मानसून के रंग निराले हैं। इसकी कृपा हर कहीं एक जैसी नहीं होती। केरल से शुरू होकर जब यह सारे देश में पहुंचता है तो हर इलाके में अलग-अलग ढंग से लोकमानस इसका स्वागत करता है। मानसून के इसी बहुरंगी रूप को समझने के लिए लेखक ने सन् 2003 में पूरे देश में इसका पीछा किया और इस तरह देशभर में वे मानसून का पीछा करने वाले पहले पत्रकार बने। प्रस्तुत हैं उनके कुछ दिलचस्प अनुभव
एक बात मैं साफ कर दूं कि मानसून ने मुझे कभी रोमांचित नहीं किया है। बचपन में बारिश में भीगने पर स्कूल के चमड़े के जूते भीग जाते थे और पिताजी से डांट सहनी पड़ती थी।
देशभर में मानसून का पीछा करनेवाला पहला पत्रकार अपने बावन दिनों के भारत भर के दौरे में ऐसे ही ढेरों अहसास मानूसन ने करवाए। असम, मेघालय में बताया गया कि वहां बादल शाम को रेकी करके जाते हैं कि कहां-कहां बरसना है और फिर अगली सुबह जमकर बरसते हैं। वहां बादल इतने पास होते हैं कि ऐसा लगता है कि एक गठरी में बांधकर उन्हें ले जाया जाए।अगली सुबह जूते सूखते नहीं थे। (एक ही जोड़ी जूते हुआ करते थे) तो तब पैर की किसी उंगली या अंगूठे पर झूठ-मूठ की पट्टी बांधनी पड़ती थी। टीचर भांप जाती थी, पर बोलती कुछ नहीं थी, लेकिन मुझे यह शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी जिसे मानसून लेकर आता था।
खैर, बात सन् 2003 की है। मई का महीना था। सूरज तप रहा था। पिछले दो सालों से देश में बारिश खुलकर नहीं हुई थी। मैं जयपुर में आज तक चैनल का ब्यूरो चीफ था। पिछले दो सालों से अकाल की खबरें कवर करने भरी गर्मी में निकलता रहा था। प्यासी धरती, प्यासे लोग, सूखे तालाब, सूखी बावड़ियां, मुरझाती फसलें, मरते पशु, पानी पर ताला, पानी पर झगड़े, बारिश के लिए यज्ञ। राजस्थान में कहावत है...घी डुले तो डुले, पानी डुले तो जी भले (घी गिर जाए तो परवाह नहीं, पानी बर्बाद होने पर जी दुखे)।
मई महीने के आखिरी हफ्ते में मुझसे कहा गया कि मानसून का देशभर में पीछा करना है। केरल की राजधानी तिरुवंतपुरम से लेकर जहां दक्षिण-पश्चिम मानसून सबसे पहले आता है। वहां से पूरा देश। मैंने कुछ आनााकनी की तो बताया गया कि मैं देशभर में मानसून का पीछा करनेवाला पहला पत्रकार बनूंगा। टीवी. हो या प्रिंट, मुझे यह भी बताया गया कि इससे पहले बीबीसी के एक पत्रकार ने मानसून का पीछा किया था और उसने ‘चैंजिंग द मानसून’ नाम से किताब भी छापी थी।
लंदन में रहनेवाले एक एनआरआई का कहना है कि केरल का मानसून दुनियाभर से अलग है। पानी की इतनी तेज और बड़ी-बड़ी बूंदें गिरती हैं, वैसा कहीं और नहीं होता है। केले के पत्तों पर जब बारिश की बूंदें गिरती हैं, तो पत्ते बिल्कुल नए हो जाते हैं। उसके बाद सूरज की रोशनी में पत्ते सोने की तरह चमकते हैं। मैं तो दस सालों से यही सोना देखने आ रहा हूं। अगले दिन मैं दिल्ली में था। कैमरामैन के साथ। नाम तय हुआ मेघदूत, तो मैं मेघदूत था जिसे बादलों का पीछा करना था। दो दिन बाद मैं दिल्ली से तिरुवंंतपुरम जा रहा था। उस साल, मुझे याद है कि मानसून इस साल की तरह ही देर से आया था। केरल में मानसून देर से तो आया, लेकिन आया तो बरसता ही चला गया। कोल्लम बीच पर मुलाकात लंदन में रहनेवाले एक एनआरआई भारतीय से हुई। वो साहब पिछले दस सालों से हर साल मानसून के समय केरल आ रहे थे। बारिश को गिरते हुए देखने और उसमें भीगने के लिए। लंदन में तो सालभर बारिश होती है, फिर यहां की बारिश देखने के लिए हर साल आना.....