विश्वकर्मा ने ही बनाया था इसे अपने हाथों से अकेले एक रात में ही पूरा कर दिया था रात को यह नहीं साधारण सी बह रही थी और सबेरे यह बड़ा सा घूमर (झरना) तैयार हो गया था' मगरू कुछ अटक-अटक कर कुछ हल्बी में टूटी-फूटी हिन्दी में अपना इतिहास, उस जल प्रपात के निर्माण की कहानी बताने का प्रयास कर रहा था। उसकी दृष्टि उस प्रपात के उफनते प्रवाह में खो गई थी। असीम विश्वास और अडिग आस्था थी उसकी आंखों में कितनी गहरी, कितनी निश्चिल।
मंगरू कहता जा रहा था 'हां, और यही शिवलिंग। तब टूटा नहीं था। यह तो अभी कुछ दिन की ही बात है। हम लोगों का मंदिर क्या, झोंपड़ी ही थी, बहुत बड़ी.. यहीं पर.. न जाने कैसे आग लग गई रात को। भस्म हो गया था वह सारा घास फूस का मंदिर। शिवलिंग भी दरक गया। इतना बड़ा शिवलिंग यहां कहीं नहीं है और यहीं इसी शिवलिंग की विश्वकर्मा ने विधिवत पूजा की थी। बड़ादेव स्वयं प्रकट हुए थे और विश्वकर्मा को आशिर्वाद दिया था, यह विशाल जल प्रपात बनाने का।''
यह बताते हुए मंगरू धीरे-धीरे मुझे एक छोटे मुहाने की ओर ले जा रहा था। दूर से कुछ विशेष नहीं लगता था वहां और पास जाकर भी कुछ खास नहीं था। पेड़ के नीचे एक छोटा सा पत्थर और उस पर एक साधारण सा हथौड़ा। पर बस्तर में रहते रहते अभ्यस्त हो चुका हूं अविशेष में ही विशेषता के दर्शन करने का। मगरू कह रहा था, 'और यही है वह हथौड़ा जिससे विश्वकर्मा ने यह घूमर बनाया था।' काम खत्म करने के बाद उन्होंने इसे इसी पेड़ के नीचे रख दिया था और आज तक वह इसी तरह रखा हुआ है।
बस्तर की प्रसिद्ध नदी इंद्रावती पर बने जल प्रपात चित्रकूट के बनने की यही छोटी सी कहानी है। विशाल, अर्ध गोलाकार, सैकड़ों फुट की गहराई, मध्य देश का सबसे ऊंचा और सबसे बड़ा जल प्रपात। अब यह एक पर्यटन स्थल भी बन गया है। यहीं से आगे चलकर इंद्रावती छिछला जाती है। एक स्थान पर घने वनों में सात धाराओं में विभाजित हो जाती है और सात धार कहलाती है। वहीं पर उसकी सहायक शंकिनी मिलती है। शंकिनी ऊपर किरंदूल गांव से निकलती है जहां अब एशिया की सबसे बड़ी स्वचालित लोहे की खान बैलाडील के नाम से मशहूर है। एक और बड़ी योजना बारसूर के बोधघाट में बनाने की योजना है। इंद्रावती पर बांध बनेगा और उससे शक्ति पैदा की जाएगी। यह शक्ति यहां से सूदूर प्रगत क्षेत्रों में पहुंचेगी और इन वन विथिकाओं को आधुनिक संसार से जोड़ेगी। भीमकाय मशानों के चक्के घूमेंगे इसी शक्ति के सहारे और मानवीय सभ्यता प्रगति के मार्ग पर और आगे बढ़ती चली जाएगी। जैसे जैसे प्रगति की यह धार तीव्रतर होती जाएगी इंद्रावती की धार उस निर्मित होनेवाले विशाल जलाशय में थहराती जाएगी।
पर कौन विश्वास करेगा मंगरू की कथा पर कि उनकी पूरी उपलब्धि का उत्सव है यह नन्हा सा हथौड़ा जिससे स्वयं विश्वकर्मा ने इस विशाल जल प्रपात का निर्माण किया था। उन सूदूर प्रदेशों की बात तो दूर रही, यह हथौड़ा तो वे सैलानी भी नहीं देख पाते जो उस जल प्रपात को मंत्रमुग्ध होकर देखते हैं जिसे इसी हथौड़े की कारीगरी से बनाया गया है। हां, दूर से ही आदिदेव महादेव जरूर निर्निमेष इस हथौड़े को निरखते रहते हैं और निरखते रहते हैं उस इंसानी व्यापार को जो यहां नित्य प्रति चलता रहता है।
