खाद्य संकट से निपटने की सर्वाधिक प्रभावशाली रणनीतियों में शामिल हैं, सार्वजनिक भंडारण का इस्तेमाल एवं मुख्य खाद्य उत्पादों हेतु उत्पादकों के लिए न्यूनतम एवं उपभोक्ताओं के लिए अधिकतम मूल्य निर्धारित करना। इन तरीकों का इस्तेमाल करने से वर्ष 2008 में जब पड़ोसी देशों में अन्न के दाम बढ़ रहे थे तब इंडोनेशिया में इनके दामों में कमी आ रही थी। दक्षिण अफ्रीका के सर्वाधिक प्रसिद्ध धर्मगुरु डेसमंड टूटू ने एक बार अपनी विशिष्ट शैली में कहा था, “यदि किसी हाथी का पैर चूहे की पूंछ पर पड़ जाए और आप यह कहें कि आप तटस्थ हैं, तो चूहा ऐसी तटस्थता को पसंद नहीं करेगा।” उनकी यह सपाटबयानी अब खासतौर पर प्रासंगिक हो गई है, क्योंकि रोम में होने वाली संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य सुरक्षा समिति की बैठक वर्तमान खाद्य संकट और भूमि हथियाने की अभूतपूर्व लहर के मध्य “जवाबदेह कृषि निवेश” (आईएआई) को भी परिभाषित करेगी।
जब बात कृषि और भोजन की हो तो यहां कृषि व्यापार ही हाथी है। केवल तीन कंपनियों के पास व्यावसायिक बीज बाजार का 50 प्रतिशत हिस्सा है और मात्र चार कंपनियों के नियंत्रण में वैश्विक खाद्यान्न और सोया व्यापार की 75 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क यह है कि राज्य की भूमिका एक तटस्थ बिचौलिए की होना चाहिए और वह कृषि में प्राथमिक निजी निवेश को प्रोत्साहित करें।
वे “जिम्मेदार निवेश” हेतु मार्गदर्शिका स्वीकार करने को तैयार तो हैं, लेकिन चाहते हैं कि यह सब कुछ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बढ़ते स्तर और राष्ट्रीय कृषि क्षेत्रों के वैश्विक उत्पाद श्रृंखलाओं एवं बाजारों के और अधिक समावेश के साथ हो। यह तो सामान्य व्यापारिक पहल है जो कि जवाबदेह कृषि निवेश सिद्धांतों को वर्तमान में विद्यमान कृषि व्यापार गतिविधियों के सांचे में ढालना चाहती है।
हालांकि ये सिद्धांत कुछ निगमों के लाभ में वृद्धि करेंगे, लेकिन प्रमाण बताते हैं कि ये सभी को पर्याप्त भोजन के अधिकार को प्राप्त करने हेतु खाद्य सुरक्षा पर गठित समिति के मन्तव्य की पूर्ति नहीं कर पाएंगे। वर्तमान में विश्व में प्रत्येक आठ में से एक व्यक्ति अल्पपोषित है और हाल के वर्षों में स्थितियां बदतर ही हुई हैं।
वास्तविकता यह है कि वैश्विक बाजारों पर निर्भरता ने ही भावों को सन् 2007 में उस स्तर पर पहुंचा दिया था जिसका अनुभव हमने वास्तविक अर्थों में सन् 1846 के बाद से अब तक कभी नहीं किया था। इससे न केवल अतिनिर्धनता में रहने वालों की संख्या में 13 से 15 करोड़ की वृद्धि हुई, बल्कि इससे वैश्विक दक्षिण (विकसित राष्ट्रों) की सरकारों द्वारा खाद्य दंगों से सुरक्षा हेतु भूमि हथियाने की लहर में अभूतपूर्व तेजी आई और दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय निगम आने वाली कमी से लाभ कमाने पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं।
याद रखिए, छोटी जोत वाला किसान इस मामले में “चूहा” है। लेकिन वे केवल पीड़ित नहीं हैं, बल्कि वे खाद्य सुरक्षा हेतु सर्वाधिक प्रगतिशील समाधान भी उपलब्ध कराते हैं।
अनुमान है कि विकासशील विश्व में तकरीबन 50 करोड़ सीमांत किसान हैं जो कि दो अरब लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं एवं एशिया एवं उप सहारा अफ्रीका में उपयोग होने वाले भोजन का करीब 80 प्रतिशत तक उत्पादित भी करते हैं। ये छोटे किसान ही हैं जो कि वास्तव में वैश्विक खाद्य सुरक्षा में योगदान करते हैं।
