चुटकी भर नमकः पसेरी भर अन्याय


जले पर नमक जैसा ही था नमक कर। यह कर कई चुटकियों में आया। शुरूआत होती है सन् 1757 से। अंत में सब चुटकियों का जोड़ कुल मुट्ठी से भी ज्यादा भयानक बन गया था। गांधीजी ने जब सन् 1930 में दांडी जाकर चुटकी भर नमक उठा इस कानून को तोड़ने की योजना बनाई थी तो उनके निकट के कई साथियों को भी इसके पीछे छिपा अन्याय, अत्याचार ठीक से दिख नहीं पा रहा था। गांधीजी ने एक ऐसे ही मित्र की आपत्ति पर बस एक पंक्ति का पत्रा लिखा थाः ‘नमक बनाकर तो देखिए।’ छाया की तरह गांधीजी के साथ रहे श्री महादेवभाई ने भी नमक कर के इतिहास पर न जाने कब अपने व्यस्ततम समय से वक्त निकाल भयानक जानकारी एकत्र की थी। अब इरपिंदर भाटिया हमारा परिचय एक ऐसे अंग्रेज लेखक के काम से करा रही हैं, जिसने पिछले दिनों भारत आकर नमक कानून का बेहद कड़वापन खुद चखा है।

आज से दो महीने पहले यदि कोई मुझसे कहता कि हमारे देश की आज दिख रही गरीबी, दीन-हीन स्थिति और मौजूदा भ्रष्टाचार, कंपनी बहादुर व ब्रिटिश शासन का सारा छल कपट, फरेब और अंधे लालच और देश के रजवाड़ों का बिकाऊपन का सारा का सारा लेखा-जोखा एक बहुत ही जरा-सी मामूली चीज के कारोबार में अपनी सारी झलक दिखा देता है तो भला कैसे विश्वास होता! लेकिन ये सच है।

मार्च 2008 में अहमदाबाद में गांधी-कथा के बाद बातचीत में श्री नारायण भाई देसाई ने जोर देकर कहा था कि बापू के नमक सत्याग्रह की तह तक पहुंचना है तो रॉय मॉक्सहम की पुस्तक ‘दी ग्रेट हैज’ जरूर पढ़ना। पुस्तक का शीर्षक बड़ा ही अटपटा है। अंग्रेजी में हैज शब्द का अर्थ बागड़, या बाड़ होता है। वह भी झाड़ी वाली बाड़। वह भी खूब लंबी चौड़ी। ऐसे शीर्षक वाली पुस्तक का नमक के कर से भला क्या संबंध?

अहमदाबाद से दिल्ली लौटकर इस किताब की तलाश की। उस तक मैं कैसे पहुंची यह अपने आप में एक किस्सा है। पर वह सब फिर कभी। रॉय की यह पुस्तक पूरे सबूतों के साथ इसे बताती है कि 350 वर्षों के ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने उन्हीं की कहानियों में मिलने वाले एक खलनायक ड्रेकुला की तरह करोड़ों भारतीयों का खून ही नहीं चूसा बल्कि उन्हें नमक जैसी जरूरी चीज से वंचित कर उनके हाड़-मांस-मज्जा का पीढ़ियों तक क्षय कर दिया था। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। शरीर विज्ञान के शोध बताते हैं कि नमक हमारे खून का एक बहुत जरूरी हिस्सा है। और शरीर में इस तत्व का घाटा शरीर के लिए बेहद घातक और तरह-तरह के रोग पैदा करता है। यह नमक हमारे दुधारू पशुधन के लिए भी उतनी ही जरूरी चीज है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमारे देश में आने के बाद पुरानी सिंचाई व्यवस्था को बिना सोचे-विचारे बदल दिया था। उसके कारण आए भयंकर सूखे और अकाल के समय लाखों लोग और उनके पशु नमक की कमी के कारण मरे हैं।

रॉय कई बार भारत यात्रा कर चुके थे। सन् 1995 में कलकत्ता में पुरानी किताबों की एक दूकान पर रॉय मॉक्सहम को मेजर जनरल स्लीमन की एक दिलचस्प पुस्तक मिली। इस पुस्तक के फुट नोट्स में रॉय को एक उद्धरण मिलाः

