यह कुछ अजीब ही है कि जिन्ना चाहते थे कि अंग्रेजों के सामने ही उन्हें उनका पाकिस्तान मिल जाए, बले गांधी विभाजन टालने की कितनी भी कोशिश करें; आम्बेडकर चाहते थे कि अंग्रेज जाने से पहले भारतीय समाज में दलितों की स्थिति की गारंटी कर दें, भले गांधी कहते रहें कि हम खुद ही यह सब कर लेंगे; सावरकर-कुनबा चाहता था कि अंग्रेजों के जाने से पहले ही गांधी का काम तमाम कर दिया जाए ताकि गांधी उनकी राह का रोड़ा न बनें। इसलिए अंग्रेजों ने जैसे ही भारत से निकलने की जल्दीबाजी शुरू की, इन सबने भी अपनी-अपनी कोशिशें तेज कर दी। गांधी पर बार-बार हमले होने लगे।
30 जनवरी, 1948 को जो हुआ वह तो महात्मा गांधी की हत्या के कायर नाटक का छठा अध्याय था। उससे पहले सावरकर-मार्का हिंदुत्ववादियों ने पांच बार महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास किए और हर बार विफल हुए। हम उन घटनाओं में उतरें तो यह भी तो यह भी पता चलेगा कि इनमें से किसी भी प्रयास के बाद हमें गांधीजी की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती है। मृत्यु और उसके भय की तरफ मानो उन्होंने अपनी पीठ कर दी थी।
गांधीजी की जान लेने की जितनी कोशिशें दक्षिण अफ्रीका में हुईं- हमें ध्यान रखना चाहिए कि वहां हिन्दू-मुसलमान का याकि किसी सुहरावर्दी का यानि 55 करोड़ का कोई मसला नहीं था- उनमें से कुछ का जिक्र पिछले पन्नों में आपने जेम्म डगलस की जबानी पढ़ा। डरबन से प्रीटोरिया जाते हुए ट्रेन से उतार फेंकने की घटना हो या चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की घोड़ागाड़ी की यात्रा में हुई बेरहम पिटाई का वाकया, दोनों में उनका अपमान-भर हुआ ऐसा नहीं था बल्कि दोनों ही प्रकरणों में उनका अंग भंग भी हो सकता था, जान भी जा सकती थी। चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की यात्रा के बारे में उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि ‘मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं अब अपनी जगह पर जिंदा नहीं पहुंचूंगा।’ लेकिन वे अपनी जगह पर जिंदा पहुंचे और इन सब घटनाओं के बीच ही कभी, कहीं उन्हें उस कीड़े ने काटा जिसने उनकी जिंदगी का रंग व ढंग, दोनों बदल दिया।
जानकारी के अभाव में या किसी आंतरिक कालिमा के प्रभाव में कुछ लोगों को लगता है कि गांधीजी की अहिंसा की बात एकदम कागजी थी, क्योंकि उन्होंने क्रूर हिंसा का या मौत का सीधा सामना तो कभी किया ही नहीं! ऐसे लोगों को भी और हम सबको भी जानना चाहिए कि किसी को मारने की कोशिश में अपनी मौत का आ जाना और खुद आगे बढ़कर मौत का सामना करना, दो एकदम भिन्न बातें है। पहली कोटि में गांधीजी कहीं मिलते नहीं हैं; दूसरी कोटि में झांकने का भी साहस हममें है नहीं। इसलिए हमें इतिहास का सहारा लेना पड़ता है।