“जिम्मेदार कृषि निवेश“ को लेकर होने वाले किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते को इस बात से प्रारंभ किया जाना चाहिए कि किस तरह इन छोटे स्तर पर खाद्य उत्पादन करने वालों को सशक्त किया जाए, न कि बेदखल। ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूूट की हालिया रिपोर्ट “कृषि निवेश का पुनर्दावा“ के अंतर्गत ब्राजील से घाना और अमेरिका से थाइलैंड तक राज्य-किसान सहयोग के विकल्पों का अध्ययन किया गया।
अध्ययन में बताया गया है कि जब राज्य सही नीतियां बनाता है और छोटे स्तर पर कार्यरत खाद्य उत्पादकों को निवेश में सहायता करता है, तो इसके जबर्दस्त सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं।
ब्राजील का जीरो हंगर (भूख रहित) कार्यक्रम, जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा एवं आजीविका प्रोत्साहन को एक साथ जोड़ा गया है, पिछले एक दशक में इस देश के लोगों के जीवनस्तर में प्रभावशाली सुधार का एक बड़ा कारण है। इस जीरो हंगर कार्यक्रम ने छोटे किसानों के लिए सफलतापूर्वक नए बाजार खोल दिए एवं उन्होंने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
विद्यालयीन भोजन कार्यक्रम के अंतर्गत ब्राजील की प्रत्येक नगरपालिका को प्रत्येक विद्यार्थी के हिसाब से सब्सिडी मिलती है और इसमें से 70 प्रतिशत नगरपालिकाएं, असंवर्धित खाद्य यानि खाद्यान्न के रूप में खरीदती हैं और इसका 30 प्रतिशत स्थानीय खेतों से आता है।
छोटे किसानों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली टिकाऊ कृषि पारिस्थितिकी पर आधारित कृषि तकनीकों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किए जाने से कृषि से पर्यावरण और जलवायु पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में भी कमी आती है।
भारत सरकार भी टिकाऊ धान सघनीकरण (एसआरआई) प्रणाली को प्रोत्साहित कर रही है, जिसमें जैविक खादों एवं विभिन्न प्रकार की कृषि पारिस्थितिकी तकनीकों का प्रयोग होता है एवं इससे रिकार्ड उपज प्राप्त हो रही है।
इसके बावजूद पारंपरिक चावल शोध संस्थानों एवं निजी शोध एवं विकास उद्योग द्वारा एसआरआई की अनदेखी की जा रही है, क्योंकि इससे कृषि व्यापार आपूर्तिकर्ताओं के हितों को खतरा पैदा होता है।
अक्सर यह मान लिया जाता है कि राज्य द्वारा छोटे कृषि उत्पादकों की सहायता करने से लागत अधिक होगी एवं उपभोक्ताओं को अधिक मूल्य देना पड़ेगा। परंतु सार्वजनिक नीति को लचीले रूप में प्रयोग में लाया जाए तो दोनों ही समूह लाभान्वित हो सकते हैं।
खाद्य संकट से निपटने की सर्वाधिक प्रभावशाली रणनीतियों में शामिल हैं, सार्वजनिक भंडारण का इस्तेमाल एवं मुख्य खाद्य उत्पादों हेतु उत्पादकों के लिए न्यूनतम एवं उपभोक्ताओं के लिए अधिकतम मूल्य निर्धारित करना। इन तरीकों का इस्तेमाल करने से वर्ष 2008 में जब पड़ोसी देशों में अन्न के दाम बढ़ रहे थे तब इंडोनेशिया में इनके दामों में कमी आ रही थी।
हमेशा होने वाला सामान्य व्यापार कोई विकल्प नहीं है। अब समय आ गया है जबकि राष्ट्रों को अपनी झूठी तटस्थता को समाप्त करना होगा और पक्ष लेना होगा।