“नमक पर लागू किए गए कर वसूलने के लिए एक ऐसी अमानवीय व्यवस्था गढ़ी गई जिसके समानान्तर व्यवस्था दुनिया के किसी भी समय और शिष्ट देश में नहीं मिलेगी। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक एक कस्टम लाईन बनाई गई है। सन् 1869 में सिंधु नदी से लेकर महानदी तक फैली इस 2,300 मील लंबी लाईन की सुरक्षा के लिए लगभग 12,000 आदमी तैनात थे। यह कस्टम लाईन कटीली झाड़ियों और पेड़ों से बनी एक भीमकाय लंबी और अभेद्य बाड़ के रूप में थी।“

‘द फिनांसेस एंड पब्लिक वर्क्स ऑफ इंडिया सन् 1869-1881’ से लिए गए इस उद्धरण से समझ में आएगा कि चुटकी भर नमक के ऊपर लगे पसेरी भर कर का भयानक वर्णन करने वाली इस पुस्तक का नाम लेखक रॉय मॉक्सहम ने बाड़ से जोड़कर कैसे रखा है।

मॉक्सहम खुद अंग्रेज हैं। उन्हें इस प्रारंभिक जानकारी से बड़ा अचरज हुआ। उन्हें लगा कि भारत में राज करने आए अंग्रेज कितने बेहूदे, मूर्ख थे। क्रूर तो थे ही। उन्होंने इसके बारे में खोजबीन शुरू की। लेकिन आश्चर्य उन्हें भारत में अंग्रेजी राज के इतिहास की किसी भी पुस्तक में इस बाड़ का कहीं कोई जिक्र ही नहीं मिला। जरा से नमक के लिए इतना अन्याय।

उन्होंने इस नमक कर की तह तक जाने की लड़ाई, खोज जारी रखी। खोजते-खोजते आखिर उन्हें श्री स्ट्रेची द्वारा लिखी एक पुस्तक मिल गई। फिर जल्द ही कुछ नक्शे भी मिल गए, जिन पर इस लंबी चौड़ी बाड़ को दर्शाया गया था। खुलासा हो गया कि कहीं हरे-भरे, कहीं सूखे कंटीली झाड़-झाड़ियों, बेलों और वृक्षों और कहीं-कहीं थोड़े बहुत पत्थरों की चुनाई की बनी यह बागड़ सचमुच थी। रॉय ने इसे नक्शों से जमीन पर उतार कर खोजने का मन बना लिया था। सितंबर में अपनी घनिष्ट मित्र दिट्ठी के भतीजे संतोष को साथ ले रॉय ग्वालियर जा पहुंचे। उन्हें पूरा भरोसा था कि नक्शों और आसपास के गांवों के बड़े-बूढ़ों की मदद से वे कस्टम लाईन यानी बाड़ को खोज लेंगे।

जैसा नक्शे में दिखाया था, यमुना के आजू-बाजू उसकी सहायक नदी चंबल, उसमें मिलने वाली अन्य कई छोटी-बड़ी नदियों के आसपास जलाऊं, जगमापुर, सुरावन, गोहन और फिर झांसी- रॉय ने सभी जगह पर अन्याय की इस बागड़ को खोजा, लोगों से पूछा। न जमीन पर बाड़ का कोई नामो-निशां मिला और न मिले उस बाड़ की बाबत जानने वाले बड़े-बूढ़े। रॉय कोई शोधकर्ता तो थे नहीं। वे अपनी जिंदगी चलाने लंदन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में दुर्लभ पुरानी पुस्तकों के संरक्षण की देखभाल की नौकरी करते थे। यहां वे इस बागड़ के तलाश में छुट्टी लेकर अपने खर्च से आए थे। अब छुट्टियां खत्म हो गई थीं। निराश रॉय इंग्लैंड वापस लौट गए, लेकिन इस निर्णय के साथ कि अगले साल फिर से खोजने आएंगे महा-बाड़।