गांधीजी की संघर्ष-शैली ऐसी थी कि जिसमें हिंसा या हमला था ही नहीं, इसलिए जीत या हार भी नहीं थी। वे वैसा रास्ता खोज रहे थे जिसमें लड़ाई तो हो, कठोर व दुघर्ष हो लेकिन उससे सामने वाला खत्म न हो, साथ आ जाए। वे अपने-से असहमत लोगों को साथ लेकर अपनी फौज खड़ी करने में जुटे थे- फिर चाहे वे जनरल स्मट्स हों कि रानी एलिजाबेथ कि रवींद्रनाथ ठाकुर कि आंबेडकर कि जिन्ना कि जवाहरलाल नेहरू! हमें सदियों से, पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिखाया तो यही गया है न कि दुश्मन से न समझौता, न दोस्ती! लेकिन यहाँ भाई गांधी ऐसे हैं कि जो किसी को अपना दुश्मन मानते ही नहीं हैं। तुमुल संघर्ष के बीच भी उनकी सावधान कोशिश रहती थी कि सामने वाले को ज्यादा संवेदनशील बनाकर कैसे अपने साथ ले लिया जाए।
वह प्रसंग याद करने लायक है। दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान लंदन के बिशप गांधीजी से मिले। मुलाकात के दौरान गांधीजी का चरखा कातना चलता ही रहता था। उस दिन भी वैसा ही था। बिशप चाहते होंगे कि गांधीजी सारा काम छोड़कर उनसे ही बात करें। इसलिए पहुंचते-ही-पहुंचते बिशप ने अपना दार्शनिक तीर चलायाः मिस्टर गांधी, प्रभु जीसस ने कहा है कि अपने दुश्मन को भी प्यार करो! आपका इस बारे में क्या कहना है? गांधीजी की चरखे में निमग्नता नहीं टूटी। जवाब भी नहीं आया और सूत भी नहीं रुका, तो बिशप को लगा कि शायद मेरा सवाल सुना नहीं! सो फिर थोड़ी ऊंची आवाज में अपना सवाल दोहराया। अब गांधीजी का हाथ भी रुका, सूत भी; और वे बोलेः आपका सवाल तो मैंने पहली बार में ही सुन लिया था। सोचने में लगा था कि मैं इस बारे में क्या कहूं, मेरा तो कोई दुश्मन ही नहीं है!..बिशप अवाक् उस आदमी को देखते रह गए, जो फिर से चरखा कातने में निमग्न हो चुका था।... लेकिन जो किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता है उसे इसी कारण दुश्मन मानने वाले तो होते ही हैं।
1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका छोड़कर, फिर वापस न जाने के लिए भारत आ गए। उस दिन से 30 से 30 जनवरी 1948 को मारे जाने के बीच, उनकी सुनियोजित हत्या की पांच कोशिशें हुईं।
पहली कोशिशः1934
तब पुणे हिंदुत्व का गढ़ माना जाता था। पुणे की नगरपालिका ने महात्मा गांधी का सम्मान समारोह आयोजित किया था और उस समारोह में जाते वक्त उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया। नगरपालिका के मुख्य अधिकारी और पुलिस के दो जवानों सहित सात लोग गम्भीर रूप से घायल हुए। हत्या की यह कोशिश विफल इसलिए हुई कि जिस गाड़ी पर यह मान कर बम डाला गया था कि इसमें गांधीजी हैं, दरअसल गांधीजी उसमें नहीं, उसके पीछे वाली गाड़ी में थे। चूक हत्या की योजना बनाने वालों से ही नहीं हुई, उनसे भी हुई जिन्हें इस षडयंत्र का पर्दाफाश करना था। मामला वहीं-का-वहीं दबा दिया गया।
दूसरी कोशिशः1944
आगाखान महल की लंबी कैद में अपने पुत्रवत महादेव देसाई व अपनी बा को खो कर गांधीजी जब रिहा किए गए तो वे बीमार भी थे और बेहद कमजोर भी। इसलिए तय हुआ कि बापू को अभी तुरन्त राजनीतिक गहमागहमी में न डालकर, कहीं शांत-एकांत में आराम के लिए ले जाया जाए। इसलिए उन्हें पुणे के निकट पंचगनी ले जाया गया। पुणे के नजदीक बीमार गांधीजी का ठहरना हिंदुत्ववादियों को अपने शौर्य प्रदर्शन का अवसर लगा और वहां पहुंचकर वे लगातार नारेबाजी, प्रदर्शन करने लगे। फिर 22 जुलाई को ऐसा भी हुआ कि एक युवक मौका देखकर गांधीजी की तरफ छुरा लेकर झपटा। लेकिन भिसारे गुरुजी ने बीच में ही उस युवक को दबोच लिया और उसके हाथ से छुरा छीन लिया। गांधी ने उस युवा को छोड़ देने का निर्देश देते हुए कहा कि उससे कहो कि वह मेरे पास आकर कुछ दिन रहे ताकि मैं जान सकूं कि उसे मुझसे शिकायत क्या है। वह युवक इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उस युवक का नाम था नाथूराम गोडसे।