वे किसी ऐसे मॉडल को प्रोत्साहित न करें जो कि मूलतः लोकतंत्र विरोधी है और जिसमें इस बात की पूरी संभावना है कि वह चुनिंदा विशालतम संवर्धकों, व्यापारियों एवं खुदरा व्यापारियों के माध्यम से “कृषि एकाधिकार” को और विस्तारित करने विश्व खाद्य प्रणाली को हथियाना चाहता है। सरकारों को ऐसे जवाबदेह कृषि निवेश के सिद्धांतों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जो कि विश्व किसान परिवार की स्थिति को मजबूत करते हों और खाद्य सार्वभौमिकता के विचार को आगे बढ़ाते हों।
जब बात कृषि और भोजन की हो तो यहां कृषि व्यापार ही हाथी है। केवल तीन कंपनियों के पास व्यावसायिक बीज बाजार का 50 प्रतिशत हिस्सा है और मात्र चार कंपनियों के नियंत्रण में वैश्विक खाद्यान्न और सोया व्यापार की 75 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क यह है कि राज्य की भूमिका एक तटस्थ बिचौलिए की होना चाहिए और वह कृषि में प्राथमिक निजी निवेश को प्रोत्साहित करें।
वे “जिम्मेदार निवेश” हेतु मार्गदर्शिका स्वीकार करने को तैयार तो हैं, लेकिन चाहते हैं कि यह सब कुछ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बढ़ते स्तर और राष्ट्रीय कृषि क्षेत्रों के वैश्विक उत्पाद श्रृंखलाओं एवं बाजारों के और अधिक समावेश के साथ हो। यह तो सामान्य व्यापारिक पहल है जो कि जवाबदेह कृषि निवेश सिद्धांतों को वर्तमान में विद्यमान कृषि व्यापार गतिविधियों के सांचे में ढालना चाहती है।
हालांकि ये सिद्धांत कुछ निगमों के लाभ में वृद्धि करेंगे, लेकिन प्रमाण बताते हैं कि ये सभी को पर्याप्त भोजन के अधिकार को प्राप्त करने हेतु खाद्य सुरक्षा पर गठित समिति के मन्तव्य की पूर्ति नहीं कर पाएंगे। वर्तमान में विश्व में प्रत्येक आठ में से एक व्यक्ति अल्पपोषित है और हाल के वर्षों में स्थितियां बदतर ही हुई हैं।
वास्तविकता यह है कि वैश्विक बाजारों पर निर्भरता ने ही भावों को सन् 2007 में उस स्तर पर पहुंचा दिया था जिसका अनुभव हमने वास्तविक अर्थों में सन् 1846 के बाद से अब तक कभी नहीं किया था। इससे न केवल अतिनिर्धनता में रहने वालों की संख्या में 13 से 15 करोड़ की वृद्धि हुई, बल्कि इससे वैश्विक दक्षिण (विकसित राष्ट्रों) की सरकारों द्वारा खाद्य दंगों से सुरक्षा हेतु भूमि हथियाने की लहर में अभूतपूर्व तेजी आई और दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय निगम आने वाली कमी से लाभ कमाने पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं।
याद रखिए, छोटी जोत वाला किसान इस मामले में “चूहा” है। लेकिन वे केवल पीड़ित नहीं हैं, बल्कि वे खाद्य सुरक्षा हेतु सर्वाधिक प्रगतिशील समाधान भी उपलब्ध कराते हैं।
अनुमान है कि विकासशील विश्व में तकरीबन 50 करोड़ सीमांत किसान हैं जो कि दो अरब लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं एवं एशिया एवं उप सहारा अफ्रीका में उपयोग होने वाले भोजन का करीब 80 प्रतिशत तक उत्पादित भी करते हैं। ये छोटे किसान ही हैं जो कि वास्तव में वैश्विक खाद्य सुरक्षा में योगदान करते हैं।
“जिम्मेदार कृषि निवेश“ को लेकर होने वाले किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते को इस बात से प्रारंभ किया जाना चाहिए कि किस तरह इन छोटे स्तर पर खाद्य उत्पादन करने वालों को सशक्त किया जाए, न कि बेदखल। ट्रांसनेशनल इंस्टीट्यूूट की हालिया रिपोर्ट “कृषि निवेश का पुनर्दावा“ के अंतर्गत ब्राजील से घाना और अमेरिका से थाइलैंड तक राज्य-किसान सहयोग के विकल्पों का अध्ययन किया गया।