अगले एक साल में रॉय मॉक्सहम ने अपनी नौकरी करते हुए मेहनत से समय निकाला और वे भारत में नमक के कारोबार और कर का गहरा अध्ययन वहीं रहते हुए करते रहे। आखिर उन्होंने आगरा जिले का एक बहुत बड़ा नौ गुणा नौ फुट का नक्शा खोज निकाला। इस नक्शे पर अक्षांश और देशांतर समेत उन्हें बाड़ का पूरा खाका मिल गया। भारत की जमीन पर बाड़ खोजना अब उन्हें बहुत आसान लगने लगा था। यह नक्शा, एक कंपास और एक आधुनिक ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम नामक यंत्र लेकर रॉय फिर से भारत लौटने की तैयारी करने लगे।

अपने इस गहरे अध्ययन से रॉय को मालूम चला कि भारतीयों को नमक से वंचित करने की कहानी सन् 1757 में राबर्ट क्लाईव की बंगाल विजय से शुरू हुई थी। बंगाल विजय के तुरंत बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने ऐसी बहुत-सी जमीन खरीदी, जिस पर नमक उद्योग चलता था। रातों-रात कंपनी ने जमीन का किराया दुगना कर दिया और नमक पर निकासी कर लगा दिया। एकाएक नमक का दाम दुगना-तिगुना हो गया। सन् 1764 में क्लाईव ने मुगलों को हरा कर बिहार, उड़ीसा और बंगाल की दीवानी और सारी आय अपने हाथों में ले ली। क्लाईव के नेतृत्व में कंपनी के 61 वरिष्ठ अधिकारियों ने एक नई कंपनी बना ली। इसका नाम रखा एक्स्क्लूसिव कंपनी। नमक, सुपारी व तेंदु पत्तों के व्यापार पर एकाधिकार इस कंपनी को दे दिया गया। अब कंपनी को छोड़ नमक के व्यापार से जुड़े सभी लोगों का कारोबार चैपट हो गया था। कंपनी के नमक के अलावा कोई और नमक न पैदा हो सकता था, न बेचा जा सकता था।

फिर सन् 1780 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में नमक का समस्त उत्पादन भी अपने अधिकार में ले लिया। इसके साथ ही नमक पर लगा टैक्स और बढ़ा दिया। इससे उसका दाम तो बढ़ना ही था। सन् 1780 में नमक कर से कंपनी को 70 लाख पौंड की कमाई हुई थी। बेमाप टैक्स के कारण नमक का दाम इतना बढ़ गया कि नमक का दाम आदमी की पहुंच के बाहर होने लगा। जरा सोचिए कि नमक जैसी चीज साधारण चैके से, मसालदान से बाहर हो गई। और फिर अमीरों भर की पहुंच में रह गई। तब आसपास के रजवाड़ों और खास कर उड़ीसा की खिलारियों का, नमक क्यारियों का सस्ता और बेहतरीन नमक चोरी-छुपे बंगाल में आने लगा। इससे नई बनी कंपनी के नए अनैतिक व्यापार को नुकसान होने लगा। लोग इसे रोकने के लिए सन् 1804 में कंपनी ने उड़ीसा पर चढ़ाई कर वहां का भी सारा का सारा नमक उत्पादन अपने कब्जे में ले लिया।

सदियों से उड़ीसा के समुद्री तट पर नमक बनाने वाले हजारों-हजार मलंगी, अगरिया परिवार या तो बेरोजगार हो गए या फिर अंग्रेजों के दास। जो चोरी छुपे इस पुश्तैनी धंधे में लगे रहे, उन्हें कंपनी ने अपराधी बता दिया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लोग सस्ते नमक को तरसने लगे। नमक की चोरी, अवैध उत्पादन, मिलावट और नमक की तस्करी जोर पकड़ने लगी। समुद्र किनारे बसे जो प्रदेश समुद्र के खारे पानी को क्यारियों में फैलाकर सूरज की किरणों से सहज ही नमक बनाकर समाज में बेहद सस्ते दाम पर बेचते थे- वह सारा कारोबार, संगठन एकाएक गैरकानूनी हो गया। उसे बनाने, खरीदने वाले अपराधी बन गए। दो धड़े बन गए। हर हाल में नमक का पूरा-का-पूरा टैक्स वसूलने के लिए लामबंद कंपनी का सख्त प्रशासन। और सस्ते नमक पाने के लिए तरसते साधारण जन। इसी से जन्म हुआ कस्टम लाईन का जो आगे चल कर महा-बाड़ बन गई- नमक का कर वसूल करने के लिए।