तो वे कहने लगे कि केरल का मानसून दुनियाभर से अलग है। पानी की इतनी तेज और बड़ी-बड़ी बूंदें गिरती हैं, वैसा कहीं और नहीं होता है। केले के पत्तों पर जब बारिश की बूंदें गिरती हैं, तो पत्ते बिल्कुल नए हो जाते हैं। उसके बाद सूरज की रोशनी में पत्ते सोने की तरह चमकते हैं। मैं तो दस सालों से यही सोना देखने आ रहा हूं।
इस मुलाकात के दो दिन बाद गुरुवायूर मंदिर में था, बारिश हो चुकी थी और सूरज की रोशनी में केले के पेड़ चमक रहे थे। गुरुवायूर से कोचीन जाते समय सड़क के दोंनों तरफ खेतों में धान रोपा जा रहा था। कुछ किसानों से बात हुई तो उनका कहना था कि आजकल मानसून देर से आता है, जल्दी चला जाता है। एक नौजवान ने कहा कि केरल में भी पानी का अकाल पड़ने लगा है और उसे शहर में नौकरी करने को मजबूर होना पड़ रहा है। मानसून का खेती से रिश्ता तो है, लेकिन मानसून जब मन तरसा देता है तो घर भी छुड़ा देता है। यह मेरे लिए नया अनुभव था। शहर के लोगों के लिए मानसून हो सकता है कि घूमने-फिरने, तफरीह का मौका लाता हो, लेकिन जिस देश में साठ करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं, वहां कम या ज्यादा पानी का बरसना जीवन-मौत से जुड़ जाता है।
गुरुवायूर से कोचीन पहुंचा था, वहां एक पुर्तगाली मूल के आदमी ने कहा, ‘पहले कभी बारिश होती थी, तो नदी डरा देती थी। बहुत आवाज करती थी, लेकिन सालभर जमकर पानी पिलाती भी थी और किसानों के खेतों को तर भी करती थी। अब नदी चुपचाप रहती है। बारिश की बूंदें छत पर, खिड़कियों पर, यहां तक कि दीवारों पर थपकी तो देती हैं, लेकिन बूंदें कंजूसी बरतने लगी हैं।’
मानसून का समय और यह गहरी निराशा, लेकिन कारवार पहुंचते ही नया अनुभव हुआ। कर्नाटक का समुद्र किनारे का इलाका है कारवार। यहां से गोवा तक सड़क का सफर करने का अपना अलग मजा है। एक तरफ सागर चलता है, तो दूसरी तरफ कोंकण रेल, लेकिन एक चौथा हमसफर भी साथ होता है, वो है मानसून। यहीं हमें एक जोड़ा मिला, उनकी नई-नई शादी हुई थी। दोनों हनीमून पर निकले थे। कारवार से गोवा तक, मोटरसाइकिल पर। कभी भीगते, तो कभी सूखते। बारिश होती रही और वो जोड़ा हमें गोवा तक बीच-बीच में मिलता रहा। गोवा में भी मिला था एक शाम क्रूज पर। पानी के जहाज की छत पर फेनी पीते हुए, गिरती बूंदों के बीच। गोवा में पहले बारिशों में इक्का-दुक्का सैलानी ही आते थे। आमतौर पर वहां दिसंबर के आखिरी हफ्ते में जुटते हैं सैलानी ,लेकिन अब वहां मानसून टूरिज्म शुरू हो गया है।
मुंबई की बारिश पर तो किताब की किताब लिखी जा सकती है। मुंबई से दमन दीव तक जाना हुआ। वहां मछुआरे इस समय कुछ आराम की हालत में होते हैं। मछली पकड़ने का काम रुक-सा जाता है। मछुआरे जाल ठीक करते हैं, नाव की मरम्मत करते हैं और इंतजार करते हैं बारिश के कमजोर पड़ने का। केरल में मछुआरों का कहना था कि बारिश के दिनों में प्रान (झींगा) बहुतायत से सागर किनारे ही मिल जाते हैं। ऐसे झींगे जो आकार में बड़े होते हैं। यह झींगे अच्छी कीमत में बिकते हैं, लिहाजा मछुआरे कोई मौका चुकते नहीं हैं। यही वजह है कि मानसून के समय भारत के केरल, तमिलनाडु और लंका के मछुआरों में तकरार भी होती है। एक-दूसरे देश के तटरक्षक मछुआरों को पकड़ते हैं और राजनयिकों का काम बढ़ जाता है।