तीसरी कोशिशः1944
1944 में ही तीसरी कोशिश की गई ताकि पंचगनी की विफलता को सफलता में बदला जा सके। इस बार स्थान था वर्धा स्थित गांधीजी का सेवाग्राम आश्रम। पंचगनी से निकलकर गांधीजी फिर से अपने काम में डूबे थे। विभाजन की बातें हवा में थीं और मुहम्मद अलि जिन्ना उसे सांप्रदायिक रंग देने में जुटे थे। सांप्रदायिक हिंदू भी मामले को और बिगाड़ने में लगे थे। गांधीजी इस पूरे सवाल पर मुहम्मद अली जिन्ना से सीधी बातचीत की योजना बना रहे थे और यह तय हुआ कि गांधीजी मुम्बई जाकर जिन्ना से मिलेंगे।
गांधीजी के मुम्बई जाने की तैयारियां चल रही थीं कि तभी सावरकर-टोली ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी सूरत में गांधीजी को जिन्ना से बात करने मुम्बई नहीं जाने देंगे। पुणे से उनकी एक टोली वर्धा आ पहुंची और उसने सेवाग्राम आश्रम घेर लिया। वे वहाँ से नारेबाजी करते, आने-जाने वालों को परेशान करते और गांधीजी पर हमला करने का मौका खोजते रहते। पुलिस का पहरा था। गांधीजी ने बता दिया कि वे नियत समय पर मुम्बई जाने के लिए आश्रम से निकलेंगे और विरोध करने वाली टोली के साथ तब तक पैदल चलते रहेंगे तक वे उन्हें मोटर में बैठने की इजाजत नहीं देते। गांधीजी की योजना जान कर पुलिस सावधान हो गईः ये उपद्रवी तो चाहते ही हैं कि गांधीजी कभी उनकी भीड़ में घिर जाएं। पुलिस के पास खुफिया जानकारी थी कि ये लोग कुछ अप्रिय करने की तैयारी में हैं। इसलिए उसने ही कदम बढ़ाया और उपद्रवी टोली को गिरफ्तार कर लिया। सबकी तलाशी ली गई तो इस टोली के सदस्य ग.ल. थत्ते के पास से एक बड़ा छुरा बरामद हुआ। युवाओं का वर्धा पहुंचना, उनके साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माताओं में से एक माधवराव सदाशिव गोलवलकर का अचानक वर्धा आगमन और यह छुरा- सब मिलकर एक ही कहानी कहते हैं- जिस तरह भी हो, गांधी का खात्मा करो!
चौथी कोशिशः1946
पंचगनी और वर्धा की विफलता से परेशान होकर इन लोगों ने तय किया कि गांधीजी को मारने के क्रम में कुछ दूसरे भीमरते हों तो मरें। इसलिए 30 जून को उस रेलगाड़ी को पलटने की कोशिश हुई जिससे गांधीजी मुम्बई से निकलकर पुणे जा रहे थे। करजत स्टेशन के पास पहुंचते-पहुंचते रातगहरी हो चली थी लेकिन सावधान ड्राइवर ने देख लिया कि ट्रेन की पटरियों पर बड़े-बड़े पत्थर डाले गए हैं ताकि गाड़ी पलट जाए। इनर्जेसी ब्रेक लगाकर ड्राइवर ने गाड़ी रोकी। जो नुकसान होना था वह इंजन को हुआ, गांधीजी बच गए। अपनी प्रार्थना सभा में गांधीजी ने इसका जिक्र करते हुए कहा, ‘मैं सात बार मारने के ऐसे प्रयासों से बच गया हूँ।’ पुणे से निकलने वाले अखबार ‘हिन्दू राष्ट्र’ के सम्पादक ने जबाव दिया, ‘लेकिन आपको इतने साल जाने कौन देगा।’ अखबार के सम्पादक का नाम था- नाथूराम गोडसे!