आप मानें या न मानें। मंगरू के लिए यह गाथा नहीं है। यह एक शास्वत सत्य है। उसका अपना जीवन जिस प्रकार अविरल, अविकल प्रवाहमान है इन वन प्रदेशों में उसी प्रकार ये सत्य गाथाएं भी इस चित्रकूट जल प्रपात के गर्जन तर्जन के बीच मन्द बयार के झोंको के साथ थिरकती रहती हैं। उसकी आस्था ने कभी लघु हथौड़ा और विशाल प्रपात के विरोधाभास का अहसास ही नहीं किया। सच तो यह है कि यहां अभी तर्क का अनुभव ही नहीं हुआ है। अजस्र जल प्रवाह है। जैसे इंद्रावती की धारा बिना तर्क के बह रही है, वैसे ही मंगरू का जीवन भी सहज भाव से तर्क के थपेड़ों से कोसों दूर है।
बोधघाट पर बांध बनाने की योजना के पीछे हमारा मजबूत तर्क है। बड़ी-बड़ी योजनाएं बड़ी तर्कपूर्ण होती हैं। उनके अतार्किकता के लिए कोई जगह नहीं होती है। सबकुछ सुनिश्चित होता है। तर्क की कसौटी पर खरा। खतरा यह होता है कि अगर छोटी सी दरार रह गई तो समूचे मायाजाल टूट सकता है। बिखर सकता है। एक पतली सी दरार छूट गई तो बांध के टूटने में कितना वक्त लगेगा? फिर बिजली कहां से पैदा होगी? भीमकाय मशीनें कैसे चलेंगी? औद्योगिक सभ्यता का विजय अभियान आगे कैसे जारी रहेगा? बालू की यही दुनिया बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों से बनाई जा रही है।
लेकिन मंगरू की जीवन दृष्टि अभी भी जीवन के रस से ओत-प्रोत है। तर्क वितर्क से जीवन रस का छीजना अभी यहां प्रारंभ नहीं हुआ है। इसलिए अगर यहां कहीं दरारें भी हैं तो रसाशक्ति हैं, फिलहाल उससे जिंदगी के दरक जाने की कोई संभावना नहीं है। हां, आज वह दोराहे पर जरूर खड़ा नजर आता है। एक ओर उसका अतीत है जिससे उसने जीवन रस पाया है तो दूसरी ओर भविष्य का वह सपाट मैदान जिसमें तर्कयुक्त गति की आपाधापी उसका इंतजार कर रही है।
इंद्रावती की यह धारा भी अन्य नदियों की तरह मनुष्य जीवन के लंबे इतिहास की साक्षी रही है। इन गहन वनों में सभ्यताओ के उदय और अस्त होने का क्रम चलता रहता है। कहते हैं श्रीराम भी दण्डकारण्य निवास के समय चित्रकूट आये थे और यहीं से उन्होंने पुण्यसलिला गोदावरी के किनारे अगस्त्य आश्रम की ओर प्रस्थान किया था। बारसूर में दसवीं सदी के भग्नावशेष वाकाटकों की श्री के साक्षी हैं। पर इतिहास की दिशा बदली तो गहन वनों का साम्राज्य फिर से छा गया। आदिवासी फिर से अपने अपरिवर्तनशील जीवन के प्रवाह में प्रवाहमान हो गया। पर आज इंद्रावती में फिर से अकुलाहट दिखाई दे रही है। इस प्रशांत क्षेत्र में अजीव सी सिहरन दिखाई पड़ती है। अनजाने में ही कुछ विचित्र सा लग रहा है। इंद्रावती को बांधकर बिजली बनाने की योजनाएं आकार ले रही हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों की तार्किक योजनाएं लागू करने की तैयारी है। तब कितना हास्यास्पद है यह कहना कि चित्रकूट का यह प्रपात एक रात में बन गया था, एक छोटे से हथौड़े से।
(डॉ ब्रह्मदेव शर्मा ने यह लेख कब लिखा इसका जिक्र इस लेख के साथ नहीं मिलता है। मंगरू है या नहीं पता नहीं, लेकिन उन्होंने जिस बैलाडीला प्लांट का जिक्र किया है वह लौह अयस्क उत्पादन की सबसे बड़ी कंपनी एनएमडीसी संचालित करती है। जिस बोधघाट पर बिजलीघर का जिक्र शर्मा जी ने किया है वह आज तक नहीं बन पाया है। 1979 में प्रस्ताव आने के बाद उसका विरोध हुआ। फारेस्ट डिपार्टमेन्ट ने जमीन नहीं दी। बिजलीघर नहीं बना। छत्तीसगढ़ बन गया। नये राज्य ने एक बार फिर यहां बिजलीघर बनाने का प्रस्ताव किया और विशेष प्रावधान करके फारेस्ट लैण्ड यूज करने की परमीशन भी दे दी लेकिन विरोध जारी रहा। आखिरी बार इस बोधघाट हाइडल प्रोजेक्ट के विरोध की खबर इस साल जून में आई थी।)
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