अध्ययन में बताया गया है कि जब राज्य सही नीतियां बनाता है और छोटे स्तर पर कार्यरत खाद्य उत्पादकों को निवेश में सहायता करता है, तो इसके जबर्दस्त सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं।
ब्राजील का जीरो हंगर (भूख रहित) कार्यक्रम, जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा एवं आजीविका प्रोत्साहन को एक साथ जोड़ा गया है, पिछले एक दशक में इस देश के लोगों के जीवनस्तर में प्रभावशाली सुधार का एक बड़ा कारण है। इस जीरो हंगर कार्यक्रम ने छोटे किसानों के लिए सफलतापूर्वक नए बाजार खोल दिए एवं उन्होंने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
विद्यालयीन भोजन कार्यक्रम के अंतर्गत ब्राजील की प्रत्येक नगरपालिका को प्रत्येक विद्यार्थी के हिसाब से सब्सिडी मिलती है और इसमें से 70 प्रतिशत नगरपालिकाएं, असंवर्धित खाद्य यानि खाद्यान्न के रूप में खरीदती हैं और इसका 30 प्रतिशत स्थानीय खेतों से आता है।
छोटे किसानों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली टिकाऊ कृषि पारिस्थितिकी पर आधारित कृषि तकनीकों को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किए जाने से कृषि से पर्यावरण और जलवायु पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में भी कमी आती है।
भारत सरकार भी टिकाऊ धान सघनीकरण (एसआरआई) प्रणाली को प्रोत्साहित कर रही है, जिसमें जैविक खादों एवं विभिन्न प्रकार की कृषि पारिस्थितिकी तकनीकों का प्रयोग होता है एवं इससे रिकार्ड उपज प्राप्त हो रही है।
इसके बावजूद पारंपरिक चावल शोध संस्थानों एवं निजी शोध एवं विकास उद्योग द्वारा एसआरआई की अनदेखी की जा रही है, क्योंकि इससे कृषि व्यापार आपूर्तिकर्ताओं के हितों को खतरा पैदा होता है।
अक्सर यह मान लिया जाता है कि राज्य द्वारा छोटे कृषि उत्पादकों की सहायता करने से लागत अधिक होगी एवं उपभोक्ताओं को अधिक मूल्य देना पड़ेगा। परंतु सार्वजनिक नीति को लचीले रूप में प्रयोग में लाया जाए तो दोनों ही समूह लाभान्वित हो सकते हैं।
खाद्य संकट से निपटने की सर्वाधिक प्रभावशाली रणनीतियों में शामिल हैं, सार्वजनिक भंडारण का इस्तेमाल एवं मुख्य खाद्य उत्पादों हेतु उत्पादकों के लिए न्यूनतम एवं उपभोक्ताओं के लिए अधिकतम मूल्य निर्धारित करना। इन तरीकों का इस्तेमाल करने से वर्ष 2008 में जब पड़ोसी देशों में अन्न के दाम बढ़ रहे थे तब इंडोनेशिया में इनके दामों में कमी आ रही थी।
हमेशा होने वाला सामान्य व्यापार कोई विकल्प नहीं है। अब समय आ गया है जबकि राष्ट्रों को अपनी झूठी तटस्थता को समाप्त करना होगा और पक्ष लेना होगा।
वे किसी ऐसे मॉडल को प्रोत्साहित न करें जो कि मूलतः लोकतंत्र विरोधी है और जिसमें इस बात की पूरी संभावना है कि वह चुनिंदा विशालतम संवर्धकों, व्यापारियों एवं खुदरा व्यापारियों के माध्यम से “कृषि एकाधिकार” को और विस्तारित करने विश्व खाद्य प्रणाली को हथियाना चाहता है। सरकारों को ऐसे जवाबदेह कृषि निवेश के सिद्धांतों के प्रति समर्पित होना चाहिए, जो कि विश्व किसान परिवार की स्थिति को मजबूत करते हों और खाद्य सार्वभौमिकता के विचार को आगे बढ़ाते हों।
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