असल में इंसान की उस प्रवृत्ति की देन हैं, जिसमें उसने इस जीवन दायिनी धरती से सिर्फ लेना सीखा है, उसे लौटाना नहीं। यही वजह है कि पृथ्वी की स्थिति दिनोंदिन विगड़ती जा रही है। हम भले ही विश्व पर्यावरण दिवस और पृथ्वी दिवस जैसे आयोजन कर लें, पर सच्चाई यह है कि इसकी परवाह कोई नहीं कर रहा है कि पृथ्वी का इतने तरीकों से और इतनी अधिक बेदर्दी से दोहन हो रहा है कि धरती हर पल कराह रही है। हर साल पर्यावरण संबंधी जो रिपोट्स आती हैं, उनसे पता चलता है कि पृथ्वी के वायुमंडल में पहले से ज्यादा जहरीली गैसें और गर्मी घुल गई हैं। इस गर्मी के चलते गंगोत्री और अंटार्कटिका-आर्कटिक जैसे ग्लेशियर तेजी से पिछलने लगे हैं। इन कारणों से पृथ्वी के जीवन में रंग घोलने वाली तितलियों, मधुमक्खियों, मेंढक व मछली प्रजातियों, चिड़ियों, दुर्लभ सरीसृपों और विभिन्न जीव-जंतुओं की सैकड़ों किस्में हमेशा के लिए विलुप्त हो गई हैं। जंगल खत्म हो गए हैं, पानी का अकाल पड़ रहा है। मरुस्थलों के फैलाव की रफ्तार में तेजी आ रही है, कार्बनडाइ ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा काफी ज्यादा बढ़ गई है जिससे सांस लेना दूभर हो गया है। नदियों से भी आस टूट रही है। उम्मीद थी कि हमारी पृथ्वी का कुछ जीवन ये नदियां बचा लेंगी, लेकिन उन्हें भयानक ढंग से प्रदूषित कर दिया गया है। अब तो नदियों के ही अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है।
कहां-कितना असर
वैसे तो बीते 40-50 वर्षों की अवधि में दुनिया में पृथ्वी की सेहत यानी पर्यावरण संबंधी मामलों को लेकर लोगों में जागरूकता आई है और उनकी जानकारी का स्तर बढ़ा है। लेकिन ऐसी जागरूकता किस काम की, जो पृथ्वी के संसाधनों के बुरी तरह से हो रहे दोहन पर कोई लगाम न लगाए। समस्या संसाधनों के दोहन को लेकर इंसान के बढ़ते लालच की है। असल में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन कर रहा है, लेकिन उसकी भरपाई का जरा-सा प्रयास नहीं हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण इकाई (यूनेप) ने एक रिपोर्ट जारी करके एक आकलन किया है कि धरती के दोहन की रफ्तार प्राकृतिक रूप से होने वाली भरपाई के मुकाबले 40 प्रतिशत तक ज्यादा है। यानी मनुष्य एक साल में जितने प्राकृतिक संसाधनों-हवा, पानी, तेल, खनिज आदि का इस्तेमाल करता है, उतने संसाधनों की क्षतिपूर्ति में पृथ्वी को न्यूनतम डेढ़ साल लग जाता है। धीरे-धीरे भरपाई के मुकाबले दोहन का प्रतिशत बढ़ता भी जा रहा है। दावा है कि इसकी भरपाई अब तभी हो सकती है जब इंसानों के रहने के लिए डेढ़ पृथ्वियां मिल जाएं। चूंकि हम अपने इस ग्रह का विस्तार नहीं कर सकते, इसलिए स्व. स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक यह आह्वान करते रहे हैं कि अब इंसानों को अपने रहने के लिए किसी और ग्रह का इंतजाम कर लेना चाहिए। चूंकि दूसरे ग्रह पर जा बसना अभी की सूरतों में किसी भी तरह मुमकिन नहीं लगता, इसलिए कोशिश यही है कि इसी पृथ्वी को फिर से रहने लायक बनाया जाए, जिसका एक रास्ता जलवायु परिवर्तन थामने की कोशिशों के तहत की जाने वाली संधियां बनाती हैं। पर इसमें बड़ी बाधा यह है कि बड़े देश ही इन संधियों को फिजूल बताकर इनमें शामिल नहीं होने या किसी बहाने से इनसे बाहर निकलने का रास्ता खोजती हैं। उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2015 में पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के 21वें जलवायु सम्मेलन के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और पर्यावरण सुधार के वास्ते किए जाने वाले खर्च को लेकर 195 देशों ने एक समझौता किया था। सीरिया और निकारागुआ को छोड़कर अन्य सभी देशों ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करते हुए दुनिया में बढ़ रहे तापमान (ग्लोबल वॉर्मिंग) रोकने पर यह सहमति जताई थी कि 2020 में लागू किए जाने के बाद वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस घटाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही, जलवायु परिवर्तन थामने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय सहायता के रूप में 100 अरब डॉलर हर साल दिए जाएंगे और इस राशि को आने वाले वर्षों में बढ़ाया जाएगा। यूं तो अमरीका इस समझौते में शामिल रहा है, लेकिन ट्रंप शुरुआत से ही इसका यह कहते हुए विरोध करते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन असल में एक मिथ्या अवधारणा है और इसके पीछे चीन की सरकार है। यही नहीं, ट्रंप ने अपने चुनावी अभियान तक में अमरीका को पेरिस संधि से बाहर लाने की बात कही थी। ट्रंप का मत है कि यह समझौता अमरीका के अपने ऊर्जा स्रोतों के इस्तेमाल को सीमित करता है। सवाल यह है कि जब लोगों से अपने घर के भीतर नहीं सुलझते, ऐसे में कोई वैश्विक समझौता बिना किसी विरोध के भला कैसे टिक सकता है।
पर्यावरण संबंधी समझौतों पर अमरीका जैसे शक्तिशाली देश के रवैये को लेकर लंबी-चौड़ी बहस हमेशा हो सकती है। यह सवाल उठ सकता है कि जलवायु परिवर्तन संबंधी कोई समझौता किसी बड़े देश के हितों और विकास की उसकी रफ्तार को कितना प्रभावित करता है और इसे देखते हुए समझौते में रहने या उससे बाहर निकलने का फैसला उसी देश को करना चाहिए या नहीं। पर इतना तय है कि ग्लोबल वार्मिंग और इस कारण जलवायु परिवर्तन की समस्या ने पृथ्वी पर निवास योग्य स्थितियों में बड़ा बदलाव कर दिया है। इन बातों को अंदाजा देश के अलग-अलग हिस्सों में वायु और जल प्रदूषण की स्थितियों को देखकर लग जाता है।
पिछले कुछ वर्षों में थोड़े-थोड़े अंतराल पर देश की राजधानी दिल्ली-एनसीआर से लेकर देश के बड़े शहरों में इधर जो वायु प्रदूषण छाया रहा है, उससे हालात की गंभीरता का अंदाजा हमें अपने देश में भी हो रहा है। इसलिए यह बात कोई भी कह सकता है कि दुनिया के हालात इस समय क्लाइमेट इमरजेंसी वाले ही हैं और इससे निपटने के उपायों को युद्धस्तर पर लागू नहीं किया गया तो हमारी सांसों और रग-रग में घुलते प्रदूषण के जहर को बाहर निकालना नामुमकिन हो जाएगा। इसी तरह पृथ्वी को खोखला करने वाली दोहन की नीतियों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो हवा-पानी से लेकर हर चीज का ऐसा अकाल पैदा हो जाएगा कि इंसान चाहकर भी जीवन के लिए जरूरी संसाधन नहीं जुटा सकेगा।
ऐसी परिस्थितियां पैदा न हो, इसके लिए जरूरी है कि क्लाइमेट इमरजेंसी को एक वास्तविकता माना जाए और इससे बचने-निपटने के असरदार उपाय लागू किए जाएं।
संपर्क - श्री अभिषेक कुमार सिंह, आई-201, इरवो (रेल विहार) अल्फा-1, निकट-रॉयन इंटरनेशनल स्कूल ग्रेटर नोएडा - 201 308 (उ.प्र.) [ईमेल: abhi.romi20@gmail.com]
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