रॉय बताते हैं कि नवंबर 1998 में जब वे फिर से बाड़ खोजने के लिए भारत लौटे तो वे समझ चुके थे कि यह महा-बाड़ किन्ही दो-चार अंग्रेज अधिकारियों का बेहूदा फितूर नहीं था। यह आम भारतीयों को सहज उपलब्ध नमक से वंचित रखने के लिए तैयार किया गया एक पक्का षडयंत्रा था। इसे बेदह कड़ी निगरानी और बेरहमी से लागू करने में कई प्रबुद्ध अंग्रेज अधिकारी तैनात किए गए थे।

सन् 1878-79 में भयंकर अकाल पड़ा था। उस समय खाने-पीने की बाकी चीजों के दाम अभी छोड़ दें- नमक का दाम था 12 रुपए मन, जबकि एक आम आदमी की कमाई थी ज्यादा से ज्यादा तीन रुपए महीना। अकाल हो, सूखा हो, बाढ़ या महामारी, अंग्रेज ने नमक के कर में कभी छूट नहीं दी। खैर एक बार फिर से रॉय मॉक्सहम और उनके साथी संतोष झांसी, जलाऊं, इटावा, आगरा और ललनपुर के नक्शों, एक अदद कंपास और जी.पी.एस. से लैस होकर कस्टम लाईन बनाम बागड़ की खोज में निकल पड़े।

कैसे विकसित हुई ये बाड़? इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है। नमक के टैक्स की पूरी और पक्की वसूली के लिए, सब से पहले कंपनी प्रशासन ने हर जिले में एक कस्टम चैकी नाका बनाया था। यहां से कर चुकाने के बाद ही नमक आगे जा सकता था। फिर उसने पाया कि नमक की तस्करी होने लगी है। लोग चोरी-छिपे बिना कर चुकाए नाके से नमक आगे ले जाते हैं। यानी तस्करी रोकने के लिए ये चैकियां काफी नहीं हैं, खास कर घनी आबादी वाले क्षेत्रों में तो बिल्कुल भी नहीं। 1823 में कंपनी ने यमुना के लागे-लागे सभी सड़कों, रास्तों और व्यापार मार्गों पर भी कस्टम चौकियों की एक श्रृंखला तैनात कर दी। चैकियों की यह दूसरी श्रृंखला बढ़ती गई और लंबी होती चली गई।

1834 में प्रशासनिक निर्णय हुआ कि चैकियों की दो श्रृंखलाओं को मिला कर एक किया जाए और सभी चैकियों को आपस में जोड़ दिया जाए। चैकियों की यही अनवरत श्रृंखला आगे चलकर ‘परमट लाईन’ यानी महा बागड़ बनी। कितनी सख्त-करख्त और जबर्दस्त थी बाड़ की व्यवस्था, देखिएः

हर एक मील पर चैकी। चैकी पर गार्ड दस्ता। हर दो चैकियों को जोड़ता एक ऊंचा पुश्ता। पुश्ते पर 20-40 फीट चौड़ी और लगभग 20 फीट ऊंची कहीं सजीव, कहीं सूखी, कंटीली बाड़। हर एक मील पर एक जमादार तैनात। हर जमादार के नीचे दस गुमाश्ते। दिन-रात लगातार गश्त। होशियार। होशियार बिना नमक का कर अंग्रेजों को चुकाए गलती से भी कोई हिंदुस्तानी कहीं नमक न खा जाए।

