इन फिल्टरों के लगने का सबसे अधिक फायदा महिलाओं को है। राज्य के अन्य भागों की तरह इन गांवों में महिलाओं की आबादी अधिक है, जिन्हें बरसात में पानी के लिए दूर-दूर भटकना पड़ता था लेकिन अब उन्हें साफ पानी घर के दरवाजे पर ही मिल रहा है। इससे न सिर्फ इनका स्वास्थ्य बेहतर हो रहा है बल्कि पानी को लेकर होने वाला श्रम भी घट गया है।
तीन गांवों में स्लो सैंड फिल्टर लगने से गंदे पानी की समस्या तो कम हुई ही, जलजनित बीमारियां भी कम हो गई हैं। उत्तराखंड में टिहरी गढ़वाल के चोपड़ियाली गांव की राजी देवी रावत इन दिनों बहुत खुश हैं। उनके गांव में जबसे स्लो सैंड फिल्टर लगा है, सभी परिवारों को गंदे पानी की समस्या से निजात मिल गई है। गांव में महिला मंगल दल की भी अध्यक्ष रावत का कहना है, “फिल्टर लगाए जाने के बाद गांव में पानी से फैलने वाली बीमारियां कम हो गई हैं।” ऐसी खुशी टिहरी के इंडवाल और साबली गांवों में भी दिखती है। तीनों गांवों में लगाए गए फिल्टरों से 188 परिवारों को फायदा मिल रहा है। मंद बालू छन्ना या स्लो सेंड फिल्टर ईंट या पत्थर का बना एक टैंक है जिसमें अलग-अलग तह बनाकर रेत, मिट्टी भर दी जाती है। टैंक के आधार में ईंटों की नालियां बनी रहती हैं, जिसके माध्यम से पानी रिसकर निकलता रहता है।टैंक में पानी की सतह पर शैवाल की एक झिल्ली विकसित की जाती है जो पानी में बहकर आते रोगाणुओं को नष्ट करती है। पानी की बाकी गंदगी रेत और मिट्टी की सतह से साफ होती रहती है। स्लो सैंड फिल्टर पैरासाइट निमोटस एवं अन्य जलीय जंतुओं के सिस्ट लार्वा और जलजनित बीमारियों के मुख्य कारक इकोलाई बैक्टीरिया को पूरी तरह से अलग कर देता है। बंगलुरु की संस्था अर्घ्यम और दिल्ली की हिमालय सेवा संघ के तकनीकी और आर्थिक सहयोग से इन फिल्टरों का निर्माण हिमकान संस्था ने ग्रामीणों के साथ मिलकर किया है। अब तक इंडवाल में 4, चोपड़ियाली में 2 और साबली में 2 फिल्टर बनाए गए हैं। बेहद साधारण तकनीक और कम लागत वाले इन फिल्टरों को जलश्रोत के पास ही बनाकर गांव के लोगों को साफ पानी की आपूर्ति की जाती है। हिमालय सेवा संघ के सचिव मनोज पांडे कहते हैं, “पहले पहाड़ों में ऊपर से बहकर आ रहे पानी को साफ समझा जाता था और वह साफ होता भी था। पर अब मानव गतिविधियों के कारण पहाड़ों से निकलने वाली नदियां अपने श्रोतों से ही गंदी हो रही हैं।”
नागपुर के राष्ट्रीय पर्यावरण एवं अभियांत्रिकी शोध संस्थान (नीरी) की रिपोर्ट के मुताबिक, पहाड़ों में 80 प्रतिशत बीमारियां जलजनित हैं, नीरी और हिमकान से जुड़े रहे उत्तराखंड तकनीकी विवि के प्रो. डॉ. रामभूषण प्रसाद कहते हैं, “स्लो सैंड फिल्टर आधुनिक तकनीक नहीं है। परंपरागत तकनीक को नए तरीके से लोगों के बीच लाया गया है। जलश्रोत के पास एक स्लो सैंड फिल्टर की लागत 20-25,000 रु. तक होती है।” तीनों गांवो में स्लो सैंड फिल्टर लगाए जाने के बाद पानी का गंदलापन समाप्त होने के साथ ही उसका स्वाद भी बदल गया है। पांडे के मुताबिक, “अगर सरकार इस तकनीक को प्रोत्साहित करे तो बहुत कम लागत में पहाड़ के गांवों को साफ पानी उपलब्ध कराया जा सकता है” हिमकान संस्था के समन्वयक राकेश बहुगुणा का कहना है, “सस्ती और आसान तकनीक होने के कारण इसके रखरखाव के लिए अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं है। जबसे तीन गांवों में फिल्टर लगाए गए हैं, वहां के लोगों की साफ पानी की समस्या दूर हो गई है। अब दूसरे क्षेत्रों के लोग भी संस्था से ये फिल्टर लगाने का आग्रह कर रहे हैं।”
यही नहीं, इन गांवों में जलजनित रोगों में कमी आने के साथ ही साफ पानी के प्रति जागरुकता बढ़ी है। इन फिल्टरों की देखरेख करना और नियमित जांच करना भी अब लोगों की दिनचर्या में शामिल है। तीनों गांवों में गठित महिला मंगल दलों ने इन फिल्टरों को बनाने में खास भूमिका अदा की थी और अब वे इनकी देखरेख भी करते हैं। गांव चोपड़ियाली की भुवनेश्वरी देवी का कहना है, “ अब इस प्रकार के फिल्टर पूरे प्रदेश में लगने चाहिए।” इन फिल्टरों के लगने का सबसे अधिक फायदा महिलाओं को है। राज्य के अन्य भागों की तरह इन गांवों में महिलाओं की आबादी अधिक है, जिन्हें बरसात में पानी के लिए दूर-दूर भटकना पड़ता था लेकिन अब उन्हें साफ पानी घर के दरवाजे पर ही मिल रहा है। इससे न सिर्फ इनका स्वास्थ्य बेहतर हो रहा है बल्कि पानी को लेकर होने वाला श्रम भी घट गया है।
“सस्ती और आसान तकनीक होने के कारण स्लो सैंड फिल्टर के रखरखाव के लिए अलग से कुछ करने की जरुरत नहीं है।”
राकेश बहुगुणा, समन्वयक, हिमकान संस्था
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