मानसून का पीछा करते हुए नागपुर पहुंचना हुआ। नागपुर के पास रामटेक नाम की जगह है। पहाड़ी पर एक मंदिर है। उससे सटा है एक संंग्रहालय। उसमें कालिदास के ‘मेघदूत’ को दीवारों पर उकेरा गया है। कहते हैं कि कालिदास ने ‘मेघदूत’ की रचना यहीं रामटेक की इसी पहाड़ी पर बैठकर की थी। ‘यक्ष-यक्षिणी संवाद’ चित्रों के माध्यम से दर्शाए गए हैं। रामटेक में मुझे मोहन राकेश के नाटक ‘अषाढ़ का एक दिन’ याद आया। खासतौर से उसका अंत जब कालिदास वापस अपने गांव पहुंचते हैं। बारिश हो रही है और मल्लिका अपनी झोपड़ी में बैठी कालिदास की रचनाएं पढ़ रही है। यहीं आकर कालिदास कहते हैं कि-मैं अथ से शुरू करना चाहता हूं। बहुत कुछ भूल चुका था मैं, लेकिन बारिश ने याद दिला दिया। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि जीवन की आपाधापी में आदमी कितना कुछ गंवा देता है। पत्नी की तरफ ध्यान नहीं दे पाता, बच्चों की छोटी-छोटी इच्छाओं को समझ नहीं पाता, मां-पिता के पास बैठने का समय नहीं निकाल पाता। मानसून हर साल यही याद दिलाने के लिए आता है कि आप कितना कुछ गंवा चुके हैं। मानसून यह भी याद दिलाने आता है कि जो गंवा दिया उसे भूल जाओ, जो बचा हुआ है उसे बचाकर रखो। रामटेक में ही पहली बार अहसास हुआ कि मानसून जिंदगी से कितने भीतर तक जुड़ा हुआ है।
इस बात का अहसास राजस्थान में जोधपुर से जैसलमेर जाते हुए भी हुआ। दोनों तरफ रेत ही-रेत और भेड़-बकरियों के साथ सड़क पर कब्जा जमाए हुए रैब्बारी। यह रैब्बारी हर साल गर्मियों में चारे की तलाश में हरे इलाकों की तरफ जाते हैं। मानसून का समय इनके लिए घर लौटने का समय होता है। ठीक वैसा ही जैसा कि कालिदास के लिए था जब वे अपनी मल्लिका के पास लौटने के लिए मजबूर हुए थे। जैसलमेर में बहुत से परिवार हैं जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान में रहते हैं। मानसून के दिनों में इनके मन और ज्यादा सूने हो जाते हैं। यहां बादल बरसता है, तो लोग दुआ करते हैं कि बादल थोड़ा पानी बचाकर रखे और सीमा पार जाकर बरसे, इसी तरह पाकिस्तान की तरफ से बादल आते हैं, तो लोगों की आंखें नम हो जाती हैं। उन्हें लगता है कि जरूर उनके किसी रिश्तेदार ने सीमा पार से बादल को यहां बरसने के लिए भेजा है।
कर्नाटक में मुझे एक पुलिस अधिकारी ने कहा था कि मानसून के समय अपराध कम हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि बिहार में हुई। वहां नालंदा के पास एक पुलिस थाने में महिला नक्सली नेता मिली जो बिरहा गा रही थी। एक नक्सली से मुलाकात हुई जिसने कहा कि मानसून के समय उनके कॉमरेड साथी खेती करने चले जाते हैं। पुलिस को कुछ आराम मिलता है, हालांकि उसका कहना था कि मानसून के समय पानी के चलते मूवमेंट प्रभावित होती है, लिहाजा नक्सली घटनाओं में भी कमी आ जाती है। अपने बावन दिनों के भारत भर के दौरे में ऐसे ही ढेरों अहसास मानूसन ने करवाए। असम, मेघालय में बताया गया कि वहां बादल शाम को रेकी करके जाते हैं कि कहां-कहां बरसना है और फिर अगली सुबह जमकर बरसते हैं। वहां बादल इतने पास होते हैं कि ऐसा लगता है कि एक गठरी में बांधकर उन्हें ले जाया जाए।
