कहीं ये करोड़ों वर्षों की प्रकृति की अमूल्य निधि हमारे बीच से विलुप्त न हो जाए। समय रहते इनके महत्व को समझना होगा व इनके संरक्षण के उपाय कर इन्हें बचाना भी होगा…
पानी एक सक्रिय जैविक उत्प्रेरक है, जिसका प्रयोग विगत वर्षों में कई गुना बढ़ गया है। यह मिट्टी को सजीव करता है। यह जैविक खाद तो नहीं है, परंतु उसको बनाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। पानी से भूमि जागृत हो जाती है। यह भूमि की उर्वरता व कृषि की आवश्यकता को पूरा करती है। यह वायुमंडल में सूक्ष्म जीवों को स्थिर कर भूमि में मानव सहायक गुणवत्ता लाता है। वेदों में इसके महत्व पर अनेक ऋचायें लिखी गई हैं। इनको संरक्षण करने पर बल दिया जाता था। वर्षा को तो आज भी हम भगवान इंद्र के प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।
भरपूर गर्मियों में हिंदी के ज्येष्ठ माह में युवा प्रार्थना करते थे, जो आज भी यदा-कदा सुनने को मिलता है। यह एक प्रकार का भगवान के आगे जनांदोलन व समाज को पानी के महत्व के बारे में जागृत करता था। देश के मैदानी भागों में पानी नदियों से नहरों के रूप में एक से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है, परंतु पहाड़ों में कुछ भागों में कूल्हों को छोड़कर संभव नहीं। कुओं से बिजली द्वारा पानी उठाने के भयानक परिणाम आज भूमि के जल स्तर घटाने में सामने आ रहे हैं। आज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है, परंतु फिर भी हिमाचल प्रदेश में सिंचाई व जनस्वास्थ्य विभाग हैंडपंप लगा रहा है। पड़ोसी राज्य पंजाब में भूमि जल स्तर बहुत नीचे गिर चुका है। हमें उनसे उनकी इस रिपोर्ट से सीख लेनी चाहिए। हिमाचल में इस विभाग में ठेकेदार केंद्रित व्यवस्था को बदल कर पर्यावरण व जल संरक्षण केंद्रित करना चाहिए। प्रदेश में नलकों पर पानी घर-घर पहुंचाने की योजना से लाखों वर्षों से चली आ रही जलाशयों द्वारा जल भंडारण की संस्कृति को गहरा धक्का लगा है। शायद इनके महत्व पर इस घर-घर नलकों की लुभावनी योजना के बाद हमने सोच-विचार करना बंद कर दिया है। ये पानी के तालाब हमारे यहां प्रत्येक गांव में हुआ करते थे।
रिवालसर (मंडी) से नौ किलोमीटर दूरी पर सात झीलों का समूह आज भी मौजूद है। इनके नाम इस प्रकार हैं। कुंतभ्यो, सुखसर, लालसर, कालासर, बरू, कुनाला व कुंडीसर। इनमें एक ही झील जिसका नाम कुंतभ्यो है, वर्ष भर पानी से भरी रहती है। शेष में थोड़े-थोड़े समय पानी मौजूद पाया जाता है। इसके आस-पास सुंदर गांव सरकीघाट नाम से बसा है। लोक गाथा के अनुसार इनका निर्माण पांडवों ने किया था। कहते हैं कि पहले ये वर्ष भर जल से लबालब भरी रहती थी, परंतु आज ये झीलें लोगों में संचेतना न होने के कारण अपनी व्यथा पर आंसू बहा रही हैं। ये सात झीलें पहाड़ की चोटी पर स्थापित हैं। इनसे विधानसभा क्षेत्रों में बल्ह, गोपालपुर व मंडी की लगभग दस लाख आबादी वाले क्षेत्र की भूमि नमी की संरचना देखी जा सकती है। जबकि नलका नीति आने के पश्चात लोगों का ध्यान इनसे हट गया, परिणामस्वरूप ये झीलें आज गाद व मिट्टी की भेंट चढ़ चुकी हैं। आस-पास की मिट्टी व गाद आने से इनका लेवल ऊपर उठ रहा है। इसके कारण जैसे ही बरसात में आस-पास का जल भंडारण इनमें होता है, तो किनारों में छिद्र होने से एकत्रित पानी पूर्णतया रिस जाता है।
इन झीलों के बेस (निचले) भाग से यह मिट्टी व गाद उठाई जाए, तो ये अपने पुराने स्वरूप में लौट सकती हैं। वर्तमान में वर्ष भर जल से भरी रहने वाली झील भी खस्ताहाल में है व कुप्रबंधन का शिकार है। अभी हाल ही में इसके किनारे वाली भूमि पर हनुमान की मूर्ति स्थापित कर दी गई है। गांव से निकलते हुए नालों पर कोई पानी की छननी करने का प्रावधान न होने से प्रतिवर्ष यह गाद से भर रही है। लोग इसके महत्व से सजग नहीं हैं। इसके एक छोर पर श्मशानघाट है, जिसकी राख भी देर सवेर इसी झील में आती है। आज परिस्थिति को देखते हुए कुंतभ्यो झील भी शेष छह की राह पर अग्रसर है।
इसकी गहराई प्रतिदिन कम हो रही है। यही हाल रहा, तो भविष्य में इसका नामोनिशान भी मिट सकता है। कालांतर में इन झीलों की पहाड़ियों पर बर्फ गिरा करती थी, जो अब गिरनी बंद हो गई है। पर्यावरण में आ रहे बदलाव के लिए इन झीलों का संरक्षण अति आवश्यक है। प्रदेश के इतने बड़े वन विभाग की इन वनों व वन्य जीवों के महत्वपूर्ण अंग के प्रति बेरुखी प्रश्नवाचक है। वन विभाग के वन्यप्राणी भाग को यह शोध करना होगा कि पिछले कुछ वर्षों में तेंदुओं का गांवों व शहरों में घुसना तथा वहां आतंक फैलाना कहीं जंगल में इन जलाशयों का विलुप्त होना तो नहीं है। आज हमारी गलत नीतियों के कारण ही इन झीलों का अस्तित्व खात्मे की कगार पर है। कहीं ये करोड़ों वर्षों की प्रकृति की अमूल्य निधि हमारे बीच से विलुप्त न हो जाए। समय रहते इनके महत्व को समझना होगा व इनके संरक्षण के उपाय कर इन्हें बचाना भी होगा।
(लेखक,एमएलएसएम महाविद्यालय, सुंदरनगर, जिला मंडी में भौतिकी के प्रवक्ता हैं)
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