जी.पी.एस. यंत्र और बड़े नक्शे की मदद से रॉय और संतोष झांसी, ओरछा, ग्वालियर और आगरा में बाड़ के अक्षांश, देशांतर को पकड़ कर मीलों मील चले लेकिन बाड़ फिर भी नहीं मिली। छुट्टियां खत्म होने पर रॉय एक बार फिर इंग्लैंड लौट गए। रॉय ने तय किया कि जिस बाड़ को एलन ओकेटवियन ह्यूम ने अंग्रेजी कर्मठता और दृढ़निश्चय की अनूठी मिसाल कहा, जिसे उन्होंने चीन की दीवार का दर्जा दिया, उस बाड़ को ढूंढूंगा जरूर।

इन्हीं ह्यूम का कहना था कि “आगरा, दिल्ली और सागर जिले के नमक तस्कर ऐसे अपराधी हैं जिन के प्रति कोई सहानुभूति नहीं बनती। कानूनन इन्हें सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। छह महीने की बामशक्कत कैद और जुर्माना ऐसा, जिसे भरना इनके बूते के बाहर हो”।

इस बार इंग्लैंड में रॉय ने भारत में ब्रिटिश काल की वार्षिक रिपोर्टों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि देश भर में हर वर्ष कस्टम लाईन पर हजारों नमक तस्कर पकड़े जाते थे। हजारों को सजा मिलती थी। गुमाश्तों और तस्करों के बीच झगड़े-फसाद, मार-पीट और हिंसा की कई वारदातें उन्हें इन रिपोर्टों में दर्ज मिलीं। भयानक पिटाई के कारण कई तस्करों के मारे जाने की भी घटनाएं थीं। सन् 1874-75 में एक पूरा का पूरा गांव विद्रोह में उठ खड़ा हुआ था। रिपोर्ट में आगे दर्ज है कि विद्रोह के लगभग सभी सरगने धर लिए गए और कईयों को कड़ी सजा मिली। सबसे लंबी सजा थी बारह वर्ष, जी हां नमक चुराने की!

नवंबर 1998 एक बार फिर जीपी.एस. और नक्शों से लैस रॉय मॉक्सहम और संतोष महाबाड़ की खोज में निकले। इस बार उनका मुकाम था चंबल के बीहड़। एरिक में उन्हें मिले हनुमान मंदिर के पुजारी राधेश्यामजी जो कभी यहां बीहड़ में डकैत हुआ करते थे। राधेश्यामजी कस्टम लाईन से खूब वाकिफ निकले और रॉय और संतोष को सीधे आगे ले गए।

आखिरकार विशालकाय इमली के दो वृक्षों से चलती कस्टम लाईन की एक रेखा उन्हें मिल गई। कई जगह पर यह रेतीला रास्ता खेतों का हिस्सा बन चुका था। आसपास के कई किसान कस्टम लाईन से खूब परिचित थे और उत्साह से आगे बढ़कर इन खोजी मित्रों की पूरी मदद कर रहे थे। कस्टम लाईन पर कई जगह सिलसिलेवार बेर की झाड़ियां मिलीं। रॉय और संतोष ने ढेरों फोटो खींचे और लौट आए।

रॉय के मन में एक कसक थी। ये कस्टम लाइन तो है पर महाबाड़ नहीं। इसी कसक के कारण अगले दिन रॉय और संतोष ने फिर इटावा का रास्ता पकड़ा। चंबल के किनारे पालीधर गांव में उन्हें श्री पी.एस चैहान मिले। एक कॉलेज के रिटायर्ड प्रिंसीपल। चैहान साहब सीधे उन्हें ले गए अपने गांव के किनारे। सामने खेतों के बीचों-बीच दूर तक जा रहा था बीस फुट चैड़ा एक पुश्ता। इस पुश्ते पर यानि कस्टम लाईन पर चढ़कर तीनों आदमी साथ-साथ आगे चलने लगे। चलते-चलते एकाएक कस्टम लाईन एक बागड़ में बदलने लगी। ऊंचे पुश्ते पर मिलने लगे, बेर, बबूल, कीकर और खैर के कंटीले झुंड, कहीं-कहीं बीस-बीस फीट ऊंचे। जहां-तहां ढेरों नागफणियां और तरह-तरह की कटीली झाड़ियां। यहां पुश्ता पूरा चालीस फीट चैड़ा था। तो आखिर रॉय ने महाबाड़ खोज ही ली! तो ये थी वो अभेद्य बाड़, जिसे किसी भी आदमी, जंगली जानवर, हाथी, घोड़े, बैलगाड़ी के लिए सहज ही पार करना असंभव था। कुछ दूर तक यों ही चलते-चलते धीरे-धीरे बाड़ क्षीण होते-होते खत्म हो गई।