अंत में इतना ही कहना है कि अब बारिश में मैं भी रोमांचित हो जाता हूं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
एक बात मैं साफ कर दूं कि मानसून ने मुझे कभी रोमांचित नहीं किया है। बचपन में बारिश में भीगने पर स्कूल के चमड़े के जूते भीग जाते थे और पिताजी से डांट सहनी पड़ती थी।
देशभर में मानसून का पीछा करनेवाला पहला पत्रकार अपने बावन दिनों के भारत भर के दौरे में ऐसे ही ढेरों अहसास मानूसन ने करवाए। असम, मेघालय में बताया गया कि वहां बादल शाम को रेकी करके जाते हैं कि कहां-कहां बरसना है और फिर अगली सुबह जमकर बरसते हैं। वहां बादल इतने पास होते हैं कि ऐसा लगता है कि एक गठरी में बांधकर उन्हें ले जाया जाए।अगली सुबह जूते सूखते नहीं थे। (एक ही जोड़ी जूते हुआ करते थे) तो तब पैर की किसी उंगली या अंगूठे पर झूठ-मूठ की पट्टी बांधनी पड़ती थी। टीचर भांप जाती थी, पर बोलती कुछ नहीं थी, लेकिन मुझे यह शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी जिसे मानसून लेकर आता था।
खैर, बात सन् 2003 की है। मई का महीना था। सूरज तप रहा था। पिछले दो सालों से देश में बारिश खुलकर नहीं हुई थी। मैं जयपुर में आज तक चैनल का ब्यूरो चीफ था। पिछले दो सालों से अकाल की खबरें कवर करने भरी गर्मी में निकलता रहा था। प्यासी धरती, प्यासे लोग, सूखे तालाब, सूखी बावड़ियां, मुरझाती फसलें, मरते पशु, पानी पर ताला, पानी पर झगड़े, बारिश के लिए यज्ञ। राजस्थान में कहावत है...घी डुले तो डुले, पानी डुले तो जी भले (घी गिर जाए तो परवाह नहीं, पानी बर्बाद होने पर जी दुखे)।
मई महीने के आखिरी हफ्ते में मुझसे कहा गया कि मानसून का देशभर में पीछा करना है। केरल की राजधानी तिरुवंतपुरम से लेकर जहां दक्षिण-पश्चिम मानसून सबसे पहले आता है। वहां से पूरा देश। मैंने कुछ आनााकनी की तो बताया गया कि मैं देशभर में मानसून का पीछा करनेवाला पहला पत्रकार बनूंगा। टीवी. हो या प्रिंट, मुझे यह भी बताया गया कि इससे पहले बीबीसी के एक पत्रकार ने मानसून का पीछा किया था और उसने ‘चैंजिंग द मानसून’ नाम से किताब भी छापी थी।
लंदन में रहनेवाले एक एनआरआई का कहना है कि केरल का मानसून दुनियाभर से अलग है। पानी की इतनी तेज और बड़ी-बड़ी बूंदें गिरती हैं, वैसा कहीं और नहीं होता है। केले के पत्तों पर जब बारिश की बूंदें गिरती हैं, तो पत्ते बिल्कुल नए हो जाते हैं। उसके बाद सूरज की रोशनी में पत्ते सोने की तरह चमकते हैं। मैं तो दस सालों से यही सोना देखने आ रहा हूं। अगले दिन मैं दिल्ली में था। कैमरामैन के साथ। नाम तय हुआ मेघदूत, तो मैं मेघदूत था जिसे बादलों का पीछा करना था। दो दिन बाद मैं दिल्ली से तिरुवंंतपुरम जा रहा था। उस साल, मुझे याद है कि मानसून इस साल की तरह ही देर से आया था। केरल में मानसून देर से तो आया, लेकिन आया तो बरसता ही चला गया। कोल्लम बीच पर मुलाकात लंदन में रहनेवाले एक एनआरआई भारतीय से हुई। वो साहब पिछले दस सालों से हर साल मानसून के समय केरल आ रहे थे। बारिश को गिरते हुए देखने और उसमें भीगने के लिए। लंदन में तो सालभर बारिश होती है, फिर यहां की बारिश देखने के लिए हर साल आना.....तो वे कहने लगे कि केरल का मानसून दुनियाभर से अलग है। पानी की इतनी तेज और बड़ी-बड़ी बूंदें गिरती हैं, वैसा कहीं और नहीं होता है। केले के पत्तों पर जब बारिश की बूंदें गिरती हैं, तो पत्ते बिल्कुल नए हो जाते हैं। उसके बाद सूरज की रोशनी में पत्ते सोने की तरह चमकते हैं। मैं तो दस सालों से यही सोना देखने आ रहा हूं।
