जिनके पानी का स्नान-पान मैंने किया है, उन्हीं नदियों का यहां उपस्थान करने का मेरा संकल्प है। फिर भी इसमें एक अपवाद किए बिना रहा नहीं जाता। मध्य देश की चंबल नदी के दर्शन करने का मुझे स्मरण नहीं है। किन्तु पौराणिक काल के चर्मण्वती नाम के साथ यह नदी स्मरण में हमेशा के लिए अंकित हो चुकी है। नदियों के नाम उनके किनारे के पशु, पक्षी या वनस्पति पर से रखे गए हैं, इसकी मिसालें बहुत हैं। दृषद्वती, सारस्वती, गोमती, वेत्रवती, कुशावती, शरावती, बाघमती, हाथमती, साबरमती, इरावती आदि नाम उन-उन प्रजाओं की सूचित करते हैं। नदी के नाम से ही उनकी संस्कृति प्रकट होती है। तब चर्मण्वती नाम क्या सूचित करता है? यह नाम सुनते ही हरेक गोसेवक के रोंगटे खड़े हुए बिना नहीं रहेंगे।
प्राचीन राजा रंतिदेव ने अमर कीर्ति प्राप्त की। महाभारत जैसा विराट ग्रंथ रंतिदेव की कीर्ति गाते थकता नहीं। राजा ने इस नदी के किनारे अनेक यज्ञ किये उनमें जो पशु मारे जाते थे, उनके खून से यह नदी हमेशा लाल रहती थी। इन पशुओं के चमड़े सुखाने के लिए इस नदी के किनारे फैलाये जाते थे; इसीलिए इस नदी का नाम चर्मण्वती पड़ा। महाभारत में इस प्रसंग का वर्णन बड़े उत्साह के साथ किया गया है। रंति देव के यज्ञ में इतने ब्राह्मण आते थे कि कभी-कभी रसोइयों को भूदेवों से विनती करनी पड़ती कि ‘भगवन्! आज मांस कम पकाया गया है; आज केवल पचीस हजार पशु ही मारे गये हैं। इसलिए सब्जी-कचूमर अधिक लीजिएगा।’
उस समय के हिन्दू धर्म में और आज के हिन्दू धर्म में कितना बड़ा अंतर हो गया है! यूनानी लोगों के ‘हैकटॉम’ को भी फीका सिद्ध करें इतने बड़े यज्ञ करके हम स्वर्ग के देवताओं को तथा भूदेवों को तृप्त करेंगे, ऐसी उम्मीद उस समय के धार्मिक लोग रखते थे। बाद के लोगों ने सवाल उठायाः
वृक्षान् छित्वा, पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिर-कर्दमम्
स्वर्गः चेत् गम्यते मर्त्यैः नरकः केन गम्यते?
‘पेड़ों को काटकर, पशुओं को मारकर और खून का कीचड़ बनाकर यदि स्वर्ग को जाया जाता हो, तो फिर नरक को जाने का साधन कौन-सा है? ’ इस चर्मण्वती नदी के किनारे कई लड़ाइयां हुई होंगी। मनुष्य ने मनुष्य का खून बहाया होगा। मगर चंबल का नाम लेते ही राजा रंतिदेव के समय का ही स्मरण होता है।
यदि आज भी हमें इतना उद्वेग मालूम होता है, तो समस्त प्राणियों की माता चर्मण्वति को उस समय कितनी वेदना हुई होगी?
1926-27
प्राचीन राजा रंतिदेव ने अमर कीर्ति प्राप्त की। महाभारत जैसा विराट ग्रंथ रंतिदेव की कीर्ति गाते थकता नहीं। राजा ने इस नदी के किनारे अनेक यज्ञ किये उनमें जो पशु मारे जाते थे, उनके खून से यह नदी हमेशा लाल रहती थी। इन पशुओं के चमड़े सुखाने के लिए इस नदी के किनारे फैलाये जाते थे; इसीलिए इस नदी का नाम चर्मण्वती पड़ा। महाभारत में इस प्रसंग का वर्णन बड़े उत्साह के साथ किया गया है। रंति देव के यज्ञ में इतने ब्राह्मण आते थे कि कभी-कभी रसोइयों को भूदेवों से विनती करनी पड़ती कि ‘भगवन्! आज मांस कम पकाया गया है; आज केवल पचीस हजार पशु ही मारे गये हैं। इसलिए सब्जी-कचूमर अधिक लीजिएगा।’
उस समय के हिन्दू धर्म में और आज के हिन्दू धर्म में कितना बड़ा अंतर हो गया है! यूनानी लोगों के ‘हैकटॉम’ को भी फीका सिद्ध करें इतने बड़े यज्ञ करके हम स्वर्ग के देवताओं को तथा भूदेवों को तृप्त करेंगे, ऐसी उम्मीद उस समय के धार्मिक लोग रखते थे। बाद के लोगों ने सवाल उठायाः
वृक्षान् छित्वा, पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिर-कर्दमम्
स्वर्गः चेत् गम्यते मर्त्यैः नरकः केन गम्यते?
‘पेड़ों को काटकर, पशुओं को मारकर और खून का कीचड़ बनाकर यदि स्वर्ग को जाया जाता हो, तो फिर नरक को जाने का साधन कौन-सा है? ’ इस चर्मण्वती नदी के किनारे कई लड़ाइयां हुई होंगी। मनुष्य ने मनुष्य का खून बहाया होगा। मगर चंबल का नाम लेते ही राजा रंतिदेव के समय का ही स्मरण होता है।
यदि आज भी हमें इतना उद्वेग मालूम होता है, तो समस्त प्राणियों की माता चर्मण्वति को उस समय कितनी वेदना हुई होगी?
1926-27
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