पांचवी कोशिशः 1948
पर्दे के पीछे लगातार षडयंत्रों और योजनाओं का दौर चलता रहा। सावरकर अब तक की अपनी हर कोशिश की विफलता खिन्न भी थे और अधीर भी! लंदन में धींगरा जब हत्या की ऐसी ही एक कोशिश में विफल हुए थे, तब भी सावरकर ने उन्हें आखिरी चेतावनी दी थी, ‘अगर इस बार भी विफल रहे तो फिर मुझे मुंह न दिखाना!’ हत्या सावरकर के तरकश का आखिरी नहीं, जरूरी हथियार था। इसका कब और किसेक लिए इस्तेमाल करना है यह फैसला हमेशा उनका ही होता था।
गांधीजी अपनी हत्या की इन कोशिशों का मतलब समझ रहे थे लेकिन वे लगातार एक-से-बड़े-दूसरे खतरे में उतरते भी जा रहे थे। उनके पास निजी खतरों का हिसाब लगाने का वक्त नहीं था; और खतरों में उतरने के सिवा उनके पास विकल्प भी नहीं था। खतरों में वह सत्य छिपा था जिसकी उन्हें तलाश भर नहीं थी बल्कि जिसे उन्हें देश व दुनिया को दिखाना भी था कि जान देने के साहस में से अहिंसा शक्ति भी पाती है और स्वीकृति भी। हत्यारों में इतनी हिम्मत थी ही नहीं कि वे भी उन खतरों में उतरकर गांधीजी का मुकाबला करते। इस लुका-छिपी में ही कुछ वक्त निकल गया।
इस दौर में सांप्रदायिकता के दावानल में में धधकते देश की रंगों में क्षमा, शांति और विवेक का भाव भरते एकाकी गांधी कभी यहां, तो कभी वहां भांगते मिलते हैं। पंजाब जाने के रास्ते में वे दिल्ली पहुंचे हैं और पाते हैं कि दिल्ली की हालत बेहद खराब है। अगर दिल्ली हाथ से गई तो आजाद देश की आजादी भी दांव पर लग सकती है! गांधीजी दिल्ली में ही रुकने का फैसला करते हैं- तब जब तक हालात काबू में नहींआ जाते। इधर गांधीजी का फैसला हुआ, उधर सवारकर-टोली का फैसलाभी हुआ! गांधीजी ने कहाः मैं दिल्ली छोड़कर नहीं जाऊंगी; सावरकर-टोली ने कहाः हम आपको दिल्ली से जिंदा वापस निकलने नहीं देंगे! स्थान गांधीजी का था- बिरला भवन- और बम सावरकर-टोली का।
बिरला भवन में, रोज की तरह उस रोज भी, 20 जनवरी की शाम को भी प्रार्थना थी। 13 से 19 जनवरी तक गांधीजी का आमरण उपवास चला था। उसकी पीड़ा ने प्रायश्चित जगाया और दिल्ली में चल रही अंधाधुंध हत्याओं व लूट-पाट पर कुछ रोक लगी। सभी समाजों, धर्मों, संगठनों ने गांधीजी को वचन दिया कि वे दिल्ली का मन फिर बगड़ने नहीं देंगे। ऐसा कहने वालों में सावरकर-टोली भी शामिल थी, जो उसी वक्त हत्या की अपनी योजना पर भी काम कर रही थी। गांधीजी अपनी क्षीण आवाज में इन सारी बातों का ही जिक्र कर रहे थे कि मदनलाल पाहवा ने पर बम फेंका था उससे, गांधीजी जहाँ बैठे थे, उसकी दूरी का उसका अंदाजा गलत निकला। गांधीजी फिर बच गए। बमबाज मदनलाल पाहवा विभाजन का शरणार्थी था। वह पकड़ा भी गया। लेकिन जिन्हें पकड़ना था, उन्हें तो किसी ने पकड़ा ही नहीं।
छठी सफल कोशिश
30 जनवरी 1948 दस दिन पहले जहां मदनलाल पाहवा विफल हुआ था, दस दिन वहीं नाथूराम गोडसे सफल हुआ। प्रार्था-भाव में मग्न अपने राम की तरफ जाते गांधीजी के सीने में उसने तीन गोलियां उतार दी और ‘हे राम!’ कह गांधीजी वहां चले गए जहां से कोई वापस नहीं आता है।
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