इस मुलाकात के दो दिन बाद गुरुवायूर मंदिर में था, बारिश हो चुकी थी और सूरज की रोशनी में केले के पेड़ चमक रहे थे। गुरुवायूर से कोचीन जाते समय सड़क के दोंनों तरफ खेतों में धान रोपा जा रहा था। कुछ किसानों से बात हुई तो उनका कहना था कि आजकल मानसून देर से आता है, जल्दी चला जाता है। एक नौजवान ने कहा कि केरल में भी पानी का अकाल पड़ने लगा है और उसे शहर में नौकरी करने को मजबूर होना पड़ रहा है। मानसून का खेती से रिश्ता तो है, लेकिन मानसून जब मन तरसा देता है तो घर भी छुड़ा देता है। यह मेरे लिए नया अनुभव था। शहर के लोगों के लिए मानसून हो सकता है कि घूमने-फिरने, तफरीह का मौका लाता हो, लेकिन जिस देश में साठ करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं, वहां कम या ज्यादा पानी का बरसना जीवन-मौत से जुड़ जाता है।
गुरुवायूर से कोचीन पहुंचा था, वहां एक पुर्तगाली मूल के आदमी ने कहा, ‘पहले कभी बारिश होती थी, तो नदी डरा देती थी। बहुत आवाज करती थी, लेकिन सालभर जमकर पानी पिलाती भी थी और किसानों के खेतों को तर भी करती थी। अब नदी चुपचाप रहती है। बारिश की बूंदें छत पर, खिड़कियों पर, यहां तक कि दीवारों पर थपकी तो देती हैं, लेकिन बूंदें कंजूसी बरतने लगी हैं।’
मानसून का समय और यह गहरी निराशा, लेकिन कारवार पहुंचते ही नया अनुभव हुआ। कर्नाटक का समुद्र किनारे का इलाका है कारवार। यहां से गोवा तक सड़क का सफर करने का अपना अलग मजा है। एक तरफ सागर चलता है, तो दूसरी तरफ कोंकण रेल, लेकिन एक चौथा हमसफर भी साथ होता है, वो है मानसून। यहीं हमें एक जोड़ा मिला, उनकी नई-नई शादी हुई थी। दोनों हनीमून पर निकले थे। कारवार से गोवा तक, मोटरसाइकिल पर। कभी भीगते, तो कभी सूखते। बारिश होती रही और वो जोड़ा हमें गोवा तक बीच-बीच में मिलता रहा। गोवा में भी मिला था एक शाम क्रूज पर। पानी के जहाज की छत पर फेनी पीते हुए, गिरती बूंदों के बीच। गोवा में पहले बारिशों में इक्का-दुक्का सैलानी ही आते थे। आमतौर पर वहां दिसंबर के आखिरी हफ्ते में जुटते हैं सैलानी ,लेकिन अब वहां मानसून टूरिज्म शुरू हो गया है।
मुंबई की बारिश पर तो किताब की किताब लिखी जा सकती है। मुंबई से दमन दीव तक जाना हुआ। वहां मछुआरे इस समय कुछ आराम की हालत में होते हैं। मछली पकड़ने का काम रुक-सा जाता है। मछुआरे जाल ठीक करते हैं, नाव की मरम्मत करते हैं और इंतजार करते हैं बारिश के कमजोर पड़ने का। केरल में मछुआरों का कहना था कि बारिश के दिनों में प्रान (झींगा) बहुतायत से सागर किनारे ही मिल जाते हैं। ऐसे झींगे जो आकार में बड़े होते हैं। यह झींगे अच्छी कीमत में बिकते हैं, लिहाजा मछुआरे कोई मौका चुकते नहीं हैं। यही वजह है कि मानसून के समय भारत के केरल, तमिलनाडु और लंका के मछुआरों में तकरार भी होती है। एक-दूसरे देश के तटरक्षक मछुआरों को पकड़ते हैं और राजनयिकों का काम बढ़ जाता है।