सन् 1825 में भारतीय ब्रिटिश सरकार का कुल राजस्व था अस्सी करोड़ पाऊंड। इसमें से पच्चीस करोड़ पाऊंड बटोरा गया था सिर्फ नमक के कारोबार से। यानी चुटकी भर नमक अंग्रेज के खजाने में भारत से होने वाली आमदनी का लगभग तीसरा हिस्सा था। इस महा बाड़ और अंग्रेज के लालच की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। उधर बाड़ की अभेद्यता और नमक की तस्करी रोकने की सफलता चरम पराकाष्ठा तक पहुंची और इधर ब्रिटिश प्रशासन की राय बदलने लगीः

ब्रिटिश शासन के बाहर रजवाड़ों का सारा नमक उत्पादन अंग्रेज अपने अधिकार में ले ले, नमक पैदा होने की जगह पर ही एक मुश्त टैक्स लगा दे और काम खत्म। अगले कुछ ही सालों में डरा-धमका कर खिला-पिला-फुसलाकर अंगे्रज प्रशासन ने औने-पौने दामों पर रजवाड़ों के नमक का सारा उत्पादन हथिया लिया।

फिर सन् 1879 में ब्रिटिश प्रशासन ने पूरे भारत में नमक पर एक सरीखा शुल्क लागू कर दिया। सस्ता नमक पूरे देश में समाप्त हो गया। न सस्ता नमक रहा, न रही तस्करी। 1879 के इस कर-एकीकरण के बाद महा बाड़ को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।

रॉय मॉक्सहम कहते हैं कि बाड़ मिलने की मुझे बहुत खुशी होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं है। मैं जब इस महा बाड़ के बारे में सोचता हूं तो मुझे उन लाखों भारतीयों की याद आती है जो थोड़े से नमक के लिए इस बीहड़ बाड़ से जूझते थे। मेरा मन उदास हो जाता है।

ठीक कह रहे हैं रॉय। लेकिन मेरा मन इससे भी ज्यादा उदास होता है, ये सोचकर कि इसी बाड़ की जड़ों से उपजी थी भ्रष्टाचार की एक ऐसी लीक जो आज तक हमारी संस्कृति को दीमक की तरह चाट रही है! भ्रष्टाचार के जो ओछे और तुच्छ रूप हम आज चारों तरफ देखते हैं, वे सब अंग्रेज की विरासत हैं। इसके बारे में फिर कभी।

इरपिंदर भाटिया सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाती रही हैं। अब धीरे-धीरे ऐसे कामों से अपने को खींच कर वे अपनी शक्ति सीधे सामाजिक कामों में लगा रही हैं।

 

 

 

 

 

अज्ञान भी ज्ञान है

(इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

अज्ञान भी ज्ञान है

2

मेंढा गांव की गल्ली सरकार

3

धर्म की देहरी और समय देवता

4

आने वाली पीढ़ियों से कुछ सवाल

5

शिक्षा के कठिन दौर में एक सरल स्कूल

6

चुटकी भर नमकः पसेरी भर अन्याय

7

दुर्योधन का दरबार

8

जल का भंडारा

9

उर्वरता की हिंसक भूमि

10

एक निर्मल कथा

11

संस्थाएं नारायण-परायण बनें

12

दिव्य प्रवाह से अनंत तक

13

जब ईंधन नहीं रहेगा

 

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