मानसून का पीछा करते हुए नागपुर पहुंचना हुआ। नागपुर के पास रामटेक नाम की जगह है। पहाड़ी पर एक मंदिर है। उससे सटा है एक संंग्रहालय। उसमें कालिदास के ‘मेघदूत’ को दीवारों पर उकेरा गया है। कहते हैं कि कालिदास ने ‘मेघदूत’ की रचना यहीं रामटेक की इसी पहाड़ी पर बैठकर की थी। ‘यक्ष-यक्षिणी संवाद’ चित्रों के माध्यम से दर्शाए गए हैं। रामटेक में मुझे मोहन राकेश के नाटक ‘अषाढ़ का एक दिन’ याद आया। खासतौर से उसका अंत जब कालिदास वापस अपने गांव पहुंचते हैं। बारिश हो रही है और मल्लिका अपनी झोपड़ी में बैठी कालिदास की रचनाएं पढ़ रही है। यहीं आकर कालिदास कहते हैं कि-मैं अथ से शुरू करना चाहता हूं। बहुत कुछ भूल चुका था मैं, लेकिन बारिश ने याद दिला दिया। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि जीवन की आपाधापी में आदमी कितना कुछ गंवा देता है। पत्नी की तरफ ध्यान नहीं दे पाता, बच्चों की छोटी-छोटी इच्छाओं को समझ नहीं पाता, मां-पिता के पास बैठने का समय नहीं निकाल पाता। मानसून हर साल यही याद दिलाने के लिए आता है कि आप कितना कुछ गंवा चुके हैं। मानसून यह भी याद दिलाने आता है कि जो गंवा दिया उसे भूल जाओ, जो बचा हुआ है उसे बचाकर रखो। रामटेक में ही पहली बार अहसास हुआ कि मानसून जिंदगी से कितने भीतर तक जुड़ा हुआ है।
इस बात का अहसास राजस्थान में जोधपुर से जैसलमेर जाते हुए भी हुआ। दोनों तरफ रेत ही-रेत और भेड़-बकरियों के साथ सड़क पर कब्जा जमाए हुए रैब्बारी। यह रैब्बारी हर साल गर्मियों में चारे की तलाश में हरे इलाकों की तरफ जाते हैं। मानसून का समय इनके लिए घर लौटने का समय होता है। ठीक वैसा ही जैसा कि कालिदास के लिए था जब वे अपनी मल्लिका के पास लौटने के लिए मजबूर हुए थे। जैसलमेर में बहुत से परिवार हैं जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान में रहते हैं। मानसून के दिनों में इनके मन और ज्यादा सूने हो जाते हैं। यहां बादल बरसता है, तो लोग दुआ करते हैं कि बादल थोड़ा पानी बचाकर रखे और सीमा पार जाकर बरसे, इसी तरह पाकिस्तान की तरफ से बादल आते हैं, तो लोगों की आंखें नम हो जाती हैं। उन्हें लगता है कि जरूर उनके किसी रिश्तेदार ने सीमा पार से बादल को यहां बरसने के लिए भेजा है।
कर्नाटक में मुझे एक पुलिस अधिकारी ने कहा था कि मानसून के समय अपराध कम हो जाते हैं। इस बात की पुष्टि बिहार में हुई। वहां नालंदा के पास एक पुलिस थाने में महिला नक्सली नेता मिली जो बिरहा गा रही थी। एक नक्सली से मुलाकात हुई जिसने कहा कि मानसून के समय उनके कॉमरेड साथी खेती करने चले जाते हैं। पुलिस को कुछ आराम मिलता है, हालांकि उसका कहना था कि मानसून के समय पानी के चलते मूवमेंट प्रभावित होती है, लिहाजा नक्सली घटनाओं में भी कमी आ जाती है। अपने बावन दिनों के भारत भर के दौरे में ऐसे ही ढेरों अहसास मानूसन ने करवाए। असम, मेघालय में बताया गया कि वहां बादल शाम को रेकी करके जाते हैं कि कहां-कहां बरसना है और फिर अगली सुबह जमकर बरसते हैं। वहां बादल इतने पास होते हैं कि ऐसा लगता है कि एक गठरी में बांधकर उन्हें ले जाया जाए।
अंत में इतना ही कहना है कि अब बारिश में मैं भी रोमांचित हो जाता हूं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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